वर पञ्च शरों सह वनिता के
उर अनल-अयन में घुसकर के
निज के प्राणों का दाँव लगा
तज पञ्चतत्व को सौंप गया.
विधवा होकर कर सौंप जिसे
दे, ऐसा कोई और मिले
दे-वर विधवा होने पर भी
उत्तम-कुल का वर-बरात मिले.
वह अग्रज हो वा अनुज भई
या उत्तम कुल का इतर सही.
उसको ही देवर कहते, जो
आपात काले सहयोग करे.
जो भोग न हो संयोग न हो
जो चिर कालीन वियोग न हो.
सुत पाने की इच्छा भर हो
उसे पाप नहीं नियोग कहो.
(नियोग — एक वैदिक विधान, परिस्थिति विशेष में)
यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
बुधवार, 31 मार्च 2010
शनिवार, 27 मार्च 2010
भ्रमर अध्ययन
कोकनद के अन्दर अलि नाद
कर रहा था, लेटा उपराग
मृदुल शैया पर, संभवतया
कोक विद्या पढ़ता था जाग.
कामिनी कलियाँ किस-किस काल
काम के वश में हो शृंगार
किया करती, कलियों के पास
हमारा कब होता अभिसार.
मधुप क्योंकर हो जाते बंद
कमल अन्तःपुर में हर रात
सोचते हैं कैसे किस तरह
मिलन हो नूतन कलियों साथ.
कौन-सी कलियाँ हैं सुकुमार
कौन खिलती हैं बारम्बार
कौन से सब करते व्यभिचार
कौन करती रहती शृंगार.
कौन-सी कलियाँ जिनकी गंध
पुष्प बनकर हो जाती मंद
कौन कलियाँ मुकुलन के बाद
सुगंधी देती हैं स्वच्छंद.
कौन कलियाँ देती सस्नेह
रात भर आलिंगन उर-गेह
कौन कलियों की कोमल देह
मुरझा जाती स्पर्श संदेह.
कौन कलियाँ नीरस निर्गम्य
कौन कलियाँ रमणी सी रम्य
कर रहा था मधुकर अनजान
कामिनी कलियों से पहचान.
(एक भौंरा देखा जो तमाम ब्लोग्स पर बैठ कर उनका मूल्यांकन कर रहा था कि कौन कितना रसदार? - तभी मुझे अपनी इस कविता कि स्मृति हो आयी.)
कर रहा था, लेटा उपराग
मृदुल शैया पर, संभवतया
कोक विद्या पढ़ता था जाग.
कामिनी कलियाँ किस-किस काल
काम के वश में हो शृंगार
किया करती, कलियों के पास
हमारा कब होता अभिसार.
मधुप क्योंकर हो जाते बंद
कमल अन्तःपुर में हर रात
सोचते हैं कैसे किस तरह
मिलन हो नूतन कलियों साथ.
कौन-सी कलियाँ हैं सुकुमार
कौन खिलती हैं बारम्बार
कौन से सब करते व्यभिचार
कौन करती रहती शृंगार.
कौन-सी कलियाँ जिनकी गंध
पुष्प बनकर हो जाती मंद
कौन कलियाँ मुकुलन के बाद
सुगंधी देती हैं स्वच्छंद.
कौन कलियाँ देती सस्नेह
रात भर आलिंगन उर-गेह
कौन कलियों की कोमल देह
मुरझा जाती स्पर्श संदेह.
कौन कलियाँ नीरस निर्गम्य
कौन कलियाँ रमणी सी रम्य
कर रहा था मधुकर अनजान
कामिनी कलियों से पहचान.
(एक भौंरा देखा जो तमाम ब्लोग्स पर बैठ कर उनका मूल्यांकन कर रहा था कि कौन कितना रसदार? - तभी मुझे अपनी इस कविता कि स्मृति हो आयी.)
बुधवार, 17 मार्च 2010
अर्चना!
अर्चन करती आँखें तेरी
सृजन करती कविता मेरी
होवेगी नूतन उत्पत्ति
मेरे ही हाथों से तेरी.
नर्तन करती बाहें तेरी
सुर देती आवाजें मेरी
तुम ही हो मेरी संपत्ति
तुम ही हो मेरी कमजोरी.
तुझमे मुझमे कितनी दूरी
फिर भी मिलती श्वासें पूरी
तुम बिन मिलकर मिल जाती हो
तुम हो किस किसकी मजबूरी.
(एक पुरानी स्मृति को काव्य आहुति)
सृजन करती कविता मेरी
होवेगी नूतन उत्पत्ति
मेरे ही हाथों से तेरी.
नर्तन करती बाहें तेरी
सुर देती आवाजें मेरी
तुम ही हो मेरी संपत्ति
तुम ही हो मेरी कमजोरी.
तुझमे मुझमे कितनी दूरी
फिर भी मिलती श्वासें पूरी
तुम बिन मिलकर मिल जाती हो
तुम हो किस किसकी मजबूरी.
(एक पुरानी स्मृति को काव्य आहुति)
रविवार, 14 मार्च 2010
सौंदर्य उपासना
उठ गयी आज जल्दी सजनी
सब केश खुले से खुले बिखरे
सो रही उसी पर थी रजनी.
कर ग्रंथि केश मुख धोन चली
मद नयन भरे से भरे दिखते
धो रही शीत चख कुंद कली.
(जब मैंने प्रातः उठने पर सौंदर्य को मुख धोते देखा)
सब केश खुले से खुले बिखरे
सो रही उसी पर थी रजनी.
कर ग्रंथि केश मुख धोन चली
मद नयन भरे से भरे दिखते
धो रही शीत चख कुंद कली.
(जब मैंने प्रातः उठने पर सौंदर्य को मुख धोते देखा)
शनिवार, 13 मार्च 2010
आगमन
संयम की प्रतिमा बन जाओ
जितनी चाहे जड़ता खाओ
आगमन हुवेगा जब उसका
भूलोगे अ. आ. इ. ई. ओ.
दृग फेर चाहे मुख पलटाओ
या निर्लज हो सम्मुख आओ
पहचान हुवेगी जब उसकी
सूझेगा केवल वो ही वो.
मन की बातें न झलकाओ
पीड़ा को मन में ही गाओ
उदघाटित हो जाएगा जब
हंसेगे सब हा. हा. हो. हो.
(आदरणीया संयम मराठा जी को समर्पित)
जितनी चाहे जड़ता खाओ
आगमन हुवेगा जब उसका
भूलोगे अ. आ. इ. ई. ओ.
दृग फेर चाहे मुख पलटाओ
या निर्लज हो सम्मुख आओ
पहचान हुवेगी जब उसकी
सूझेगा केवल वो ही वो.
मन की बातें न झलकाओ
पीड़ा को मन में ही गाओ
उदघाटित हो जाएगा जब
हंसेगे सब हा. हा. हो. हो.
(आदरणीया संयम मराठा जी को समर्पित)
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