शीघ्र ही 'पाठशाला' फिर से शुरू होने वाली है. विषय होगा 'छंद चर्चा'.
छंद के महात्म्य को पुनः स्थापित करने की मन में जो भावना प्रकट हुई, वह अकारण नहीं हुई.
— पहला कारण, काव्य के आधुनिक रूप के प्रति मेरा प्रसुप्त आक्रोश.
— दूसरा कारण, मैं उन तम्बुओं को उखाड़ने का सदा से हिमायती रहा हूँ, साहित्य जगत में जिनके बम्बू केवल इसलिये गड़े कि वे कुछ अधिक गहरे दिखायी दें. 'टोली प्रयास' रूप में अपनी अलग पहचान कोशिशें और कविता को तरह-तरह के वादों में बाँटकर ये बम्बू उसे आज एक ऎसी दुर्दशा तक ले आये हैं जहाँ वह फूहड़ मनोरंजन के रूप में ही अधिक पहचानी जाती है.
जब किसी क्षेत्र का कोई नियम टूटता है और उसकी सराहना करने वालों की तादात अधिक होती है .. तब उस क्षेत्र में अराजकता शीघ्र फ़ैल जाती है.
कविता के क्षेत्र में भी छंद-बंधन टूटते जा रहे हैं. यह टूटन कहाँ तक उचित है इस विषय पर आगे विचार जरूर करेंगे. आज ब्लॉगजगत में डॉ. रूपचंद शास्त्री 'मयंक' एवं श्री राजेन्द्र जी 'स्वर्णकार' छंद-नियमों को मानकर न केवल रचना कर रहे हैं अपितु छंद को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं. पिछले दिनों दोहों के वर्गीकरण पर श्रीमती अजित गुप्ता जी की एक सुन्दर पोस्ट देखने में आयी थी. छंद-ज्ञान प्रचार में उनका योगदान भी मुझे हर्षित कर गया.
बहरहाल, छंद-चर्चा पर पाठशाला पुनः खोलने का अमित अनुरोध आया तो मैं अपने मन की इच्छा को छिपाकर न रख सका. बस कभी-कभी यह आभास होता है कि मेरा सीमित प्रयास निरर्थक सा है इस कारण ही बीच-बीच में उदासीन हो जाता हूँ. वैसे कुछ अन्य कारण भी बन आते हैं उदासीन होने के, लेकिन सुज्ञ जी जैसे विचारक मुझे संभाल लेते हैं. संजय झा हमेशा अपनी उपस्थिति से यह एहसास कराते हैं कि क्लास पूरी तरह से खाली नहीं है.
एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि मैं 'विषय का पंडित' नहीं हूँ लेकिन फिर भी मुझे 'निरंतर पूछे जाने वाले प्रश्न' कुछ नया सोचने को उत्साहित करते हैं. कृपया इतनी कृपा अवश्य बनाए रखियेगा कि 'प्रश्न' सक्रीय रहें, मृत न होने पायें.
पाठशाला शुरू करने से पहले मैं अपने आक्रोश को प्रकट कर अभी फिलहाल खाली हो जाना चाहता हूँ :
हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर ?
वेदों की छंदों में ही रचना क्यूँकर ?
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला ?
किसलिये श्लोक रचकर रहस्य ना खोला ?
क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था ?
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था ?
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी ?
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी ?
'कवि' हुये वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को .
आहत पक्षि कर गया था भावुक उनको .
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा .
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा .
माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू ?
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू ?
या रामायण के लिये भी डाका डाला ?
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला ?
हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो !
क्या अब भी ऐसा हो सकता है ? बोलो .
अब तो कविता में भी हैं कई विधायें .
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें .
अब नहीं छंद का बंध ना कोई अड़चन .
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन .
कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये ?
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये ?
छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला.
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला.
मिल गई छूट सबको बलात करने की .
कवि को कविता से खुरापात करने की .
यदि होता कविता का शरीर नारी-सम .
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम .
'छायावादी' ... छाया में उसको लाता .
धीरे-धीरे ... उसकी काया .. सहलाता.
उसको आलिंगन में .. अपने लाने को .
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता .
लेकिन 'रहस्यवादी' करता सब मन का .
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का .
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता.
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता .
पर, 'प्रगतीss वादी', भोग लगा ठुकराता .
कविता के बदले 'नयीS .. कवीता'* लाता.
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को .
बेचारी कविता को ... वन्ध्या ठहराता .
और 'प्रयोगवादी' ... करता छेड़खानी .
कविता की कमर पकड़कर कहता 'जानीS'
करना 'इंग्लिश' अब डांस आपको होगा .
वरना ......... मेरे कोठे पर आना होगा .
अब तो कविता-परिभाषा बड़ी विकट है .
खुल्लमखुल्ला कविता के साथ कपट है .
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है .
कविता वादों का ... नहीं कोई सम्पुट है .
ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है .
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है .
जिसकी निःसृति कवि को वैसे ही होती .
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव ... पर होती .
जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है .
कविता भी ऎसी दशा बिना सरहद है .