शनिवार, 1 दिसंबर 2012

तुम नक़ल, वो है असल 'आह'

 
ओ चन्द्रमा - सम प्रियतमा 
कै से क रूँ - तुम को क्षमा
है क्या मिला - जीवन जला 
तुम हो प र न्तु है अमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
मे रा प रा जि त प्रेम है 
उस पर बिगड़ता क्षेम है 
तुम व्यर्थ शीतलता धनी 
तन राख से उड़ता धुँआ।
ओ चन्द्रमा ...
 
हूँ देखता तुमको निरंतर 
नयन चल पाते कहाँ 
है दैव को स्वीकार कैसा
तुम वहाँ और मैं यहाँ।
ओ चन्द्रमा ...
 
वे दिन पुराने याद आते 
जागते जब थे निशा
होकर निशाचर घूमते 
था जीव तुझसे ही थमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
ते रे द र्श न में मु झे 
मिलती रही पिय बेपनाह 
फिर भी कसक बाक़ी रही 
तुम नक़ल, वो है असल 'आह'
ओ चन्द्रमा ...


 
">



 



अब से काव्य का सस्वर पाठ कर सकूँगा। कविता को पाठक अपनी रुचि अनुसार विलंबित, मध्यम या द्रुत गति से पढ़ता है। इसमें कवि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। जो पारंगत कवि होते हैं वे अपने शब्दों की बुनावट वैसी ही रखते हैं जैसी वे चाहते हैं। अर्थात उनकी चयनित शब्दावली गति की ओर स्वतः धकेल देती है। इसका अर्थ ये हुआ कि कविता में निहित 'गीति' शब्दों पर निर्भर है।
 
मेरे ब्लॉग का दूसरा युग 'सस्वर' आरम्भ हो रहा है। इस नवीनता को अपनाने में मेरे सहयोगी रहे हैं : अर्चना चावजी जी और संजय अनेजा जी। मैं कृतज्ञ भाव से उनका आभार व्यक्त करता हूँ।
 

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

'नमस्ते ...भैया!'

एक राह में
बार-बार मिलने से
मैं परच गया उससे।
 
चाहा बात करूँ उससे
परिचय से
स्नेह हुआ जिससे।
 
एक बार मैं
असमंजस में था
कि क्या बात करूँ मिलने पर।
 
सहसा वह
बोल पड़ी मुझसे - 'भैया'
'कहाँ खोये रहते हो, शरम से कुछ न कहते हो।'
 
चाल रोक कर
उन शब्दों का
जिनमें मिला हुआ था स्नेह सुधा-सा
- श्रवण कर लिया
- 'भैया' शब्द स्वीकार कर लिया
सहसा मुख से शब्द निकल गया 'बहना !'
 
बार-बार फिर
जब भी मिलते
हँसते, फिर भी बात न करते
वह थोड़ा रुकती चलते-चलते
शरम से कर देती झुक कर 'नमस्ते ...भैया!'
 

सोमवार, 12 नवंबर 2012

स्मृति-दीप

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
जला रहा हूँ आपके* बहाने  कुछ स्मृति-दीप ...
 

"चलो किसी बहाने सही
आप आये तो मिलने 'मुझसे'
-- ये भ्रम पाल रहा हूँ।"

"फिर से अपना परिचय मुझको
दे दो तो 'मैं जानूँ'
-- मानो कि भूल गया हूँ।"
 
"फिर वही बाल छवि कवि को तुम
दिखला दो तो 'दे दूँ सब'
-- ना समझो टाल रहा हूँ।"
 
"है ही क्या सोचोगे तुम 
देने को मुझपर 'तुमको'
-- तुमसे ही माँग रहा हूँ।"
 
"दे दो मुझको फिर शब्द वही 
जो बोला करते 'गुपचुप'
-- विनती कर माँग रहा हूँ।''
 
"ना जाने कौन तृप्ति होती है
इससे मेरे मन की
-- फिर फिर फिर माँग रहा हूँ।"
 
"हो प्रथम आप जिससे 'भैया' का
शब्द सुना ऐसा जो
-- कविता को प्राप्त हुआ हूँ।"

"गुड़िया आयी, चली गयी
है दण्ड सही - ईश्वर का
-- मन ही मन भोग रहा हूँ।"
 
"फिर चाह एक 'अमृता' बनी
उससे भी मैं ना हुआ धनी
-- अंतर्मन सुला रहा हूँ।"
 
"है मोह नहीं छूटता अभी
अब इंतज़ार है कल का
-- 'अमिलन' अभ्यास डाल रहा हूँ।"

"जाओ जल्दी से समझ
विज्ञान हमारे मन का
-- 'अवली' दीपक लगा रहा हूँ।"


*आपके = अमृता बिटिया

बुधवार, 7 नवंबर 2012

अब्धि-हार

उर्मि लालिमा की लाली से
माँग भर रही है सिन्दूर।
आशा ले उर मिला सकेगी
सागर से, तम में भरपूर।
पर सागर विधु से लड़ने को
सजा रहा है ज्वाला-शूल।
छिपा लिया खुद को उसने पर
नभ की ओर उड़ाकर धूल।
चला चाँद चुपचाप चरण धर
नभ पर, हँसकर धीरे-धीरे।
भेद दिया तम धूल सभी को
चंद बाण से सागर-तीरे।
उद्वेलन हो उठा ह्रदय में
सागर ने कर दिया प्रहार।
था वेश पूर्ण आवेश भरा
पर हुई अंत में अब्धि-हार।
 
___
शब्दार्थ :
उर्मि = लहर, तरंग,
उर = ह्रदय,
विधु = चन्द्रमा,
ज्वाला-शूल = ज्वारों रूपी भाले,
धूल = धुंध,
उद्वेलन = क्रोध से भड़कना,
आवेश = क्रोध,
अब्धि-हार =सागर की पराजय

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

'नो''दो' ग्यारह हुआ हास

'दो''नो' का है प्रेम यही वे ग्यारह नहीं कभी हो पाये।
'नो''दो' ग्यारह हुआ हास जब उसने उनके मुख पलटाये।
अर्थ हुआ असमर्थ गर्त में गिरा व्यर्थ ही हाय-हाय।
मुहावरे का पहन मुखौटा हास हुआ हास्यास्पद काय।
किया बहुत प्रयास किन्तु कुछ, तुमसे सीधा कह ना पाये।
इसीलिए सब कुछ कहने का करता मन है नये उपाय।
कभी हास के पीछे छिपकर कभी व्यंग्य का गला दबाय।
तरह-तरह की वक्र उक्ति को करता रहता दाएँ-बाएँ।
मन पर बढ़ता बोझ उभरतीं माथे पर चिंता रेखायें।
सरल भाव को तरल पात्र में मेरे प्रियतम पी ना पायें!!


ग्यारह - साथ

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

कौमुदी !

अय उद्यान की प्रिये !
बैठ आ मधु पियें !!
प्रेम से दो पल जियें !
कौमुदी, कर दीजिये।।
 
आइये इत आइये !
उर-पुष्प बैठ जाइये !!
तनु पंख खोल दीजिये !
तुम वक्ष के, मेरे लिए।।
 
निहार लूँ, मैं दृष्टि से
सौन्दर्य देह-यष्टि का।
मैं सदा-सदा के लिये
फिर बाँध लूँगा मुष्टिका।।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

छंदशाला में आवेदन

श्लिष्ट वक्रोक्ति :
उलट-पलट कर भाव ने, लिया अंत संन्यास।   
छंद शर्त को मान के, सिकुड़े शैली* व्यास*।।

करुण हास्य [ठेस] :
प्रतियोगी बन आ गये, हम कविता के देस।
अब ना जाने क्या मिले, ठाले बैठे ठेस।।

काम्य भक्ति [आशा] :
'रविकर' से दोहे रचूँ, 'स्वर्णकार' से शेर।
मद 'नवीन' से छंद का, होगा देर-सबेर।।

चातकी शृंगार [सुन्दरता] :
मन की सुन्दरता छिपी, तन के भीतर जाय।
खोज करूँ अनुमान से, नित टकटकी लगाय।।

प्रतिक्रियात्मक दोहा :
पहलवान भी जानता, मिट्टी की सौंधास।
नित्य अखाड़े में करे, कुश्ती के अभ्यास।।


[27-09-2012]

सोमवार, 17 सितंबर 2012

मीत-पिता

ओ मीत पिता, दो मुझे बता
क्या दोष प्रीत में है मेरे?
क्यूँ नहीं पास आने देते
सविता को, अब भी घन घेरे.
मन मीत कल्पनाओं में आ
लिख देती हृत पर प्रेम-लेख.
फिर हृदय चुरा लेती मेरा
वह प्रेम लेख न सकूँ देख.
प्रतिकार आपसे लूँगा मैं
करवा तुमको अपराध-बोध.
मेरे औ' मेरे मीत बीच
शंका करके क्यूँ किया शोध?
कामुक कराल कहकर तुमने
मुझपर डाली है पंक-छींट.
उस पर भी हैं कुछ छींट गये
जो था श्रद्धा का हृत-किरीट.
शललित वचनों की शरशय्या
जिस पर लेटा हूँ निरपराध.
शश दे तुमने अपमान किया
मेरे यश में बन गया बाध.
मैं खुद को दंडित करने की
लेता हूँ निष्ठुर आज़ शपथ
मेरी पावनता बनी रहे
तुम भी हो जावोगे अवगत.
हीनोडुराज अम्बर तल में
शश पाकर भी ना हुआ हीन.
शोभा शशीश बनकर सर की
अस्थिर यश को भी किया पीन.
हूँ तोड़ रहा संबंध मीत
जोडूँगा अब संबंध मौन.
उदघाटित भी होगा तो तुम
पाओगे बस 'बहना' अमौन.
 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

प्रियंवदा-प्रवास पर

तू ही मेरा मधुमेह है
तू ही मेरा अस्थमा
तू ही है पीलिया पियारी
तू ही नज़ला प्रियतमा.
 
तुममें जितनी भी मिठास थी
मैंने पूरी पान करी
हृदय खोलकर सुन्दरता भी
तुमने मुझको दान करी.
 
स्पर्श तुम्हारा मनोवेग को
शनैः शनैः उकसा देता
उस पर शीतल आलिंगन फिर
स्नेह वर्षण करवा लेता.
 
तुम हो नहीं, इसी से अब तो
समय-असमय खाता हूँ
हलक सूखता, श्वास उखड़ता
हृदय-काम ढुलकाता हूँ.
 
जितनी भी शर्करा आपसे
समय-समय पर पान करी
निकल रही निज संवादों में
श्वास तप्त के साथ अरी!
 
 

सोमवार, 27 अगस्त 2012

कविता

पहली बार जब आईं तुम
मेरी जिह्वा अपरिचित थी.
ना बैठाया मैंने तुमको
ना जाना था तुम जीवन हो.
 
पय पीकर भी तरसते थे
पीने को स्नेह-नीर अधर.
तुम अधरों तक आईं किन्तु
मैंने अज्ञ बन विदा किया.
 
तुम मेरे सह हँसी खेली
मुझको निज मीत बनाकर
लोय-लोर शैशव के तुमने
सुखा दिये लोरी गाकर.
 
वय-संधि में अचानक ही
तुम भूल गईं लोरी गाना.
चंचल बन तुमने शुरू किया
मुझे प्रेम-गीत सुनाना.
 
 

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

आपका नाम

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
राम का नाम लिया करता.

दिया था जो तुमने उपहार
वही है उसका कारागार
बद्ध करना उसका विस्तार
कहाँ तक किया उचित व्यवहार.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
काल की बाट जुहा करता.

रूठता प्राणों से पवमान
देह जाने को है श्मसान
आपका बहुत किया सम्मान
नेह का होता है अवसान.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपको कोसा है करता.

किया जब मैंने उसको मुक्त
जगा जैसे युग से हो सुप्त
किया मेरा उसने जयनाद
द्वार पर स्वयं हुआ नियुक्त.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपका नाम लिया करता.

शनिवार, 4 अगस्त 2012

न्यायकारी की भेद दृष्टि

ओ न्यायकारि परमेश्वर !
तू न्याय एक सा तो कर
उर्वरा और ऊसर पर
वर्षण करके न चुपकर!!

उर्वरा पे है हरियाली
ऊसर की गोदी खाली
ये न्याय तुम्हारा कैसा!
दोनों के तुम हो माली!!

ये भेद दृष्टि अनुचित है
ऊसर में भी संचित है
अंकुरित करन की इच्छा
पर रोध हुआ किञ्चित है.

कैसे भी उसे हटाओ
तुम जिस भी रस्ते आओ
मैं तुझे पा सकूँ ईश्वर!
कुछ चमत्कार दिखलाओ!!

______________

न्यायकारि = न्यायकारी

शनिवार, 28 जुलाई 2012

दिक् शूल

सोम-शनि है प्राची प्रतिकूल
दिवस रवि का उसके अनुकूल.
प्रतीची में मंगल-बुध जाव
शुक्र-रवि में होवें दिकशूल.
उदीची में बुध-मंगल भार
शुक्र शुभ होता शुभ गुरुवार.
अवाची को जाना शनि-सोम
गुरु को चलना शकुन-विलोम.
______________
उदीची - उत्तर दिशा
अवाची - दक्षिण दिशा
प्राची - पूर्व दिशा
प्रतीची - पश्चिम दिशा
मैं इस कविता को देना नहीं चाहता था.... क्योंकि अब मैं इस विचारधारा से बिलकुल सहमत नहीं हूँ कि 'दिकशूल' जैसा कुछ होता है.... ये कोरा अंधविश्वास है... जब ये रचना बनायी थी. तब मैं दिकशूल से बहुत प्रभावित रहता था.

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

तुम पुष्प भाँति मुस्कान लिये

तुम धरा धीर धारो बेशक 
बदले में ना कुछ चाह करो. 
ये धरा सहिष्णु स्वभावी 
केवल स्व-गुण प्रवाह करो. 

तुम रहो पपीहे-सी प्यासी 
बदले में ना कुछ आह करो. 
ये बहुत अधिक स्वाभिमानी  
वारिवाह की ना वाह करो. 

तुम करो स्वयं को रजनीगंध 
बदले में ना अवगाह करो. 
ये गंध देखती नहीं अमा, 
राका की अब ना राह करो. 

जीवन-कागज़ कोरा कर लो 
तो उसको जबरन नहीं भरो. 
यदि ज्ञान-बूँद की भाँति बनो 
तो एकाधिक मन शुक्ति करो. 

चिड़ियों-सा चहको मन-आँगन 
आखेटक दृग से नहीं डरो. 
यदि निद्रा में लेना सपना, 
तो भोर-नींद की चाह करो. 

[आलोकिता जी के लिए लिखी कविता जो मेरे संग्रह से छिटकी पड़ी थी। आज शामिल कर रहा हूँ ]

बुधवार, 18 जुलाई 2012

कविता-चेरी

आँखें तलाशती हैं मेरी
कविता के लिये नई चेरी
आ बन जावो प्रेरणा शीघ्र
मत करो आज़ बिलकुल देरी.
है कौन प्रेरणा बने आज़
मैं देख रहा हूँ सभी साज
बैठे हैं अपने गात लिये
पाने को मेरा प्रेम-राज.
आकर्षित करने को सत्वर
कुछ नयन कर रहे आज़ समर
शर छूट रहे हैं दुर्निवार
कुछ डरा रहे हैं लट-विषधर.
मुझको चूमो कह रहे गाल
मुझको छूवो कह रही खाल
पग दिखा रहे हैं मस्त चाल
- ये उलझाने को बिछा जाल.
कुछ कटे हुए केशों की भी
कर रहे हैं इतनी देखभाल
अंगुली फेरें, मुझको लेकिन
फण कटे व्याल लग रहे बाल.
जिन पर वसनों की कमी नहीं
वे वसन दिखाते सभी आज़
आकर्षक बनने को तत्पर
कुछ दिखा रहे हैं छिपी-लाज.
सुन्दर होना सुन्दर दिखना
ये तो सबसे है भली बात
पर मर्यादा भी रहे ध्यान
वसनों के अन्दर रहे गात.
अब भी तलाशती हैं आँखें
कविता के लिये नई चेरी
जो दे कविता को नई दिशा
वो बन जावे आकर मेरी.
 
*कविता-चेरी = 'प्रेरणा' से तात्पर्य
दुर्निवार = लगातार, जिसे रोकना कठिन हो.

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

शिकायत

"आऊँगा"
कह कह कर
क्यों रह रह जाते हो
आपके लिये रिक्त करती हूँ घर
पर तुम ना आते हो.
"गाऊँगा"
कह कह कर
चुप क्यों रह जाते हो
आपके लिये बाँधती हूँ नूपुर
पर तुम ना गाते हो.
"जाऊँगा"
कह कह कर
तुम क्यों ना जाते हो
आपके लिये प्रशस्त करती हूँ पथ
पर तुम घबराते हो.

शुक्रवार, 29 जून 2012

पुत्री-प्रेम

पिता-पुत्री का प्रेम कैसा हो?.... इस कविता में एक रूपक के माध्यम से बताना चाहा है.
 
जाने क्या फिर सोच घटा के पास चला मारुत आया.
केशों में अंगुलियाँ डाल फिर धीरे-धीरे सहलाया.
सुप्त घटा थी जगने वाली दूज पहर होने आया.
कोस रहा मारुत अपने को क्यूँ कल वो अंधड़ लाया.
थकी पड़ी थी आज़ घटा-तनया तन-मुख था कुम्हलाया.
करनी पर अपनी मारुत तब देख उसे था पछताया.
खुला प्राचि का द्वार जगाने था बालक सूरज आया.
'जागो-जागो हुआ सवेरा' पीछे से कलरव आया.
उठी घटा तब मारुत ने चूमा छाती से चिपकाया.
'क्षमा करो बेटी मुझको मैंने तुमको कल दौड़ाया.
'नहीं पिताजी नहीं, आप तो दौड़ रहे थे नीचे ही.
मैं तो ऊपर थी, पाने को साथ तुम्हारा दौड़ रही.' [गीत]
 
[बेटी 'अमृता' के लिए]
 

बुधवार, 27 जून 2012

हृदय का संस्कार

क्या अब भी उतना ही प्रगाढ़
मुझसे करते हो प्रेम प्रिये !
जितना पहले करते अपार
दश शतक विरह दिन बीत लिये.
आयी थी कभी, याद मुझको
अपने यौवन में प्रेम बाढ़.
तुम बहे, परन्तु धीर बना
मैं अनचाहे लेता बिगाड़.
क्यूँ करता ऐसा नहीं समझ
आया मुझको अब तक छिपाव.
होते थे पास-पास लेकिन
प्रकटित होने देता न भाव.
हैं गोपनीय मन भाव सभी
बन गये हृदय के संस्कार.
अब चाहे भी ना कर सकता
उद्घाटित मैं उनका विकार.
खिल पुण्डरीक पंकिल जल में
महिमा बढ़ती सर की अपार.
थे गुप्त दुष्ट मन के विकार
उनसे निकले सुन्दर विचार.

गुरुवार, 21 जून 2012

प्रयत अंतर में पतित विचार...

आचार्य परशुराम राय जी का इस बार का पाठ यहाँ http://manojiofs.blogspot.in/2012/06/116.html पढ़कर जानिये....कि काव्य में किन परिस्थितयों में अश्लील दोष भी गुण हो जाता है.
और वह शृंगार 'रस' के घर में न जाकर 'रसाभास' की दीवारें लांघता हुआ दिखायी देता है.



अरी अप्सरे अनल अवदात
शिथिल कर देने वाली वात
आपके अंगों का आकार
ध्यान आते ही गिरता धात।
देख तेरे मनमोहक प्रोत
नयन बन गये हमारे श्रोत
लिपटते हैं तन-चन्दन जान
सर्प, सुन्दरता का पा स्रोत।
आपको डसने को तैयार
नयन, लिपटे करते फुत्कार
किन्तु भ्रम में 'अहि-तिय-अहिवात'
स्वयं का कर लेते संहार।
लगाने को तत्पर है घात
तुम्हारे तन पर मेरा गात
विदारित* कर कदली-उरु खंभ
पतित मन में पल गया पलाद*।
कभी था मन पावन मर्याद*
स्वयं संयम था मैं अपवाद
देख मेरा यौवन अम्लान
मीनकेतन* भी खाता मात।
न जाये कब मन में उत्पात
मचाने लगा मदन मनजात*
अग्र उसके मद माया मोह
सैन्य दल था नासीर* अराति।
काकघर में कोकिल परजात*
कपट से पलते सदा विजाति.
प्रयत अंतर में पतित विचार
मदन-पिक द्वारा घुसे सयात*।
अरी गणिके, तुमने निज ओज
अम्ल जाना, चाटा कर भोज
कुष्ठ हो गया लिया परियात*
गोधिका गृह की लगती खोज।

गुरुवार, 14 जून 2012

सुदृश्य

पलकें मेरी लपक लेतीं
प्रत्येक मोहक चित्र को
पल में लपकतीं पलक गिरते
स्वप्न के सुदृश्य को.
हैं बहुत से सुदृश्य ऐसे,
नित आते नयन पट पर.
पट खोलते दर्शन कराते
लौट जाते उसी पथ पर.
वे जब न आते, छोड़ जाते
राह में पलकें बिछाना
कठिन हो जाता तब मेरी
पलक से पल का मिलाना.

[मेरे विद्यार्थी जीवन की पहली शृंगारिक रचना, मार्च 1989]

शुक्रवार, 8 जून 2012

उड़ रहे हृदय में दो विमान

उड़ रहे हृदय में दो विमान*
सपनों का ईंधन* ले-लेकर.
वे जाल फैंकते हैं विशाल
बंदी करने पिय-उर बेघर.
पिय का उर पर हर बार बचा
छोटा था जाल छविजाल तुल.
शर छोड़ रहे दोनों विमान
पुष्पित करने हृदयस्थ-मुकुल.
पर नयन-बाण सम्मुख सब शर
अपनी लघुता को दिखा रहे.
निश्चल नयनों के चपल बाण
रण-कौशल अब तो सिखा रहे.
चख लिया पराजय का जब मुख
तब नहीं हुआ किञ्चित भी दुःख
दोनों विमान चक्कर खाते
नीचे गिरते करते 'सुख-सुख'.
________________________
दो विमान --- कल्पना और आकर्षण
सपनों का ईंधन ---- उड़ान भरने के लिये आवश्यक ऊर्जा
पिय-उर बेघर ---- पिय का हृदय अपने ठिकाने पर नहीं, इसलिये बेघर कहा.
छविजाल --- सौन्दर्य
तुल ---- तुलना में

गुरुवार, 31 मई 2012

स्वप्न सुन्दर वल्लभा

पलकों तले मेरे बसा एक स्वप्न था.
जिसमें थी सोती एक सुन्दर वल्लभा.
लावण्य की सारी निधि उस पर ही थी.
वह स्वयं थी लेटे हुए निधि द्वार पर.
पुष्प-शैया पुष्प-कण से थी विभूषित.
पुष्प-वृष्टि हो रही पलकों तले नित.
स्वप्न-जग में घूमती वह देखकर यह.
हाथ में है हाथ पिय का साथ में वह.
जा रही पिय के सह झूलन को झूला.
पिय, पिया-स्पर्श से अपने को भूला.
झूलने आ पहुँचे उर-सर के तीरे.
महकते पुष्कल खिले थे पद्म-नीरे*.
निज जीवन-वृक्ष पर झूले पड़े थे.
पेंग देते ही स्पंदित वृक्ष होते.
झूलकर वे चल दिये उर-सर किनारे.
पग बढ़ाते तट-तटी पर शीतलारे.
अस्त होते देख दिनकर लालिमारे.
कुछ समय बैठे थके तट पिय-पियारे.
बैठ तट पर देख खिलती सित कुमुदिनी.
ले रही पिय शीतलाई भरनि तंबी.
पी उसका पी रहा स्नेह-नीर सर में.
औ' उर को कर दिया स्नेह-रिक्त क्षण में.
तभी .... वे आँख से ओझल निशा में हो गये..
हाय, निज नयन बहुत व्याकुल हुए.
पलकें करों से मसलता मैं नित उठा.
पर उठ न पाती स्वप्न सुन्दर वल्लभा.
_________________
* नीरे = नियरे, नेड़े, पास में

मंगलवार, 29 मई 2012

मैं दर्शनों को ही किराया मानता

है निज उर में, बहुत खाली जगह
एक क्या, अनेक बस सकते यहाँ.
रुक क्यों गये, इत आते हुए तुम
क्या कहीं ओर भी है घर, इस उर के सिवा?
न लूँगा आपसे, कुछ भी किराया
दे दूँगा अपितु, स्नेहिल संपदा.
जो है अभी भी, उर में इकट्ठी
उसको व्यय करना, चाहे शृंगार में ही.
क्या कहा? यहाँ पर आना कठिन है
और बाद में जाना भी मुश्किल.
स्नेह धन को लेना गुनाह है.
तो कहिये - आसान क्या, निर्दोष क्या है?
बिन किये तुम बात मुझसे, चल पड़े.
क्या यही होता आश्रितों का धर्म है?
ये जानकर भी 'है सभी सुविधा यहाँ'
मैं दर्शनों को ही किराया मानता.

सोमवार, 21 मई 2012

मेरा विराग

बस में बिलकुल भी नहीं धार
बह रही हृदय से जो अपार
राशि-रत्नों की हुई क्षेम*
जो आया था वो गया प्रेम.
रस में निमग्न आनंद-धाम
को जाऊँगा होकर अवाम.
हो राग-द्वेष से दूर, काम
में लाकर पूरा मैं विराम.
ममता माया मोह मध्य धार
में डूबेगी होकर विकार
लाएगा सिन्धु जब भी ज्वार
ला देगा उनको फिर उभार.
नव रूप समन्वित होकर वे
धारेंगे सर पर अरुण पाग.
अपना अस्तित्व मिटाकर वे
बन जायेंगे मेरा विराग.
______________
 
बस में = वश में
क्षेम = सुरक्षित, सलामत 

गुरुवार, 17 मई 2012

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !
मत देखों निज पीड़ा गहरी.
तेरी दृष्टि पड़ते ही खिल
उठती है हिय में रत-लहरी.
न बोलो तुम, मृदु हास करो
चन्दा किरणों सह रास करो
तुम सन्नाटे के साँय-साँय
शब्दों पर मत विश्वास करो.
हे मंद-मंद चलने वाली,
तम-पद-चिह्नों की अनुगामी !
पौं फटने से पहले जल्दी
प्रिय-तम से मिल लेना, कामी !

सोमवार, 7 मई 2012

तुलना

नव मीन-निलय में विलय हुए
सित सरिता के सारे सुभाव.
सब सूख गये सरिता तीरे
नंदन-वन तन के हरे घाव.
नव मीत मिले निश-तिमिर नगर
नयनाभिराम नय के नरेश.
उर-सर में करते हैं नूतन
सृष्टि का फिर से वे प्रवेश.
ऋतु उन्मीलन कर रही, छोड़
जाने से पहले कर मरोड़.
नासीर भाँति कर के समूह
की उर-सर में आयी हिलोर.
जल्दी-जल्दी पिक अमी भाँति
कानों में मिश्री रहा घोल.
कहता कवि से - "है कंठ कहाँ?
अब कर लो दोनों यहीं तोल ?"

शनिवार, 5 मई 2012

मुझे संदेह

हो रहा है मुझको संदेह
आप क्यों करते मुझसे नेह
आपका नित आना-जाना
देखता है ऊपर से मेह.
आप पीते थे अमृत पेय
नेह था सदा आपको देय
अरे अब विष का क्योंकर पान
किया करते हो नेह से हेय.
पलक पूरित आखें पलभर
आपको कर जाती थीं गेय
किन्तु जबसे त्यागा तुमने
लाज का वसन, मुझे संदेह !

शुक्रवार, 4 मई 2012

सुन्दर शाप

रहा करता हूँ सबसे दूर
मिलन फिर भी होता भरपूर
जिन्हें मैं आने से रोकूँ
वही घुसते आँखों में घूर.
जहाँ जाता हूँ सारे साथ
चले आते हैं वे चुपचाप
भोर दिन संध्या हो या रात
निरंतर देते सुन्दर शाप.
दिवा में यादों का ले रूप
सोच को ले जाते हैं दूर
रात में स्वप्नलोक का कूप
घुमा लाते हैं मद में चूर.

गुरुवार, 3 मई 2012

भानु-भामिनी

वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.
नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.
मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनना चाहे तिया, कामिनी.
शब्दार्थ :
वियत - आकाश; प्रतूलिका - गद्दा; अभ्यागत - अतिथि;
भामिनी - क्रोधोन्मत्त स्त्री; यामिनी - रात्रि; कंज - कमल;
कंदर्प - कामदेव; अंध -गहन; दर्पक - कामदेव/ अभिमानी;
द्विज-दर्पण - चन्द्रमा रूपी दर्पण; तिया - स्त्री/पत्नी.

बुधवार, 2 मई 2012

आपका खेल

काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
गुजरी है मेरे भावों की
अरथी, हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज़ खेला है मेरी गेल.
प्रभो! अब क्या होगा कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.

________________

गेल = गैल 

मंगलवार, 1 मई 2012

मुझसे तुम घृणा करो चाहे

मुझसे तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने.
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने.

मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश.
छोड़ो अथवा स्वीकार करो
चाहे ममत्व का करो लेश.

मुझको अभाव में रहने की
पड़ गई पुरानी आदत है.
मर चुकी प्रेम की तृषा ह्रदय
पाया ममत्व भी आहत है.

कवि पास कल्पना है अपनी
सब कुछ अभाव में देती है.
माँ बहिन प्रेमिका बन करके
वह मुक्त मुझे कर लेती है.

[दूसरी बार प्रकाशन]

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

अवचेतन की हलचल

भर गया न जाने क्या सर में
भारी भारी-सा लगता सर !
मैं सोच रहा आखिर है क्या
सर में कैसी होती चर-मर !
क्या कारण है जो नहीं चैन
मिल पाता है मुझको पलभर !
इक शब्द गूँजता अनहद-सा
बस साँय-साँय, सर में सर-सर !
था ज्ञान मिला जो गुरुओं से
क्या हुआ जंग खाकर जर्जर !
या अवचेतन मस्तिष्क मुआ
घर्षण करता किञ्चित बर्बर !
 ___________
 
सर = सिर
मुआ = देशज भाषा का अपशब्द.
 

बुधवार, 28 मार्च 2012

कैसे करूँ?

सत् सुन्दरता का पान करूँ
केवल वसंत का गान करूँ
आगंतुक अंतर्मन न पढ़े
तब कैसे मैं सम्मान करूँ?
प्रिय-पग-आहट भी कान करूँ
मिलती उपेक्षा 'ना' न करूँ
चुपचाप चला आये-जाये
तब कैसे हृत का दान करूँ?

सोमवार, 26 मार्च 2012

मुझको हर मौसम लगे भला

जब ह्रदय के उद्गार घनीभूत होकर व्यक्त हों तब काव्य अत्यन्त प्रभावशाली बन जाता है। विद्वता जब सरलता में प्रकट होती है तब वह कविता-सी मधुर हो जाती है।

पतझड़ में थे सब झड़े पात
मैने पूछा क्या हुयी बात
वे बिलख-बिलख कर बोले यूँ
पीड़ा की गठरी खोली यूँ
मैने डाली से प्यार किया
डाली ने मुझको त्याग दिया
फिर भी मैं गया नहीं कहीं
सोचा बनकर मैं खाद यहीं
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
जड़ को अपना कण-कण अर्पित
कर, पल्लव फिर बन आऊँगा
अपने विवेक को सूक्ष्म करो
मत करो प्रतुल! प्रथुल उसको
हठ के आगे मत हो अस्थिर
कुछ योग करो हो जाओ थिर
उनको पतझड़ से मोह बड़ा
मुझको हर मौसम लगे भला
अब कैसे मैं समझाऊँ उन्हें
कर दूर कोप, बिहंसाऊँ उन्हें
उनसे कहना,सन्देश मेरा
अब नष्ट करें कंटक घेरा
फिर दृष्टि नेक पीछे डालें
मैं खड़ा वहीं आँखें खोले
है कोई उनका शत्रु नहीं
कटुता है उनकी मित्र नहीं
अनुराग सदा अनुरागी है
लगता यद्यपि कुछ बागी है
सब करते प्रेम उन्हें जी भर
कह दो उनसे भर लें आँचल॥
- कौशलेन्द्र जी

गुरुवार, 22 मार्च 2012

भयंकर रक्तपात में भी पुष्प सुगंध नहीं त्यागते

आशुकवि रविकर जी और आचार्यवर कौशलेन्द्र जी,
पिछले कुछ दिनों से एक पीड़क मनःस्थिति को झेल रहा हूँ... आपकी काव्य-टिप्पणियों से संवाद करने से पहले आपको अपने मन में उठ रहे झंझावात से रू-ब-रू कराना चाहता हूँ. मेरे कुछ प्रिय हैं जो परस्पर घृणा करते हैं. मैं दोनों के ही गुण-विशेषों का ग्राहक हूँ. मैं किसी एक पाले में खड़ा दिखना नहीं चाहता क्योंकि दोनों से संवाद बनाए रखना चाहता हूँ. मेरी स्थिति मदराचल पर्वत को मथने वाली मथानी 'वासुकी'-सी हो गयी है. मेरे मन में बिना क्रम के प्रश्ननुमा विचारों का चक्रवात उठ खड़ा हुआ है :
— क्या 'दिन' शब्द 'रात' शब्द के साथ जुड़कर अपनी उज्ज्वलता खो बैठता है? फिर तो दिन-रात रहने वाला 'प्रिय स्मरण' एक मानसिक अपराध होना चाहिए??
— क्या 'राम' शब्द 'रावण' शब्द के साथ जुड़कर अपनी उत्तमता गँवा बैठता है? फिर तो 'राम-रावण' के प्रसिद्ध युद्ध को 'दो लड़ाकुओं का युद्ध' कहना उचित होना चाहिए??
— क्या 'सुर-असुर', 'कृष्ण-कंस', 'सत्यासत्य', 'पाप-पुण्य' आदि शब्द युग्म बनाना सत शब्दों के साथ अन्याय करना है?

सभी जानते हैं कि राम की वानर सेना में कई विद्वान्, वैज्ञानिक और अभियंता थे. जिन नल और नील नाम के वानर अभियंताओं ने श्रीराम के लिये बहुत कम समय में 'सेतु' बाँधा. उस समय उन जैसे ही कई अन्य विद्वान् और वैज्ञानिक भी 'लोकनायक दशानन' की विद्वता से प्रभावित थे. वेदों के प्रकांड पंडित और इच्छानुसार सृष्टि को संचालित करने की क्षमता रखने वाले वैज्ञानिक 'रावण' की उत्कृष्ट भौतिक विज्ञान कला से जगती मुग्ध थी, प्रशंसक थी, लाभान्वित थी. दशरथ और दशानन जैसी विश्वशक्तियों के बीच वर्षों से समूचा विश्व दो फाड़ था. लेकिन ऐसे में भी कुछ लोग दोनों के प्रति स्नेह भाव रखते थे, जैसे वैद्य, व्यापारी और समीक्षक. मित्र हो अथवा शत्रु, दोनों की मूलभूत आवश्यकताओं को परस्पर ध्यान रखा जाता था. जहाँ एक ओर युद्ध में नियमों का पालन होता था वहीं दूसरी ओर युद्ध से बाहर रहने वाले सामाजिकों में भी एक आचार-संहिता पालित थी.

वैचारिक द्वंद्व हो अथवा शारीरिक द्वंद्व ....अखाड़े के अतिरिक्त कोई तो ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ दोनों में परस्पर संवाद बने..
एक रूपक (दृष्टांत) मन में आ रहा है :
"भयंकर रक्तपात में भी पुष्प सुगंध नहीं त्यागते."
उपर्युक्त रूपक पर चिंतन करते हुए एक और विचार छिटककर बाहर आ खड़ा हुआ है --
यदि 'गुलाब' जैसी कंटीली झाड़ियों में .... 'फूल' खिलना छोड़ दें तो ऐसे पौधे भी बेकदरी पायेंगे. नागफनियों तक में पुष्प खिलते हैं. बेशक उनमें सुगंध न के बराबर होती है फिर भी भौरें और मधुमक्खी उनके पास बिना भेदभाव जाते हैं. रस होता है तो जरूर लेते हैं नहीं होता तो उसपर थूकते नहीं. सृष्टि में जो भी जिस सामर्थ्य का है वह शिष्टाचार के नाते एक सामान्य व्यवहार का अधिकारी है. हाँ, कुछ गुणों की अधिकता के कारण हमें वस्तु अथवा व्यक्ति विशेष अधिक मन भाते हैं.
मेरे इस संवाद की गंभीरता को कृपा करके समझिएगा और मार्गदर्शन करियेगा. आपको स्यात प्रकरण स्पष्ट न भी हो तो भी मुझे आपसे ही कहने का साहस हो रहा है. सीधे-सीधे नाम लेकर कई बात कर सकता था लेकिन श्रेष्ठता की होड़ से बाहर आकर कुछ बातें कहना मन को तनाव से मुक्त कर रहा है. आप स्वतंत्रमना हैं.. जहाँ चाहे वहाँ जाते हैं... मुझे यह रुचता है.
अपने लिये आवागमन के मार्ग चिह्नित करना और अपने लिये वर्जनाओं का जाल बुनना किस आधार पर हो? कौन-सी कसौटी पर इन्हें कसूँ?
मन में तरह-तरह के संकल्प आ-जा रहे हैं :
— "अब से बिना नाम चिह्नित किये अपने प्रियजनों का गान किया करूँगा."
— "माला जाप' के उपरान्त 'अजपा जाप' का पड़ाव आता है - अब वही करूँगा."
... ये संकल्प स्थिर नहीं हो पा रहे हैं, आपसे अनुरोध है कि अपने अनुभवी चिंतन का स्नान करायें... मन सुखद विचारों के बिछोह से गदला हो गया है.
नव वर्ष आ रहा है.. उसके आने से पहले अपनी समस्त कलुषता धो लेना चाहता हूँ. कृपया अपनी शुभ्र कामनाओं से मेरी दुविधाओं को दूर कर दीजिये!

बुधवार, 21 मार्च 2012

पहरा

बोलो मुझसे नहीं, दिखावो ना ही तुम अपना चेहरा।
बार-बार आँचल को अपने मारुत में तू नहीं तिरा।
चित्र खींच उंगलियाँ तुम्हारा लेती बारम्बार चुरा।
सुन्दर इतने आप कि आँखें लगा रहीं तुम पर पहरा।
मधुर शब्द सुन्दर मुख पावन रूप तुम्हारा रहे खिला।
किसी-किसी को ही मिलता जैसा तुमको ये रूप मिला।
पर संयमित नयन तुमको इक बार देख झुक गये धरा।
निष्कलंक यौवन, प्यारी! ये रहे तुम्हारा मुक्त जरा।
बोलो मुझसे नहीं ....।।

सोमवार, 12 मार्च 2012

कविता-काढ़ा

पतला ही रह गया रसायन
नहीं हुआ वो गाढ़ा.
क्षीर समझकर पीने आये
हंसराज सित काढ़ा.
स्नेह शुष्क चौमासा बीता
बीता थरथर जाड़ा.
लेते रहे अलाव विद्युती
देह से स्नेहिल भाडा.
दर्शन अभिलाषा की मथनी
मथती कविता-काढ़ा.
पर हंसराज मुख अम्ल मिला
पी जाते गाढ़ा गाढ़ा.


बुधवार, 7 मार्च 2012

दिव्य अकाल

मन में रहता - यही मलाल
गलती नहीं - हमारी दाल।
छंद अलंकारों के थाल
नजराने में जाते घाल।
बोल-बोल जो फूले गाल
होली में हो रहे हलाल।।
स्नेह आपका - रहा कमाल
नौसिखियों से - भी पदताल।
दर्शन अभिलाषा का जाल
समझा व्यर्थ मोह-जंजाल।
हो बारीकी से पड़ताल
होली की तो 'धूल' गुलाल।।
प्रिय संवादों - की वरमाल
पहले घूमा - करता डाल।
दूरभाष अब हुआ दलाल
ई-पत्रों की भी हड़ताल।
दोषी क्या अनुराग जमाल?
होली पर जो दिव्य अकाल।।

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

पावक-गुलेल -2

लो खुला द्वार
मैंने उधार
माँगा चन्दा से चंद तेल।
"दिविता से लो" कह टाल दिया
"मैं शीतल, वो पावक-गुलेल।"
हेमंत हार
ओढ़े तुषार
राका से करके खड़ा मेल।
अलि पुण्डरीक में छिपा-छिपा
केसर से करता काम-केलि।"
कवि था अशांत
पर शब्द शांत
अब तक थे सब कल्पना गेल।
चन्दा दिविता हेमंत देख
कर कलम शब्द कवि रहे खेल।

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

पावक-गुलेल

लो खुला द्वार
मैंने उधार
माँगा चन्दा से चंद तेल
"दिविता से लो" कह टाल दिया
"मैं शीतल, वो पावक-गुलेल।"
पावक-गुलेल
लक्षित विचार
कृमि कागों का करती शिकार।
बरसाती रक्तिम गाल किये
कटु-कटु संवादों की कतार।
कर मुक्त भार
अनशन विचार
चढ़ती ऊपर फिर 'छंद-बेल'।
दर्शन लेने की करे क्रिया
पावक-गुलेल से हँसी खेल।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

समर्पण

तम श्याम तट पर शर्वरी ने
जो रचे थे चित्र सुन्दर
मिट गये वे चंद्र तारे
प्रात के आने को सुनकर.
सब कह दिया था प्रेयसी ने
प्रथम मिलने पर हमारे
अब न जायेंगे कभी हम
पास से हृत के तुम्हारे.
पर ये हृदय कुछ और ही
मुझसे कराना चाहता है
प्रिय प्रेयसी को भूलकर
संन्यास लेना चाहता है.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

मोदी का गुजरात

इंतज़ार के अंतिम पल में ... प्रिय की अप्रिय बात
"अभी नहीं आऊँगी" कहती ... प्रियंवदा अ'वदात.

कोमल शब्दों के भीतर में ... चुभन भरा बल'घात.
सात दिनों का विरह हमारा ... फिर बढ़ता दिन सात.

अमित-स्नेह ले गया खींचकर ... पहले बहिन बरात*.
दिल्ली-जयपुर, जयपुर-दिल्ली ... छोड़ चला गुजरात.

तब से अब तक ठिठुर रही है ... श्वासों की मम वात.
'शीत' कक्ष में घुसपैठी बन ... रहता है दिन रात.

आने को ऋतुराज द्वार पर ... स्वागत उत्सुक गात.
लेकिन प्रिय को रास आ गया ... मोदी का गुजरात.

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

उलझी प्रेमाभिव्यक्ति

स्नेह
अपनी देह से अब न रहा

देह
को है स्नेह अपने प्राण से

प्राण
लेकिन तड़पता है विरह में

विरह
की अनुभूति सच्चा प्रेम है

प्रेम
तुमसे या स्वयं से है अभी

वरन्
मन कब का हुआ निज विरत था.

शनिवार, 28 जनवरी 2012

बसंत-प्रतीक्षा

अशीति प्रहर के बाद
पिकानद आवेगा, उन्माद
भरेगा आँखों में चुपचाप
कुहुक गूंजेगा कोकिल नाद.

ढाक के पिंगल फूल
डाल देंगे आँखों में धूल.
लगी हो जैसे तरु में आग
दूर से देखन में हो भूल.

अशोक पुष्प रतनार
खिलेंगे जब बाला सुकुमार
नृत्य करने के बाद प्रहार
पगों का देगी वो उपहार.

 

शनिवार, 7 जनवरी 2012

मधुर कसक

मैं संकेतों में याद तुम्हें
करता रहता हे मधुर कसक
जिसके द्वारा तुम मिले मुझे
उसका आभारी हृदय-चषक.

आँखों में हो आकार लिये
मानस में छाया रूप बना
नव ढंग सूझते नहीं मुझे
कि व्यक्त करूँ हृत नेह घना.

तुम हो अस्तित्व हमारा है
तुम बिन ये जीवन कारा है
अब तक व्यतीत जो समय हुआ
तेरी यादों में हारा है.

कर पाऊँ न तेरे मैं दर्शन
पर बँधा तुम्हारे हूँ कर्षण
पलभर को भी तेरे प्रभाव
से मुक्त नहीं होता है मन.

हो कसक रूप में तुम जीवित
मुझ तक ही हो अब तक सीमित
पहले उद्धृत करता था मैं
तुमको, अब तुम करती उद्धृत.

बुधवार, 4 जनवरी 2012

सञ्जय दर्शन

मुझसे मेरे मित्र बारह वर्ष के उपरान्त आकर मिले.... उनके साक्षात दर्शन से मन बहुत प्रसन्न हुआ... उनके भारत आगमन से मेरे आग-मन को जो ठंडक पहुँची... वह बहुत ही आनंददायी थी... उनका बातचीत के बीच-बीच में मेरे हाथों को छूना... और कहना इस अनुभूती को लेकर जाना चाहता हूँ... परन्तु मैंने कैमरा होने के बावजूद उनकी छवि को संजोया नहीं..... केवल उन्हें पहले की भाँति कुछ अन्य मीठी स्मृतियों के साथ मन में बिठा लिया. .... जब उनका विवाह नहीं हुआ था, तब उनके विचारों को मैंने उनकी 'बायोग्राफी' लिखकर आकार दिया था.... सोचता हूँ आज उसे ब्लॉग-जाहिर कर दूँ.. और आत्मकथा को आगे विस्तार दूँ....




मित्र संजय राजहंस [चित्र फेसबुक से साभार]



कुछ कहूँ

अपने विषय में

और अपनी सोच के अनुसार

उन सबके विषय में

जो रहे थे साथ कुछ दूरी बनाकर

और वे भी

जो न पलभर भूलते थे साथ मेरा

किन्तु घेरा है अभी तो

गत रुपहली यादगारों का हृदय में

— उन्हें कह लूँ.



बाद उनके फिर कहूँगा

आपके-अपने विषय में.



जब नहीं जाना था मैंने -

'प्रेम क्या है'

और क्या है -

प्रेम के उन्माद में दिन-रात जगना

प्रिय विरह में काम-स्वर से

- तपना, कराहना, कँपकँपाना

तब रात की निद्रा से पहले

कल्पना कर सिहर जाता -

'एक सुन्दर खिलखिलाती कामिनी की

जो सुनहरी केश बिखराए खड़ी रहती सिरहाने.





और तब से

मैं योरोपी गौर वर्णी

पुष्ट अंगी बालिका से

बंध जोडन चाहता हूँ.



यादों के दस्तावेज़ में

बचपन अभी भी है सुरक्षित.

घर के पास में ही था शिवालय.

नित्य प्रातः पूजता था लिंग

शिव को जल चढ़ाकर

और अपनी पाठशाला

के सभी लड़के बनाते मित्र मुझको

कुछ फ़ल बढ़ाकर.



गाँव भर के

बड़े-बूढों और जवानों

का बना मैं रेडियो था.

- खेल, राजनीति की खबर सब

मैं उन्हें विश्लेषण तरीके से सुनाता.



गाँव की ही एक बाला

प्रेयसी थी

अग्र जन्मे सहोदर की

पर मुझे सौन्दर्य उसका

और उसको स्यात मेरा

खींचता था सम परस्पर.



किन्तु जीवन

एक रस में नहीं चलता

बाबूजी ने

गाँव की उस पाठशाला से हटाकर

श्रेष्ठ शिक्षा हेतु मुझको

क्रिश्चेन स्कूल डाला.



कुछ समय

अपने प्रियों की

याद अकसर ही सताती

थी मुझे पर

पास आती

दो नवेली सखी

जिसको मैं प्रिय लगने लगा था

- स्मृति से उद्भूत पीड़ा

मोचती, उसको भुलातीं.



स्कंध पर धर हाथ

उनको मैं बताता

दायित्व का निर्वाह

जिसको है सताता

वो हटाता

हाथ.. सूज़न, अये अनीता.



इस तरह 'सुख'

सूत्र में हो बद्ध

- मेरे पास रहता

और पुनरावृत्ति में

'विश्वास' मेरा

हर विषय, हर सोच में

घटता रहा है.



वाक् कौशल पर टिका

- व्यक्तित्व मेरा

किन्तु उसके मूल में है

आँकड़ों का उर्वरक

औ' ज्ञान सिंचित

चिर पिपासा.



एक भाषा जानता मैं

था अभी तक

दूसरी तुमने सिखा दी.

एक थी जिससे

स्वयं को व्यक्त करता

और विनिमय हुआ करता

था विचारों का उसी से.

दूसरी नयनों के पथ से

अश्रुओं के साथ मिलकर

जो बहा करती निरंतर.

श्याम लोचन देख तेरे

सीख पाया - स्वप्न मेरे.



माँ! तुम्हारी भक्ति की सौंगंध

मुझको - 'जो कहूँगा, सच कहूँगा'.

अंश तेरा मैं स्वयं को मानता हूँ.

सो दीख पड़ता अंश तेरा ही सभी में'

इसलिये माँ

देखता जब भी

तुम्हारी छब जिसमें

या संभावित सुमाता

- मैं विनत होता

'शरीरज भाव फुल्लित'

शब्द जिह्वा पर थिरकते

पर, भटकते देख पायी

सिर्फ कीचड़

आँख मेरी

पर न तेरी याद ने

मुझको उबारा.



शेष ... फिर कभी...