पिछले पाठ 'प्रत्यय विचार' में हमने वर्णों की जातियों के प्रस्तार के बारे में जाना था। वह भी केवल अत्युक्ता जाति के चार छंदों को उदाहरणों के माध्यम से। उसी क्रम में तीन वर्णों वाली मध्या जाति के आठ छंद होते हैं और चार वर्णों वाली प्रतिष्ठा जाति के सौलह छंद होते हैं,.... जिसे हम एक सूची के माध्यम से आगे समझेंगे। फिलहाल तो वर्णिक छंद को एक बार फिर से समझते हैं। यह वर्णिक छंद क्या है? एक उदाहरण से समझते हैं :
प्रायः पाठशालाओं और विद्यालयों में विद्यार्थियों को पंक्तिबद्ध आने-जाने का अनुशासन होता है। कुछ बड़े विद्यालयों [कोलिजों] में जिसकी छूट होती है। वहाँ मनमाने ढंग से आना और जाना है। वहाँ पंक्ति की आवश्यकता नहीं रहती।
प्रायः पाठशालाओं और विद्यालयों में विद्यार्थियों को पंक्तिबद्ध आने-जाने का अनुशासन होता है। कुछ बड़े विद्यालयों [कोलिजों] में जिसकी छूट होती है। वहाँ मनमाने ढंग से आना और जाना है। वहाँ पंक्ति की आवश्यकता नहीं रहती।
किसी भी भाषा को सीखने वाला चाहता है कि वह उस भाषा का पंडित बने। इसलिये वह अधिक से अधिक शब्दों से अपनी प्रायोगिक भाषा को समृद्ध कर लेना चाहता है। वह भाँति-भाँति के प्रयोगों के माध्यम से अपना शब्द-भण्डार विकसित करता है। भाषा का पंडित होकर वह भाषा को प्रभावपूर्ण व आकर्षक बनाना चाहता है। यह सब कैसे हो? क्या सोचने से ही हम भाषा पर नियंत्रण कर लेते हैं? नहीं ना... उसके लिये हम छोटे-छोटे अभ्यास करते हैं। जिसमें शब्दकोश हमारी सहायता करता है। क्योंकि गुरु सशरीर सर्वविद्यमान नहीं इसलिये हम परस्पर संवाद करके, विमर्श करके, प्रतिस्पर्धा करके स्वयं का क्रमतर विकास करते चलते हैं।
प्रारम्भ में एक छोटा बाल-विद्यार्थी पाठशाला में आकर दौड़ लगाने से बहुत पहले हाथ-पाँव हिलाता है, पीटी करता है। वाक्य बनाने से बहुत पहले वर्ण को पहचानना, लिखना और सही उच्चारण करना सीखता है। उसी प्रकार हम छंद में निष्णात होने से बहुत पहले शब्द-अनुशासन करना सीखते हैं। उन्हें पंक्तिबद्ध करना सीखते हैं। अंत्यानुप्रास वाले शब्दों की सूचियाँ बनाते हैं अर्थात एक तुक वाले शब्दों के चार्ट बनाकर उनके अर्थों से परिचित होते हैं। यथा : कल, चल, छल, जल, तल, दल, नल, पल, फ़ल, बल, मल, हल। कुछ और भी मिलते-जुलते शब्दों के अर्थ जानकार इसी सूची में जोड़ देते हैं - खल, गल, ढल, थल।
इसी तरह का एक और अभ्यास करते हैं : प्यार, सियार, तैयार........ समझे यार।
मतलब ये कि ऐसे छोटे-छोटे प्रयास विद्यार्थी जीवन में ही कर लेने चाहिए। इस अभ्यास के बाद ही वर्णिक और मात्रिक विधानों के अनुसार छंद से खेलना चाहिए।
जिन छंदों के प्रति-पाद [प्रत्येक पंक्ति] में वर्ण-क्रम एवं संख्या की नियत योजना रहती है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं। ये वर्णिक छंद भी सम, अर्धसम एवं विषम तीन प्रकार के होते हैं।
वर्णिक छंद के 'साधारण' तथा 'दंडक' — भेदों का उल्लेख करते हुए छंद-शास्त्रियों ने बताया है कि वर्ण-वृत्तों में सामान्यतः 26 वर्ण प्रति-पाद की सीमा है. 26 से अधिक वर्णों वाले छंद दंडक वार्णिक छंद कहलाते हैं। जिज्ञासु और छंद के अभ्यासी विद्यार्थियों की सुविधा के लिये आचार्यों ने साधारण-वृत्तों को वर्ण-संख्यानुसार 26 जातियों में विभाजित किया है।
वर्णिक जातियों के नाम एवं प्रस्तार-विधि द्वारा उनके संभव भेदों की संख्या का विवरण कुछ इस प्रकार है :
वर्ण संख्या जाति-नाम प्रस्तार-भेद
..... 1 ....... उक्ता ..........................2
..... 2 ....... अत्युक्ता .....................4
..... 3 ....... मध्या ........................8
..... 4 ....... प्रतिष्ठा .......................16
..... 5 ....... सुप्रतिष्ठा ....................32
..... 6 ....... गायत्री .......................64
..... 7 ....... उष्णिक .....................128
..... 8 ....... अनुष्टुप ......................256
..... 9 ....... बृहती ........................512
..... 10 ....... पंक्ति .........................1024
..... 11 ....... त्रिष्टुप ........................2048
..... 12 ....... जगती ......................4096
.... 13 ....... अति जगती ..............8192
.... 14 ....... शक्वरी .....................16384
.... 15 ....... अतिशक्वरी ..............32768
.... 16 ....... अष्टि .........................65536
.... 17 ....... अत्यष्टि ....................131072
.... 18 ....... घृति .........................262144
.... 19 ....... अतिघृति ..................524288
.... 20 ....... कृति .........................1048576
.... 21 ....... प्रकृति ......................2097152
.... 22 ....... आकृति ....................4194304
.... 23 ....... विकृति ....................838808
.... 24 ....... संस्कृति ...................1677216
.... 25 ....... अतिकृति .................33554432
.... 26 ....... उत्कृति ....................67108864
हिन्दी साहित्य में प्रचलित छंद तो बहुत से हैं जिनके लक्षण और उदाहरण आगामी पाठों के साथ देने का सोचा है। फिलहाल जो अप्रचलित हैं उन वर्णिक छंदों का अभ्यास किया है। उन्हें आपके समक्ष रखता हूँ :
छह वर्ण वाले गायत्री छंद के कुल चौंसठ भेद हैं। सात वर्ण वाले उष्णिक् जाति के १२८ भेद हैं और आठ वर्ण वाले अनुष्टुप् जाति के २५६ भेद हैं. यहाँ कुछ उदाहरण संस्कृत सूत्रों के साथ दे रहा हूँ। मुझे कुछ छंद-भेद जाति नाम सहित प्राप्त हुए उतने ही उदाहरण रच दिये :
जाति = गायत्री ..... वर्ण = 6 ......कुल भेद = 64.....
जाति = उष्णिक् ..... वर्ण = 7 ......कुल भेद = 128.....
जाति = अनुष्टुप् ..... वर्ण = 8 ......कुल भेद = 256.....
[१] तनुमध्या — ताया तनुमध्या [ताराज यमाता — SSI I SS]
[२] शशि वदना — शशिवदनान्यौ [नसल यमाता —I I I I SS ]
[३] विद्युल्लेखा — मा मा विद्युल्लेखा [मातारा मातारा — SSS SSS ]
[४] वसुमती — ता सा वसुमती [ताराज सलगा — SS I I I S ]
[५] मदलेखा — मा सा गा मदलेखा [मातारा सलगा गा — SSS I I S S ]
[५] मदलेखा — मा सा गा मदलेखा [मातारा सलगा गा — SSS I I S S ]
[६] कुमार ललिता — कुमार ललिता। ज साग सयुता है। [जभान सलगा गा — I S I I I S S ]
[७] हंसमाला — सरगा हंसमाला [सलगा राजभा गा — I I S S I S S ]
[८] चित्रपदा — चित्रपदा भ भ गा गा [भानस भानस गा गा — S I I S I I S S ]
१] तनुमध्या — ताया तनुमध्या
तू यौतुक है री!
ओ वासकसज्जा!
आलिंगन में आ
छोड़ो अब लज्जा.
तेरे मुख जैसी
लाली मय संध्या
ताराधिप जैसी
तन्वी तनुमध्या.
__________
यौतुक = दहेज़,
वासकसज्जा = एक प्रकार की नायिका जो प्रियतम से मिलने के लिए शृंगार करके प्रतीक्षा करती है.
ताराधिप = तारापति/चन्द्रमा
__________
यौतुक = दहेज़,
वासकसज्जा = एक प्रकार की नायिका जो प्रियतम से मिलने के लिए शृंगार करके प्रतीक्षा करती है.
ताराधिप = तारापति/चन्द्रमा
तन्वी = कृशांगी
तनुमध्या = मध्य से कृश अर्थात कमर से पतली
[२] शशि वदना — शशिवदनान्यौ
नयन चलाती
पलक गिराती
रति बन नारी
मदन रिझाती.
मधुरम नारी
प्रियतम प्यारी
हँसि मत जा री
शशिवदना री!
[३] विद्युल्लेखा — मा मा विद्युल्लेखा
मामूली चिंगारी
हो जाती है शोला.
गौरी आई जैसे
कामी हूवे भोला.
विश्वामित्रांगो को
था मैना ने देखा.
जागे प्यासे नैना
जैसे विद्युल्लेखा.
______
हूवे = हो गए
______
हूवे = हो गए
[४] वसुमती — ता सा वसुमती
"तू सुन्दर परी
संध्या सहचरी
लाली पिय अरी!
तू क्यूँकर मरी?"
"आती छल निशा
होती दुर् दशा
हो लें अब सती"
भोली वसुमती!
________
वसुमती = पृथ्वी
वसुमती = पृथ्वी
[५] मदलेखा — मा सा गा मदलेखा
माँ! संग्राम करूँगा
तेरा नाम करूँगा
तेरी ओर उठी जो
आँखें वाम करूँगा.
बाजी है रणभेरी
मस्ती में गज देखा
जीतेंगे अब पक्का
जागी है मदलेखा.
[६] कुमार ललिता — कुमार ललिता। ज साग सयुता है।
जिसे ग़लत जाना
उसे फिर मिटाना
निशा तम हटाके
कलाधर कहाना.
हटाकर बहाना
निशा-यवनिका का
सभी कुछ दिखाना
कुमार ललिता का.
[७] हंसमाला — सरगा हंसमाला
सुर गैया सुशृङ्गी!
करुणा दृष्टि तेरी
पड़ जाये यहाँ भी
तुम आना पियारी.
पयदेवी! पिलारी
पय, मैं ब्रह्मचारी
सुनना री, पुजारी
बन आया यहाँ री.
तुम ऎसी लगे हो
दिखती कंठ माला
तुम हंसी बनी हो
फबती हंसमाला.
____________
सुर गैया सुशृङ्गी = कामधेनु सुन्दर सींग वाली
पयदेवी = गाय, दुग्ध देवी.
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सुर गैया सुशृङ्गी = कामधेनु सुन्दर सींग वाली
पयदेवी = गाय, दुग्ध देवी.
[८] चित्रपदा — चित्रपदा भ भ गा गा
भारत भाग्य विधाता
भूल गया इतराता.
गूँज रही रण भेरी
गौरव गान गवाता.
याद नहीं उसको है
शायद भीषण होगा
युद्ध, जहाँ रहने को
जीवन भी मृत होगा.
संभवतः बच जाये
मानवता कुछ बाक़ी
भावुकता तब बाँधे
मानवता-कर राखी.
ब्राह्मण वैश्य बचेंगे
क्षत्रिय भारतवासी.
चित्रपदा कहती है
मानवता अविनाशी.
प्रश्न :
[१] उपर्युक्त आठ उदाहरणों में से कौन-से छंद गायत्री जाति के, कौन-से उष्णिक जाति के और कौन-से अनुष्टुप जाति के हैं?
[२] दंडक छंद की सरल पहचान क्या है?
प्रश्न :
[१] उपर्युक्त आठ उदाहरणों में से कौन-से छंद गायत्री जाति के, कौन-से उष्णिक जाति के और कौन-से अनुष्टुप जाति के हैं?
[२] दंडक छंद की सरल पहचान क्या है?