क्या अब भी उतना ही प्रगाढ़
मुझसे करते हो प्रेम प्रिये !
जितना पहले करते अपार
दश शतक विरह दिन बीत लिये.
आयी थी कभी, याद मुझको
अपने यौवन में प्रेम बाढ़.
तुम बहे, परन्तु धीर बना
मैं अनचाहे लेता बिगाड़.
क्यूँ करता ऐसा नहीं समझ
आया मुझको अब तक छिपाव.
होते थे पास-पास लेकिन
प्रकटित होने देता न भाव.
हैं गोपनीय मन भाव सभी
बन गये हृदय के संस्कार.
अब चाहे भी ना कर सकता
उद्घाटित मैं उनका विकार.
खिल पुण्डरीक पंकिल जल में
महिमा बढ़ती सर की अपार.
थे गुप्त दुष्ट मन के विकार
उनसे निकले सुन्दर विचार.