शनिवार, 29 मई 2010

ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन — जिस पर बहस ज़ारी है....

वैचारिक पक्वता लिये मनोविश्लेषक दिव्या जी के विचारों ने लज्जा पर फिर से सोचने को बाध्य किया :

"मेरा पूर्ण विश्वास है कि लज्जा नारी का सौन्दर्य है किन्तु यह उसकी सुरक्षा नहीं है. एक स्त्री का रक्षात्मक कवच उसकी बुद्धिमत्ता तथा सजगता है जो कि शिक्षा, लालन-पालन एवं सचेतना से परिपूर्ण होता है.

आनंदानुभूति के लिये स्त्री को किसी प्रकार के "अलंकरण" की आवश्यकता नहीं होती है. पुरुष द्वारा, स्त्री को मूर्ख बनाए जाने की परम्परा सदियों से जारी है. चाटुकारिता, अनुशंसा, प्रशंसा आदि के द्वारा पुरुष नारी को मानसिक तौर पर कमज़ोर बनाकर उसे अपनी ओर करने का प्रयास करता रहता है. और यह विरले ही देखने में आता है कि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग पुरुष को पहचानने में करे.

उसका लज्जा रूपी कवच ही उसका शत्रु बन जाता है. ऐसे में केवल उसकी बुद्धिमत्ता ही उसे भावावेग से दूर रखते हुए उसकी सुरक्षा कर सकती है.

"बुद्धि" एक सचेत एवं समझदार स्त्री का सर्वोपरि गुण है जो जीवन को हर परिस्थिति में उसकी सुरक्षा करता है. उसे जीवनयापन हेतु किसी प्रकार के अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती है.

उसे अपनी स्थिति का आभास होना आवश्यक है. स्त्री को शिक्षा, ज्ञान तथा सजगता, सचेतता का अर्जन अवश्य ही करना चाहिए. उसे अपने साथ पर गर्व होना चाहिए, उसे स्वयं की प्रशंसा करनी चाहिए उसे स्वयं से प्रेम होना चाहिए. जब कोई स्वयं से प्रेम करता है तो उसे किसी अलंकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती है.

वैसे भी कहा जाता है "सुन्दरता निहारने वाले की दृष्टि में होती है" केवल धीर-गंभीर व सभ्य पुरुष ही नारी में "लज्जा" का भाव उत्पन्न कर सकता है. क्योंकि नारी में नारीत्व जागृत करने की क्षमता केवल एक परिपूर्ण पुरुष [पुरुषत्व से परिपूर्ण] में ही होती है. पुरुष, नारी से सदैव समर्पण चाहता है जो कि उसमें [नारी के प्रति] अन्मंस्यकता का भाव जागृत करता है अथवा ये उसके क्रोध का कारण बन जाता है और वह [नारी] इनकार कर देती है. किन्तु इसके विपरीत प्रेम और परवाह करने वाला [loving and caring] पुरुष नारी को प्रेम की अनुभूति देता है जो नारी को स्वयं समर्पण के लिये उत्प्रेरित करता है, जिसमें समाहित होता है पुरुष के प्रति पूर्ण अटूट विश्वास.

 "survival of the fittest " वही है जिसके पास बुद्धि है और जो सजग है. अतः मात्र "बुद्धिमत्ता" ही मनुष्य का "कवच" है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष".
— ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन.

[इसे पढ़कर मैंने सोचा एक बार फिर इस विषय पर बहस जारी हो और स्वयं स्त्रियाँ इस विषय पर अपने दिमागी कवच से "लज्जा" सम्बन्धी विचारों को रूप दें. ध्यान रहे भाषा संयत हो, थोड़े में अधिक कहने की चेष्टा हो.]

शुक्रवार, 28 मई 2010

कब तलक रहें हम मौन कहो

कब तलक रहें हम मौन कहो.
कुछ ना कह पाने की पीड़ा.
इच्छा मन में करती क्रीड़ा.
हो आर्तनाद बिन आहट  हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

है कौन प्रेम की परिभाषा.
बिन शब्द व्यक्त होती भाषा.
परिचय ही क्या कुछ शब्द ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

हो आप कोई भाषा-भाषी.
मुझ पर शब्दों की कुछ राशी.
क्या बात करें जब समझ ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


कविता जिव्हा पर आ मेरे.
मैं विवश हुआ सम्मुख तेरे
जब भी मुख पर कुछ रौनक हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


[अलंकार : 'तेरे' शब्देक अलंकार, जिसे कभी 'दहली दीपक अलंकार' के रूप में जाना जाता था. 'दहली मतलब दहलीज पर रखा दीपक जो अंदर भी प्रकाश करे और बाहर भी उजेला करे. .......और विस्तार बाद में कभी]


"रौनक" : लज्जा से निहतार्थ

गुरुवार, 27 मई 2010

लज्जा के नीड़ में चपलता का बसेरा

अब टिकते नहीं फिसलते हैं
मुख पर जाकर मेरे दो दृग.
पहले रहती थी नीड़ बना
लज्जा, अब रहते चंचल मृग.

चुपचाप चहकती थी लज्जा
बाहर होती थी चहल-पहल. 
चख चख चख चख देखा करते
कोणों को करके अदल-बदल.

अब नहीं रही वैसी सज्जा
औ' रही न वैसी ही लाली.
बस उछल-उछल घूमा करते
मृग इधर-उधर खाली-खाली.

[जब से लज्जा के आवास में चपलता ने डेरा जमाया है लज्जा चहकना भूल गयी है और इस चपलता को नारी की जागृति समझा जा रहा है, बौद्धिकता माना जा रहा है, सहमती और समर्पण में अंतर कर उसे उसके दिव्य गुणों से पृथक करने का प्रयास हो रहा है. 'सहमती' में नारी की गरिमा को और उसके 'समर्पण' में पुरुष के वाक्-जाल को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है.]

बुधवार, 26 मई 2010

ये लज्जा तो केवल संयम

बोलूँ ना बोलूँ ......सोच रही.
बोलूँगी क्या फिर सोच रही.
मन में बातें ...करने की है
इच्छा, लज्जा पर रोक रही.


कुछ है मन में थोड़ा-सा भय.
संकोच शील में होता लय.
पलकों के भीतर छिपे नयन
मन में संबोधन का संशय.


"प्रिय, नहीं आप मेरे प्रियतम
मन में मेरे अब भी है भ्रम
प्रिय हो लेकिन तुम 'प्रिये' नहीं
ये लज्जा तो केवल संयम."


"क्या संयम पर विश्वास करूँ?
या व्यर्थ मान लूँ इसको मैं?
आनंद मिलेगा अंत समय?
क्या संयम देगा लम्बी वय?"

मंगलवार, 25 मई 2010

नर की लज्जा बदरंग गाय

लज्जा नारी का नहीं कवच
लज्जा तो आभूषण कहाय.
लज्जा स्वाभाविक भाव नहीं
लज्जा तो पहनी ओढ़ी जाय.

लज्जा नारी का मूलतत्त्व
फिर भी गुण आभूषण कहाय.
मैंने लज्जा को कवच कहा
मेरी लज्जा अब मुँह छिपाय.

नारी की लज्जा आभूषण
नर की लज्जा बदरंग गाय.
जो दूध बहुत देती फिर भी
मारी पीटी दुत्कारी जाय.

[छंद ज्ञान के समर्थक "ओढ़ी" और "दुत्कारी शब्दों में एक-एक मात्रा घटाकर भी लिख-पढ़ सकते हैं]

शनिवार, 22 मई 2010

कवच [एक चित्र काव्य]

नयन चार करना नवीनता
ही क्षणिक पहला पागलप
हीं मिलन को आती तन्वी
रेतीला होता मेरा म
मेरे आकर पास कल्पना
र देती है मुझको काय
सुरबाला को देखूँ अपल
त्कंठित रहता है अंत
कोस रहा है कब से सच्चा
ख से शिख तक तुमको निज म
गी को आकर कौन बुझा
मिलन को उत्सुक मेरे नयन.

शब्दार्थ :
तन्वी मतलब कृशकाय किशोरी, दुबली-पतली बाला.

पिछली बार 'ढाल' नामक कविता चित्र काव्य के रूप में दी थी लेकिन किसी ने उसमें चमत्कार ढूँढने में रुचि नहीं दिखायी, कहीं इस 'कवच' का भी वही हाल ना हो. इसलिये कुछ संकेत किये देता हूँ.
दो वाक्य कविता को चारों ओर से घेरे हुए है.
एक वाक्य 'नयन चार करना नवीनता' बायें से दायें है और वही नीचे से ऊपर भी बनता हुआ दिखाई देगा.
दूसरा वाक्य 'मिलन को उत्सुक मेरे नयन' न केवल अंत में आया है बल्कि वही वाक्य नीचे से ऊपर जाता हुआ [सभी वाक्यों के अंत में] प्रतीत होगा.
मैं इस बात से अवगत हूँ कि इन काव्य खेल-तमाशों के प्रति रुचि काफी घट चुकी है. फिर भी मुझे जो आता है मैं तो वही खेल दिखा सकता हूँ. ]
अगली कविता अकल्पित छवि 'दिव्या जी' पर

शुक्रवार, 21 मई 2010

लज्जा : नारी का अभेद्य कवच

यदि लज्जा ही निर्लज्ज होकर
घूमेगी घर के आँगन में.
तो स्वयं नयन की मर्यादा
भागेगी छिपने कानन में.

यदि लज्जा ही मुख चूमन को
लिपटेगी अपनी काया से.
तो कैसे आकर्षित होंगे 'चख'
ह्री की श्रीयुत माया से.

यदि लज्जा ही अवगुंठन की
आलोचक बन जाए भारी.
तो कौन कवच ऐसा होगा
होगी जिसमें निर्भय नारी.

[श्री देव कुमार झा के लेख से प्रेरित]

बुधवार, 19 मई 2010

विरह उदगार

मित्र विनय ने संपर्क कर ही लिया. २० मिनट बात हुयी. हम परस्पर वर्ष में एक या दो बार ही मिलने वाले मित्र थे. लेकिन जब सात वर्ष से अधिक हो गए तो रहा ना गया. सो स्वभाव के विपरीत धमकी देकर देखा. और वह कारगर हुआ. मतलब मित्रों को समय-समय पर धमकियाते रहना चाहिए. अब मैं उनपर लिखी दर्जनों कविताओं को उदघाटित नहीं करूँगा केवल एक को छोड़कर, नहीं तो सभी समझेंगे कि काव्य-पिटारा खाली था वैसे ही बहकाया. तो लीजिये मित्र विनय के "विरह उदगार"


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विनय, अर्चन, या..चना व्यर्थ
कलम, सृजन, सो..चना व्यर्थ
नुपुर, नर्तन, showभना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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कथन पिय का, घू..मना व्यर्थ 
मिलन उनका, झू..लना व्यर्थ
सुमन चुनना, चू..मना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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नयन, पलकें झप..कना व्यर्थ
रुदन, आँसू टप..कना व्यर्थ
भवन उनके पहुँ..चना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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दिया उनको जो उनके अर्थ
लिखा उसपर जो, क्या था अर्थ
अभी तक है मुझको वो याद,
हमारे बीच रही जो शर्त.
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शिखर पर तुम हो मैं हूँ गर्त
विनय करता पर मिला अनर्थ
याद कर-कर तेरी हो गया
विरह में मैं आधे से अर्ध.
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मिलन कुछ पल का विरह अपार
यही मुझको देता है मार.
बिना उनके निज नयन अनाथ
बची दो ही आँखें हो चार.
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कपट करना उनका व्यापार
लिपट जाना उनका उदगार
मरण तो अब जीवन के लिये
जरूरी सा बन गया विचार.
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[काव्य थेरपी से साभार]
प्रेम औषधि से उपचार करना वहाँ मना है इसलिये दर्शन प्राशन दवाखाने पर आया हूँ.

रविवार, 16 मई 2010

ढाल [चित्र काव्य]

हले से ही दिखी भवन में
ती अमा अरे! चुपचाप.
होली खेल रहा था छिपकर
तेल जला तम से दिव-ताप.
त थे दोनों नयन नुकीले
तलाओ थे कौन कलाप.
ज्जू बिना छूटे आहत कर
काजलमय हृत, करे विलाप
ला वह चाप कौन-सी है, यदि
कलाकार बनते हो आप.

[यह कविता 'ढाल' नामक चित्र काव्य का उदाहरण है. खोजिये, कैसे?]

नयन-मर्यादा

ओ दूर-दूर रहने वाले! हमसे भी दो बातें कर लो.
इतना दूर नहीं रहते जो मिलने में भी मुश्किल हो.
मौन बहुत रहते हो, दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो.
कभी-कभी तो आते हैं, मिलते हैं. हमसे हँस बोलो.
जितना आते पास तिहारे उतना नयन झुकाते हो.
लज्जा है ये नहीं तुम्हारी, फिर भी तुम शरमाते हो.
बोल रही प्राची से नूतन, सब बातों से अवगत हो.
'मर्यादा में भी कहते हैं नयन किसी हद तक नत हों.'

शनिवार, 15 मई 2010

क्षमा करो






मुझ पर हैं दो नयन आपने तो पहले से चार किये.
सोचा मैं भी चार करूँ लेकर तुझसे दो नयन पिये.
चार नयन पाकर भी तुमने मेरे भी दो नयन लिये.
नयनहीन होकर मैं अब कैसे पाउँगा देख पिये!
दया करो मुझपर, मेरे दो नयन मुझे वापस कर दो.
प्यासे तो पहले से हैं वे मर जायेंगे मुक्त करो.
भूल हुई मुझसे जो मैंने माँगे तेरे लोचन दो.
देख नयन तेरे, ललचाया था मन मेरा, क्षमा करो.

[दो दिन खुला रहेगा दान पात्र]
सौदर्य दर्शन में कलुषता का आना और क्षमा भाव मन में ज्वार-भाटे की तरह से है.

शुक्रवार, 14 मई 2010

अभिनय

कर रहे चपल चख थिर अभिनय
हैं बोल रहे द्वय विंशति वय.
हो गयी हमारी, तुम बोलो —
"क्या पीया आपने पावन पय."


ना, नहीं अभी है संशयमय
मम दशा, हलाहल अथवा पय
मैं जान नहीं पाता सचमुच
हैं कौन वस्तु जिससे हो जय.


" 'बहुजन हिताय' विष अमृतमय
'है सुधा' वासनामयी सभय."
— यह कथन किया करता सतर्क
है दशा इसलिये संशयमय.


उपदेशों में कितनी हैं जृम्भ
है स्वाभिमान में कितक दंभ.
मम दृष्टि खोजती यही सूक्ष्म
द्रुतता में है कितना विलम्ब.


चख चपल हलाहल आपानक
अथवा घट  स्वर्णिम सुधा भरा.
संतुलित अंक द्वय विंशति के
वा रौद्रमहा देता घबरा.

शब्दार्थ : 
द्वय विंशति — २२;
चख — आँखें
जृम्भ — जम्हाई, लक्षित अर्थ 'सारहीनता';
दंभ — घमंड, अहंकार;
रौद्रमहा — शिव का नाम [महारौद्र] २२ अंक महारौद्र जाति का है.
आपानक — मदिरा पान करने का पात्र;
संदेह अलंकार का नया उदाहरण  
[यह कविता २२ वर्षीय एक चंचल बाला पर लिखी गयी है]

बुधवार, 12 मई 2010

क्रोध

क्या हीन भाव आया मन में
जो अपने से ही हुए रुष्ट.
या नहीं मिला जो था मन में
ये चिंता तुमको लगे पुष्ट.

क्या क्रोध आपको है हम पर
ये रेखाएँ  क्यूँ मस्तक पर.
क्यूँ भृकुटी को है तान रखा
क्या रक्त खोलता है हम पर.

क्यूँ हुआ ताप तेरे मन में
जो घृणित भाव हैं देखन में.
मुख नयन आपके लाल हुए
चपला चमके जैसे घन में.

स्वसा-निवेदन

"स्वसा बहिन भगिनी बहना"
भैया! मुझको कुछ तो कहना.
बँधवा हाथों में लो भैया
बहना का नेह निर्मित गहना.

जब भ्रातृहीन कन्या से की
जाती थी पापी की तुलना.
ना बनूँ कहीं वैसी उपमा
तुम छोडो ना मिलना-जुलना.

क्यों भ्रातृहीन कन्या पहले
समझी जाती थी भाग्यहीन.
भ्राता अभाव, पित की मृत्यु
पर खुद करती पति खोज-बीन.

पर मैं भैया तुमसे ऐसा
सम्बन्ध जोड़ने आई हूँ.
मैं उषा और तुम दिवा भ्रात
सूरज-सी राखी लाई हूँ.

[मेरा मन किया कि आज बहन के प्रेम को रूप दिया जाये. इसके लिए दो-महीने का इंतज़ार नहीं हुआ.]
[सूचना — अब से मैं अँधेरे में तीर चलाया करूँगा. टिप्पणी-बॉक्स हटा रहा हूँ. क्योंकि मेरा सारा ध्यान ना आने-वाली टिप्पणियों पर लगा रहता है इससे नव सृजन बाधित होता है.]

मंगलवार, 11 मई 2010

वयसंधि [भेल]

यौवन शैशव का मिलन हुआ
ये मिलन द्वंद्व के लिए हुआ
यौवन घुसने को था तत्पर
तन  में, शैशव से खेल जुआ.

शैशव तो शैशव था बच्चा
वो द्यूत क्रीड़ में था कच्चा
यौवन से सब कुछ हार रहा
ये खेल कहीं होता सच्चा?

यौवन ने शैशव के चंचल
भावों को पग से चुरा लिया
चुपचाप ह्रदय में धर उसको
शैशव को उसने हरा दिया.

शैशव निज छोड़ हुई तत्पर
यौवन अपनाने को बाला.
आकर्षक तो होता ही है
कुछ नया-नया आने वाला.

मेरा अधिकार हुआ तुम पर
यौवन कहता "ओ, सुन बाला!"
उत्कोच दे रहा है गुपचुप
बढ़ने वाला द्वय कुच माला.

हो रही अचंभित देख-देख
परिवर्तन को भोली बाला.
निश्चिन्त घूमने वाली अब
दर्पण लेकर बैठी शाला.

एकांत देख फैंका उतार
अपने तन से व्रीडा विचार.
मन ही मन में हँसती निहार
कुच लेते जाते जो उभार.

शब्दार्थ :
भेल — मिश्रण, मिलाप, भेंट, मिलना, कहीं-कहीं 'चंचल' और 'मूर्ख' अर्थ भी लिया जाता है.
उत्कोच — घूस, रिश्वत;
व्रीडा — लज्जा, हया;
द्यूत क्रीड़ — जुए का खेल.

रविवार, 9 मई 2010

आपका विश्वास

चलो लो आ ही गया पास.
आपको था इतना विश्वास—

"कभी तो दो नयनों की बात
समझ में आयेगी, बरसात
हुवेगी, बोलेगी कोयल
ह्रदय में फूटेगी कोंपल
कामनाओं की, जिसमें से
किरण झाँकेगी आशा की,
मौनमयी मेरी भाषा की
समझ आयेगी सारी बात
आपका ह्रदय सारी रात
करेगा मिलने की ही बात."
 
चलो लो आ ही गया पास.
आपको था इतना विश्वास.

शनिवार, 8 मई 2010

पलक-द्वार

मीन-लोचने! खींच रहा
तुमको संगीत हमारा.
बोलों की है डोर और
भावों का कंटक-चारा.

बीन बजाकर खर्च किया
धन लय तानों का सारा.
खोलो अब ये पलक-द्वार
फँसने दो मीन हमारा.

शुक्रवार, 7 मई 2010

किसलिये?

किसलिये फूल के यौवन में
कलिका का आता है पड़ाव?
किसलिये धूल के मारग में
चलती है मारुत पाँव-पाँव?

किसलिये सूर्य ने छोड़ दिया
क्रोधित होकर कर-पिय का कर?
किसलिये गरम होती वसुधा
निज पुत्रों पर, जो रहे विचर?

किसलिये कपासी मेघों का
नभ ने पहना है श्वेत-वसन?
ढँकना भूला है अंगों को
किसलिये अंगना का यौवन?

क्यों देह दहन करता उर का
जो पहले से ही शोक-मगन?
क्यों यादों के अब द्वार खोल
आई चुपके हिम-मंद-पवन?

क्यों साँझ समय कवि गेह निकल
देखा करता छवि का यौवन?
क्यों निशा और क्यों चंद-किरण
धरती पर करते हैं नर्तन?

किसलिये दिवा में छिप जाते
जन, छाया की गोदी में सब?
बस उसी तरह सब व्योम तले 
टक-टकी लगाए बैठे अब.

क्यों नाच देख ढँकना भूले
पलकों को निज निर्लज्ज नयन?
मैं आया था सोने लेकिन
क्यों भूल गए निज नयन शयन?

मंगलवार, 4 मई 2010

श्रोतानुराग

कब बीता कविता का वितान
ना तृप्त हुए मन और कान.
था कैसा कविता का विमौन
मैं देख रहा चुपचाप कौन
आया उर में श्रोतानुराग
जो छीन रहा मेरा विराग
करपाश बाँध रंजित विशाल
भावों का करता है शृंगार
तुर चीर अमा का अन्धकार
लाया उर में जो प्रेमधार...
[अमित जी के प्रति पनपा श्रोतानुराग]