शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

'नो''दो' ग्यारह हुआ हास

'दो''नो' का है प्रेम यही वे ग्यारह नहीं कभी हो पाये।
'नो''दो' ग्यारह हुआ हास जब उसने उनके मुख पलटाये।
अर्थ हुआ असमर्थ गर्त में गिरा व्यर्थ ही हाय-हाय।
मुहावरे का पहन मुखौटा हास हुआ हास्यास्पद काय।
किया बहुत प्रयास किन्तु कुछ, तुमसे सीधा कह ना पाये।
इसीलिए सब कुछ कहने का करता मन है नये उपाय।
कभी हास के पीछे छिपकर कभी व्यंग्य का गला दबाय।
तरह-तरह की वक्र उक्ति को करता रहता दाएँ-बाएँ।
मन पर बढ़ता बोझ उभरतीं माथे पर चिंता रेखायें।
सरल भाव को तरल पात्र में मेरे प्रियतम पी ना पायें!!


ग्यारह - साथ

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

कौमुदी !

अय उद्यान की प्रिये !
बैठ आ मधु पियें !!
प्रेम से दो पल जियें !
कौमुदी, कर दीजिये।।
 
आइये इत आइये !
उर-पुष्प बैठ जाइये !!
तनु पंख खोल दीजिये !
तुम वक्ष के, मेरे लिए।।
 
निहार लूँ, मैं दृष्टि से
सौन्दर्य देह-यष्टि का।
मैं सदा-सदा के लिये
फिर बाँध लूँगा मुष्टिका।।