मंगलवार, 30 अगस्त 2011

दो उरों के द्वंद्व में

दो उरों के द्वंद्व में 
लुप्त बाण चल रहे 
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता.

नयन बाण दोनों के 
आजमा वे बल रहे 
बाणों की भिड़ंत में 
स्वतः चार हो रहे.

बाणों की वर्षा से 
हार जब दोनों गये 
मात्र एक बाण छोड़ 
संधि हेतु बढ़ गये.

नागपाश बाहों का 
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के 
कपालों पर बन गये.

दोनों ही हैं 'अस्त्रविद'
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है 
दोनों सृष्टि हेतु हैं 
न करें तो विनाश है.

दोनों तो हैं संधि-मित्र 
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में 
मनु पुत्र उत्पन्न हों.






रविवार, 21 अगस्त 2011

स्वगत प्रश्न

यदि मैं अंधकार में कलम पृष्ठ पर रखकर लिखता चला जाऊँ। अनुमान से अक्षरों को क्रमशः स्थापित करता, पंक्तियों की सिधाई का ध्यान रखता तो कार्य की सफलता में विलम्ब न हो – और हृदय की तात्कालिक अभिव्यक्ति भी हो जाये। 
? यदि ऐसे में अक्षर अक्षर से टकरा जाएँ या पूरी पंक्ति पंक्ति पर ही चढ़ जाय तो मेरी कुशलता दोषी होगी अथवा मेरा अन्धकार को कोसना ठीक होगा _


रविवार, 14 अगस्त 2011

बिना सन्दर्भ सौन्दर्य प्रशंसा ... संशय का कारण

यदि मैं आपकी 
अकस्मात् बिना सन्दर्भ 
सौन्दर्य की प्रशंसा करने लगूँ 
तो आपके मन में 
सर्वप्रथम कौन-सा भाव आयेगा 
— क्या संशय तो नहीं? 
स्यात मेरी सोच, मेरी भावना पर.
किवा, प्रशंसा सुनकर 
लज्जा करना उचित समझोगे?
— हाँ, यदि आप 
स्वयं की दृष्टि में भी 
सुन्दर हो 
तो अवश्य लजाओगे.
क्या आप वास्तव में सुन्दर हो? 
आप अपने सौन्दर्य के विषय में क्या धारणा रखते हैं? — जानने की इच्छा है.

क्या विरह भाव के
धारण करने के लिए 
'प्रिय-पात्र' का 
निर्धारण या रूढ़ किया जाना 
संगत है/ उचित है?
? किंकर्तव्य_

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जिसके सहोदरा 'बहन' नहीं होती वह कभी 'प्रेम' को सही ढंग से पहचान नहीं पाता !

सुमन, तुम मन में बनी रहो!
आकर अंतर में मेरे तुम खिलो और मुसकाओ.
स्वर्ण केश, स्वर्णिमा वदन पर मुझको हैं मन भाते.
वचन आपके सुनकर मेरे कान तृप्ति हैं पाते.
सुनो दूसरी गुड़िया प्यारी, पहली मुझे भुलाओ.
जिधर कहीं दुर्गन्ध लगे नेह देकर के महकाओ.
सुमन, तुम मन में बनी रहो!
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गुरुवार, 11 अगस्त 2011

तुम पर मेरी राखी उधार...

तुम पर मेरी राखी उधार...
लूँगा जीवन के अंत समय, 
होगा जब यादों को बुखार.

इस पल तो है संकोच मुझे, 
दूँ क्या दूँ क्या अनमोल तुम्हें?
वर्षों से किया नेह संचय 
मन में मेरे है बेशुमार...
तुम पर मेरी राखी उधार...
निर्मल तो है पर है चंचल 
मन, याद करे हर बार तुम्हें
अब भी हैं नन्हें पाप निरे, 
आवेगा जब उनमें सुधार
मैं आऊँगा लेने, उधार 
राखी, तुम पर जो शेष रही.
भादों में आवेगी बयार...
तुम पर मेरी राखी उधार...

[ये है कोमल भावों का 'तुकांत' साँचा... गीति शैली में]

बुधवार, 3 अगस्त 2011

छंद-चर्चा ... हमारे भाव-विचारों के साँचे ............. पाठ ६

नयी काव्य रचना निर्मित करने से पहले कवि के समक्ष एक महती समस्या होती है. अपने विचार-प्रवाह को व्यवस्थित रूप से व्यक्त करने की. यदि विचार कोमल भावों के हुए तो वह अपने लिये साँचों का चयन सहजता से कर लेते हैं और यदि विचार कोमलेतर (कठोर, शुष्क आदि) भावों के हुए तो उनके लिये साँचों के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी होती है. 
अतिशय वात्सल्य, अतिशय प्रेम, अतिशय आदर, अतिशय श्रद्धा जैसे भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः कवि साँचे चयन करने को उतावला नहीं रहता और न ही नवीन साँचों को गढ़ने का प्रयास करता है.  यह भी सत्य है कि वह अपने श्रद्धेय, प्रिय अथवा वात्सल्य-केंद्र को अचंभित करने को कभी-कभी स्व-भावों का नूतन साँचे में लिपटा 'विस्मय-उपहार' देता दिखाई अवश्य पड़े किन्तु इस तरह के अत्यंत दुर्लभ क्षण होते हैं. नवीन साँचों के निर्माण की इच्छा और कम प्रयुक्त साँचों में भावों को भरने की चुनौती स्वीकार करना उसकी महत्वाकांक्षा की उच्चता को दर्शाता है. कोमलेतर भाव यदि मात्रिक और वार्णिक छंदों (साँचों) में ढलते हैं तो वे अत्यंत असरकारक होते हैं. यदि 'आक्रोश' प्रवाहयुक्त है और वह कोई उपयुक्त छंद पा जाये तब उसका प्रभाव अमिट होगा.

कोमल भाव का तुकांत साँचा :
"मन बार-बार पीछे भागे 
लेने मधुरम यादों का सुख.
पर अब भविष्य चिंता सताय
मन लगे छिपाने अपना मुख."

कोमल भाव संवाद साँचे में :  
"अये ध्यान में न आ सकने वाले अकल्पित व्यक्तित्व! 
आने से पूर्व अपना आभास तो दो ...
थकान से मुंद रही है पलकें 
निद्रा में ही चले आओ 
अपनी आभासिक छवि के साथ."

कोमलेतर भाव के साँचों में हम प्रायः 'गद्य कविता' को देखते हैं, यथा : 
व्यवसाय मुझे निरंतर 
असत्य भाषण, छल 
और अभद्र आचरण करने का 
अवसर दे रहा है. 
वास्तव में 
अर्थ की प्राप्ति में 
मैं पहले-सा नहीं रहा.