बुधवार, 18 जुलाई 2012

कविता-चेरी

आँखें तलाशती हैं मेरी
कविता के लिये नई चेरी
आ बन जावो प्रेरणा शीघ्र
मत करो आज़ बिलकुल देरी.
है कौन प्रेरणा बने आज़
मैं देख रहा हूँ सभी साज
बैठे हैं अपने गात लिये
पाने को मेरा प्रेम-राज.
आकर्षित करने को सत्वर
कुछ नयन कर रहे आज़ समर
शर छूट रहे हैं दुर्निवार
कुछ डरा रहे हैं लट-विषधर.
मुझको चूमो कह रहे गाल
मुझको छूवो कह रही खाल
पग दिखा रहे हैं मस्त चाल
- ये उलझाने को बिछा जाल.
कुछ कटे हुए केशों की भी
कर रहे हैं इतनी देखभाल
अंगुली फेरें, मुझको लेकिन
फण कटे व्याल लग रहे बाल.
जिन पर वसनों की कमी नहीं
वे वसन दिखाते सभी आज़
आकर्षक बनने को तत्पर
कुछ दिखा रहे हैं छिपी-लाज.
सुन्दर होना सुन्दर दिखना
ये तो सबसे है भली बात
पर मर्यादा भी रहे ध्यान
वसनों के अन्दर रहे गात.
अब भी तलाशती हैं आँखें
कविता के लिये नई चेरी
जो दे कविता को नई दिशा
वो बन जावे आकर मेरी.
 
*कविता-चेरी = 'प्रेरणा' से तात्पर्य
दुर्निवार = लगातार, जिसे रोकना कठिन हो.