द्वय पक्षी होकर भी रति का
बना हुआ स्वामी शृंगार.
विप्रलंभ संयोग दलों का
ये कैसा अश्रुत सरदार.
एक पक्ष में मिलन, दूसरे
में बिछडन का है व्यापार.
संचारी त्रयत्रिंशत जिसमें
करते रहते हैं संचार.
और नहीं रस ऐसा कोई
जिसमें सुख-दुःख दोनों साथ.
बस केवल रति का ही स्वामी
जो अनाथ का भी है नाथ.
हे हे शृंगार! है हर मन में
तेरा ही प्रभुत्व तेरा ही राज.
अंतहीन विस्तार आपका
नव रस के तुम ही रसराज.