कोकनद के अन्दर अलि नाद
कर रहा था, लेटा उपराग
मृदुल शैया पर, संभवतया
कोक विद्या पढ़ता था जाग.
कामिनी कलियाँ किस-किस काल
काम के वश में हो शृंगार
किया करती, कलियों के पास
हमारा कब होता अभिसार.
मधुप क्योंकर हो जाते बंद
कमल अन्तःपुर में हर रात
सोचते हैं कैसे किस तरह
मिलन हो नूतन कलियों साथ.
कौन-सी कलियाँ हैं सुकुमार
कौन खिलती हैं बारम्बार
कौन से सब करते व्यभिचार
कौन करती रहती शृंगार.
कौन-सी कलियाँ जिनकी गंध
पुष्प बनकर हो जाती मंद
कौन कलियाँ मुकुलन के बाद
सुगंधी देती हैं स्वच्छंद.
कौन कलियाँ देती सस्नेह
रात भर आलिंगन उर-गेह
कौन कलियों की कोमल देह
मुरझा जाती स्पर्श संदेह.
कौन कलियाँ नीरस निर्गम्य
कौन कलियाँ रमणी सी रम्य
कर रहा था मधुकर अनजान
कामिनी कलियों से पहचान.
(एक भौंरा देखा जो तमाम ब्लोग्स पर बैठ कर उनका मूल्यांकन कर रहा था कि कौन कितना रसदार? - तभी मुझे अपनी इस कविता कि स्मृति हो आयी.)