बुधवार, 17 मार्च 2010

अर्चना!

अर्चन करती आँखें तेरी
सृजन करती कविता मेरी
होवेगी नूतन उत्पत्ति
मेरे ही हाथों से तेरी.

नर्तन करती बाहें तेरी
सुर देती आवाजें मेरी
तुम ही हो मेरी संपत्ति
तुम ही हो मेरी कमजोरी.

तुझमे मुझमे कितनी दूरी
फिर भी मिलती श्वासें पूरी
तुम बिन मिलकर मिल जाती हो
तुम हो किस किसकी मजबूरी.

(एक पुरानी स्मृति को काव्य आहुति)