बुधवार, 11 दिसंबर 2013

उर-सर ....... एक कथा-काव्य

पिय खोद रही सर निज उर में 
स्नेह-नीर पिया का भरने को। 
स्नेह-धार फूट पड़ी सर में 
स्नेह-नीर लबालब भर आया। 

तब हंस युगल अपनी तुंड में 
सर में उतरे सरोज लिये। 
भेंट करी कमल की उर-सर को 
जल-केलि करें अब वे उसमें। 

दो थे सरोज वे फ़ैल गए 
जड़ उर-सर में मुख बाहर को। 
आभा तब पिय की फ़ैल गई 
जब उर-सर के वे ओज बने। 

पर फिर भी उसकी चाहत  थी 
स्नेह-नीर पिया का पाने की। 
जिससे उसकी उर-उत्कंठा 
पूरी हो ओज बढ़ाने की। 

जो चाहत थी पूरी कर ली 
स्नेह-नीर पिया ने दे डाला। 
पर बिखर गया वह उर-सर से 
बह गया नाली में दूषित हो। 

हंस युगल ने जब देखा यह 
स्नेह-नीर बह गया उर-सर से। 
जल-केलि छोड़ वे पहले ही 
उड़ गये आरोप लगाने से।  

कमलज ने छिन्न हुए नीर को 
उर-सर समीप ही ठहराया। 
व दंड दिया भार ढोने का 
जिससे वह उर-सर हीन हुआ। 

वह उर-सर से संधि विच्छेद कर 
गया निज अस्तित्व बनाने को। 
रहा समीप उर-सर के फिर भी 
वह पड़ा रहा एकांत लिए। 

पिय दण्डित हो अब उठा रही 
लघु भार उसी का महीनों से। 
सब खर्चा भी वह उठा रही 
निज बढ़ी भूख को शांत किये। 

चाहती जिससे पिण्ड छुड़ाना 
अब याद उसी की हो आयी। 
कैसे स्नेह-नीर उर-सर से 
छिन्न हुआ था वह सकुचाई। 

जो रूठ चला था उर-सर से 
वह उसे बुलाना चाहती थी। 
उसको अपने क्रोड़ वास में 
अब वह ठहराना चाहती थी। 

वह दिन भी पास आ गया तब 
पिय मुक्त हुई औ' भार हीन। 
जो नीर बहा था उर-सर से 
वह आज हुआ उसका अंगज। 

वह आया क्रोड़ आसरे में 
निर्जन निवास तब अपना छोड़। 
पुनः उर-सर से संधि कर लीं 
जब टूट गया खर्चे का जोड़। 

उर-सर की ममता जाग उठी 
स्नेह-नीर हुआ पय ममता मिल। 
उर-सर सरोज भी उस पय में 
नव पयोज नाम से थिरक उठे। 

उस थिरकन में पय छलक पड़ा 
औ' पयोज-नाल से धार चली 
जल्दी से डेरा डाल दिया 
उस धार-द्वार पर पयोमुख ने। 

बह चली धार फिर उर-सर से 
अब खड़ा पयोमुख ओक किये। 
दे रहे निमंत्रण पीने का 
दोनों पयोज बारी -बारी। 

उर-सर से सारा नीर निकल 
बह गया पयोमुख के मुख में। 
उर-सर-तल में रह गई मात्र 
ममता-मक्खन की एक परत। 

उर-सर का सारा ओज क्षीण 
तब हुआ कमल भी सूख गए।  
उस पयोधरा ने निज शिशु के 
पालन ही पर सब खर्च किया।  

चल पड़ा शिशु एक बार पुनः 
पय-पान हेतु उर-सर समीप। 
पर मिला उसे पय-द्वार बंद 
अब पय-प्रासाद भी खंडहर था। 

उर-सर को तब वातायन से 
चोरी से शिशु ने देख लिया। 
उर-सर-तल में जो जमा हुआ 
उसको माँ कह संकेत किया। 

पिय हुई उन्मादित शिशु मुख ने 
जब माँ कह कर संकेत किया। 
तब अपने दोनों हाथों से 
शिशु को छाती से लगा लिया। 

माँ नाद किया था जो शिशु ने 
वह क्रोध-क्षुधा की पावक थी। 
उस पावक की लपटों से ही 
ममता-मक्खन सब भस्म हुआ। 

अग्नि क्रोध-क्षुधा की शांत हुई 
ममता-मक्खन जब हुआ ख़तम। 
और फ़ैल गई अक्षय सुगंध 
मदमत्त हो गया शिशु एकदम। 



सोमवार, 11 नवंबर 2013

ये कैसा प्रयोग किया ?

प्रियंवदे! तुम गए मुझ पर वियोग किया।
माँ पिता बहिन भाई सबसे संयोग किया।
हम रहे काम में व्यस्त पाप से योग किया।
क्षुद्र-विकारों से मानस का भोग किया।
दिन-रात तनावों ने श्वासों का रोग दिया।
दूर हमीं से जाकर -- ये कैसा प्रयोग किया ?

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सलूनो है पूनो के संग

उतर धरती पर चला अनंग
सुंदरी रति भी उसके संग।
बहिन भैया का था त्योहार
'सलूनो' देख हो गए दंग।
 
चलो देखें चलकर कुछ गेह
हमारे लिए कौन सी देह
पड़ी है रिक्त आज परिवाद
सोचते करें तनिक संदेह।
 
कौन किसको कितना कैसे
कर रहा है अंतर से नेह।
मधुरता सच्ची है या मृषा
प्रयत कितना है कितना हेय।  
 
जोहती देखी भैया बाट
बहिन बैठी थी खोल कपाट
प्रतीक्षा कर परियात हुई
बाँध राखी कर तिलक ललाट।
 
प्रकृति तरु के कर में नवपात
लहरियाँ सर वर में जलजात।
दृगों को पलकों की प्यारी
दृष्टि राखी बाँधे अवदात।
 
पाणि-पल्लव बहिना के आज
कलाची को भैया की साज
पा रहे हैं प्यारे उपहार
सुमन राखी वाला ऋतुराज।
 
दिवस भर घूमे रती अनंग
लालि संध्या का श्यामल अंग
हुआ, बोला वसुधा से चंद
– "सलूनो है पूनो के संग।"

रविवार, 21 जुलाई 2013

भव्या वृष्टि

 
उपधानों की चारदिवारी
पयदानी कोपीन कियारी
अस्त-व्यस्त शैया पर सिंचित 
नयनों की तारक फुलवारी।
 
 
अंक पर्यंक लगे समदृष्टि 
परम आत्मा की नव सृष्टि 
मन आँगन की दशक शुष्कता
मेटन को हुई भव्या वृष्टि।
 
 
वत्सलता का शिलान्यास सी 
मध्य बिंदु माँ पिता व्यास सी 
कारा जीवन  में राका बन 
तृषित ह्रदय चातकी प्यास सी।
 
 
 
पयदानी = पैदानी,
चारदिवारी = चाहरदीवारी
कियारी = क्यारी 
 
 

गुरुवार, 6 जून 2013

भव्य अनुभूति

 
शब्द नहीं हैं सुख वर्णन के
नित्य ह्रदय में उत्सव महके
मुख-द्वार पर सभी स्वरों के
बारी-बारी अक्षर चहके।
सपना नहीं सत्य समझते
लाल हुई हैं आँखें मलते
प्रेम विटप की बाँहों पर अब
गोदी वाले पुष्प निकलते।
जान गया मन रहस्य पिता का
संतानों से अपनेपन का
अर्थ ढूँढ लेता हूँ अब तो
हर किलकारी हर रोदन का।
 
 
 

मंगलवार, 5 मार्च 2013

शापित सुनार

हर ह्रदय विदारित तार-तार
संवेदन सरिता स्फुटित थार
बह चली कूल दोनों नकार
दामिनि दामन सुन चीत्कार।
 
सभ्यता हो चली शर्मसार
आवरण गया देह को डकार
उबला अबला जबरन विकार
तामस में कुचली ज्योति नार।
 
'हा-हा-हा-हा' कानों के द्वार
कोमल कातर स्वर की कतार
आती टकराती बार-बार
आखेटक मन करता शिकार।
 
हर ओर न्याय को हो गुहार
अनुत्तरित प्रश्न दहलीज पार
कंधों पर किसके न्याय भार
हावी लुहार शापित सुनार!!!
 
 
[व्यापक जन-जागृति की उत्प्रेरक बनी 'बहिन ज्योति पाण्डेय' को भावाञ्ज्ली]
 

शनिवार, 2 मार्च 2013

चिंतन की रस यात्रा

"एक बार काव्य-साधना के समय सहसा मेरा चिंतन साहित्यिक रसों के पथ पर निकल पड़ा। समस्त रसों को 'काम' की तीव्रता के आधार पर विभाजित करके समझने लगा। पहले पहल अतिकाम, मध्यकाम, और शून्यकाम करके सभी रसों को इन श्रेणियों में रखा। फिर श्रेणियों के नाम बदलकर उसे फिर से विभाजित किया। .... अद्भुत आनंद मिला।"
 
जब कोई काव्य-साधक नया चिंतन करता है तो वह मन में उपजे स्थायी-अस्थायी भावों को कुछ कक्षाओं में अनुशासित करने का खेल खेलता है। आने वाले समय में यदि काव्य-अभ्यासियों और काव्य-रसिकों को वह रुचता है तो वे उसके ज्ञात-अज्ञात रूप से प्रचारक हो जाते हैं।

'काव्यशास्त्र की शिक्षा वर्तमान समय में अपनी महत्ता कैसे स्थापित करे?' – इस चिंता से कई विद्वान् और विदूषियाँ अपने-अपने प्रयास ज़ारी रखे हुए हैं। कुछ काव्यशास्त्र पर अच्छी कक्षाएँ दे रहे हैं तो कुछ उत्कृष्ट काव्य-लेखन कर रहे हैं। सभी के प्रयासों से काव्य की समृद्ध परम्परा चलायमान है।
एक सुबह जिस चिंतन ने 'कलम' खिलौना लेकर खेल आरम्भ किया उस 'चिंतन-क्रीड़ा' में आप भी सम्मिलित हो सकते हैं :
पहले पहल कलम ने पाला खींचा :
अति काम — जिसमें शृंगार, हास्य, अद्भुत नाम के फुर्तीले खिलाड़ी खड़े किये।
मध्य काम — जिसमें वीर, करुण, वात्सल्य नाम के शारीरिक सौष्ठव वाले खिलाड़ी खड़े किये।
शून्य काम — जिसमें शांत, वीभत्स, रौद्र, भयानक नाम के खिलाड़ी रह गए जो हार-जीत की चिंता से मुक्त दिख रहे थे।
पाला खींचने के बाद संतोष नहीं हुआ। चिंतन ने खींचे हुए पाले को नए नाम दिए :
द्रुत काम — जिसमें खिलाड़ी वही थे -- शृंगार, हास्य, अद्भुत
श्लथ काम — जिसमें खिलाड़ी वही थे -- वीर, करुण, वात्सल्य
अकाम — जिसके दो उपभाग किये -- निष्काम / दुष्काम
  • निष्काम में – शांत को खड़ा किया
  • दुष्काम में – वीभत्स, रौद्र, भयानक (दूसरे उपभाग में) खड़े हो गए।
शृंगार — अति, मध्य, मंद 
अति शृंगार : संयोग (निःशब्द रति-व्यापार) / वियोग (प्रसुप्त विरह-ज्वार)
मध्य शृंगार : संयोग (आकर्षण, परस्पर वार्तालाप, सानिध्य) / वियोग (सुखद स्मृतियाँ, दुखदायी परदेशगमन, मान, पूर्वराग)
मंद शृंगार : संयोग (साक्षात शब्द संवाद, चाहना) / वियोग (कथन मात्र, कविताई)
हास्य — प्रौढ़, युवा, बाल
प्रौढ़ : अट्टहास, अपहसित, अतिहसित
युवा : हसित (खिलखिलाहट), विहसित (परिहासात्मक हँसी)
बाल : सुस्मित (मुस्कान)
करुण — आभ्यंतर, बाह्य
आभ्यंतर : मानसिक वेदना से उपजा कातर स्वर
बाह्य : शारीरिक वेदना से उपजी कराह
अद्भुत* — विश्वसनीय, अविश्वसनीय, कपटपूर्ण ... [इस पर कभी और क्रीड़ा रचेंगे]
वीर* — उदात्त, ललित, प्रशांत, उद्धत या, युद्धवीर, कर्मवीर, धर्मवीर, दानवीर  [शास्त्रोक्त]  
वात्सल्य — प्रौढ़, युवा, बाल
प्रौढ़ : माता-पिता (अभिभावक) का अपने बच्चों से
युवा : प्रत्येक बड़े का प्रत्येक छोटे से, प्रत्येक सबल का प्रत्येक निर्बल से, प्रत्येक सक्षम का प्रत्येक असहाय से
बाल : जीवों से वस्तुओं से और स्थान से।
शांत
लक्ष्य साध्य (अर्थ मौन) : विपरीत स्थिति में प्रतिक्रिया भाव, ज्ञानपरक तप, वैराग्य भाव युक्त ऋषि-मुनियों की साधना
अलक्ष्य साध्य (व्यर्थ मौन) : प्रतिक्रियाहीनता, उदासीनता, तटस्थता
वीभत्स
क्षोभज (शुद्ध) : पापी (अपराधी) से घृणा, रुधिर आदि से उत्पन्न घृणा, सुन्दरी के उरु-उरोजों के प्रति वैराग्य
उद्वेगी (अशुद्ध) : पाप (अपराध) से घृणा, कृमि विष्ठा, शव आदि से उत्पन्न घृणा।
रौद्र —
अत्यंत क्रोध : विनाश भाव (अनिष्ट), पूर्णतया समाप्त कर देने की इच्छा
क्षीण क्रोध : क्षत-विक्षत करने का भाव, चोट या घात करने की इच्छा
भयानक —
जड़ भय : स्तब्ध रह जाना, स्थिर रह जाना, अवाक रह जाना, कंठावरुद्ध होना
चेतन भय : कम्पन होना, भागना-दौड़ना, सुरक्षा के लिए चीख-पुकार करना, हकलाना, छिपते फिरना, सामने न आना, नज़रें नीची कर लेना, विपरीत कार्य करने लगना।
इस चर्चा का उद्देश्य है –
विद्वान् साथियों और गुरुओं को विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित करना, गुरुओं का मार्गदर्शन लेना।

मेरा यह अनुभव है अपरिपक्व चिंतन तभी पुष्ट होता है –
जब उसमें सुधार के अवसर खुले हों।
आलोचना के लिए सम्मान भाव हो।
विरोधियों का भी स्वागत हो।

[*तारांकित रसों पर मन-मुताबिक़ क्रीड़ा की फिर कभी छूट लूँगा।]

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

वासंतिक मान

प्रथम बार
था मौन संयमित
कोकिल का कल गान
संभवतः कर रहा
पिकानद आने का अपमान।
 
अंधकार
छिपकर भी विचलित
खोता था पहचान
उषा-सुंदरी आयी
करता अंगहीन प्रस्थान।
 
शयन-कक्ष
में रमणी व्याकुल
करने को वपु-दान
पर प्रियतम से कर बैठी थी
वह पहले ही मान।
 
कोप-भवन
से निकल कोकिले!
पंचम स्वर आलाप
मान मिटे रमणी आवे
पी आलिंगन में आप।

सोमवार, 28 जनवरी 2013

दुःस्वप्न

निशा आधी नग्न होकर
मेरी शैया के किनारे
आई सुधा-मग्न होकर
लिए नयनों में नज़ारे।
 
आँख के तारे नचाकर
अनुराग से पाणि बढ़ाकर
कर लिया मेरा आलिंगन
बिन हया ही मुस्कुराकर।
 
मैं विमर्ष से निशीथ में
निस्पंद, नीरव नेह को
किस तरह कर दूँ निराहत?
विदग्ध तृषित देह को।
 
श्वास में मिलती मलय-सी
अनिल, तन से फूटती है
कर रही मदमत्त मुझको
प्यार पाकर झूमती है।
 
श्याम अंबर चीर देखा
दीपिका ने क्रोध से तब
निशा भागी, निमिष मुकुलित
किये मैंने, लाल था नभ।

रविवार, 13 जनवरी 2013

सच कहता हूँ...

सच कहता हूँ, सच कहता हूँ
अकसर तो मैं चुप रहता हूँ
तन मन पर पड़ती मारों को
बिला वजह सहता रहता हूँ .... सच कहता हूँ।
 
वर्षों से जो जमा हुआ था
जो प्रवाह हृत थमा हुआ था
आज नियंत्रित करके उसको
धार साथ में खुद बहता हूँ ... सच कहता हूँ।
 
इस दृष्टि में दोष नहीं था
भावुकता में होश नहीं था
खुद को दण्डित करने को अब
धूर्तराज खुद को कहता हूँ ... सच कहता हूँ।

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कंठ शीत ने बिगाड़ दिया है। अन्यथा सस्वर प्रायश्चित करता!!