यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
सोमवार, 26 मई 2014
शनिवार, 17 मई 2014
गुजराती पट्ठा
उपयोगी थी भूमि
लगाने — ईंटों का भट्टा।
भीड़ लगी रहती थी
लेने — चट्टे पे चट्टा।
इंतज़ार में जाने किसके
रहता मन खट्टा।
तिल-तिल चाट रहा दिन-घण्टे
काला* तिलचट्टा।
समय बड़ा बलवान
दरकती — भावशून्य सत्ता।
उसी भूमि से बाहर आया
पत्ते पे पत्ता।
विषतरु मूल जड़ों में ठेले
अमूल दूध मट्ठा।
दशकों बाद मिला देश को
गुजराती पट्ठा।
*काला = समय का (समय रूपी)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)