यह मेरे काव्य-अभ्यास के दिनों की एक कविता है .... "अन्तर्द्वन्द्व". इसकी रचना १९९० के मध्य में हुई, यह अभी तक छिपी हुई थी... मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने पढ़ा हो!
"दिन नियत कर हम मिलेंगे
चांदनी रात होने पर.
जाने साथ बने कैसा
स्नेहमयी बात होने पर."
"चुनी चांदनी ही क्यूँ?
अंधेरी रात भी होती."
- मेरे मन के विचारों यूँ,
तुम न आवाज दो थोती.
शीतांशु की रश्मियों से
शीत मिलती शील को.
शशि बिन बलते दीयों सा
ताप देता शील को.
"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?
दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.
"क्या आप रोक न पाते
मिलन के उर विचारों को?"
- मेरी तरफ से दूर करो,
तुम इन दुर्विचारों को.
मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.
बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का."