रविवार, 14 दिसंबर 2014

बिंदु

छीन कर रेखा से कुछ अंश
बना दूँगा उसके सब ओर
गोल घेरे में वृत्तायन
बढ़ाउँगा उसमें निज वंश॥
 
बिंदु को रेखा से कर हीन
स्वयं में कर लूँगा मैं लीन
बिंदु से बिंदू एक नवीन
बनाउँगा होकर लवलीन॥
 
बिंदुओं को आपस में एक
कभी कर दूँगा फिर से रेख
बिंदुओं से रेखा का मेल
कराकर खेलूँगा मैं खेल॥
 

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

सो जा बिटिया रानी!

 
सो जा बिटिया रानी !
आँखों में आई रहने को सपनों की सेठानी। 
पलकों का पल्लू करने की माने रीति पुरानी।
आगे-पीछे घूम रही है थपकी नौकर-रानी।
सो जा बिटिया रानी, सो जा बिटिया रानी।
 
 
प्रेरणा स्रोत : आदरणीय रंगराज अयंगर जी

शनिवार, 29 नवंबर 2014

पौरुषीय व्रीड़ा

देखकर भी मैं गर्दन मोड़
लिया करता हूँ होकर मौन
नयन करते रहते हैं दौड़
धरा को पाता हूँ न छोड़।
 
भ्रमण करते रहते भ्रम में
नयन पलकों में घुस अंदर
परन्तु पूछ रहा मन मौन -
"कौन आया है आश्रम में?"
 
नाम है वही परन्तु बिम्ब
ज़रा सा लगता हैं कुछ भिन्न
देखकर जानूँ कैसे मैं
अभी तक हूँ मैं संयम में।
 

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

पुरा-स्मृति

भूल गए हो क्रिया 'बाँधना'
जबसे गाँठ पड़ी मन में 
कोमल धागे खुले रह गए 
इस बारी फिर सावन में। 
 
छोड़ दिया है आना-जाना 
घर में और विचारन में 
नेह निमंत्रण बुले रह गए 
इस बारी फिर आँगन में। 
 
संबंधों में मिष्टी घोलना 
होता है अपनेपन में 
चषक-पियाले धुले रह गए 
इस बारी उद्यापन में। 
 
लौट आने की शुभ्र सूचना 
दे देते उच्चारन में !
करतल-बंदी सुले रह गए 
आवेशित हो तारन में। 
 
डुबकी ली थी स्मृति में तेरी
डूब गया मझधारन में
बुद बुद बुद बुलबुले रह गए
स्वर यह भी संचारन में। 
 


* करतल-बंदी = मोबाइल 
 
 
 

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

याचना

मुषित आपके ही सारे
ष भाव हमारे कंटक में
सेही बन तुम करते बचाव
हिक निज मन को दे चकमे।

सायक बन बैठे भाव सभी
रि बनी आज कविता तरंग
द दलित हुए सपने मेरे
राका भर नाचा था अनंग।

नु लिए हाथ कटि में निषंग
हुत करा हृदय कर स्वप्न भंग
खेट हमारा करने को
तुर बना, पड़ा पीछे अनंग।

ध्या! मनुहार करूँ तुमसे
क्षत कर दो कवि का वचन भंग
मादकता मय सारे विचार
र्तक नयनों से करो नंग।

हीं हीं करता है हास स्वयं
र्षक संयम पर डाल पंक
जगुणी हो गई वाक् कलम
पातक मन को दे कौन अंक ?

, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
गेही समान आचरण स्वयं
पारस स्पर्श कर दो कलाचि
मैं स्वर्ण बनूँ, हों पाप अलम।
 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

दर्शन-प्राशन



लम्ब उदर के हो जाने से 
कर ना पाता हूँ जो आसन 
उसे तुरत करती है बेटी 
सुन्दरतम ये 'दर्शन प्रासन'*।  


कर्मकाण्ड वाला क्रम पूजन 
आता है किञ्चित जो रास न 
उसे नक़ल करती है बेटी 
मनमोहक ये 'दर्शन प्रासन'।


ये है उचित और वो अनुचित 
देता रहता हूँ जो भासन* 
उसे ध्वस्त करती है बेटी 
चख-उद्घाटक 'दर्शन प्रासन'।


* प्रासन = प्राशन 
* भासन = भाषण 

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

संन्यासी सुत

सौंदर्य सुधा घट में भरते 
हे देव, आप क्योंकर हाला 
क्यों बना रहे कोमल तन को 
बालाओं के बंकिम भाला। 


था हुआ कभी आहत मैं भी 
है पीर अभी उसकी भारी 
मैं निर्माता बन हटा तभी 
तो लगा आपने ली बारी। 


अब तलक ओट से देखी थी 
अवगुंठनमय अवनत नारी 
विपरीत लगा प्रतिघात भवन 
में देखी जब सूरत प्यारी। 


हे देव, जानता हूँ मैं सब 
तुममें मुझमें है भेद बहुत 
तुम संयम के बुत हो तो मैं 
संन्यासी संयम का हूँ सुत। 


सोमवार, 8 सितंबर 2014

भाव-स्फोट

जब नदी उफान पर होती है, किनारे तोड़कर अपने आसपास के क्षेत्रों में तबाही लाती है तब केवल एक ही उपाय बचता है - उसके शांत होने की प्रतीक्षा।
वैसे ही , जो परस्पर आत्मीय होते हैं या लम्बे समय तक एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहे होते हैं अथवा रक्त सम्बन्धी होते हैं। 'भाव' के स्तर पर उनमें भी भयावह उठा-पटक हो जाती है, क्रोध मन-मस्तिष्क की समस्त विकृतियाँ उगल रहा होता है, सम्बन्ध बिगड़ते हैं, तब मात्र एक ही उपाय रह जाता है - स्थितियों के सामान्य होने की प्रतीक्षा।
'पुरानी डायरी' के पन्ने पलटते हुए आज मैंने 'समय विशेष' में बने भाव के दर्शन किये --- [यहाँ आपको संचारी भावों की मूसलाधार बारिश होती दिखेगी ३३ में से अधिकांश भावों का आना-जाना बहुत तीव्रता से हुआ है।]
 
 
स्वसा सम _______,
नमस्ते ! आपका स्मरण निरंतर करता हूँ। आपकी शिष्ट मधुरम क्षणिक किलक हृत में आई शुष्कता को दूर करती है, मस्तिष्क में बसे अहंकार पर चोट करती है।
अति व्यस्त समय में भी आप जटिल विचारों और तनावों के बीच कौंधकर 'चोट पर मरहम' सा आराम देते हो। आपको प्रतीक्षा रही इस पत्र की किन्तु इसे पत्र रूप देने में मेरी कार्य व्यस्तता ही व्यवधान बनी रही। अब इसे दूर करने की शीघ्रता पर विचारता हूँ।
हर 'माँ' माँ होती है। 'पिता' भी पिता होते हैं। दोनों आदरणीय हैं। दोनों का अपमान मेरी कल्पना में भी नहीं हो सकता किन्तु मेरा स्वभाव विश्वासों और मान्यताओं के अंधत्व पर व्यंग्योक्ति करने का रहा है। सो छोड़े नहीं छूटता। यदि मेरे स्वभाव से किसी को पीड़ा पहुँचती है तो मेरे सम्पूर्ण चरित्र और कार्यों पर दृष्टि डाल मूल्यांकन करें। अन्यथा मैं बार-बार बड़ों की कोपदृष्टि से ग्रस्तता रहूँगा।
यहाँ मेरे जन्मपिता और माता द्वारा माता तुल्य अन्य माँ के सम्मान को ठेस पहुँची। जीवन पर्यन्त क्षमा माँगू तो भी ग्लानि नहीं मिटेगी।
इसी अनुभूति के साथ …
आपका भ्रातसम
_______
 
जो प्रिय थे बालपन से अब तलक
काल्पनिक विलगाव जिनका असह्य था
गर्व होता था कि वे माता-पिता
हैं हमारे, मैं उन्हीं का पुत्र हूँ।

 
आज स्मृत होता सभी उनका किया
एक झटके में घृणा जिनसे हुई।
ईश ! उनकी बुद्धि में सबके प्रति
प्रेम, ममता, विनम्रता का भाव दो।
 
अब नहीं वो भाव मन में घूमता
ग्लानिवश छिपता फिरे अथवा कहीं।
देह का व्रण औषधि से मिट गया
किन्तु हृत का व्रण कभी न शुष्क हो। "

शनिवार, 30 अगस्त 2014

'अरे नहीं, ऐसा ना बोलो'

प्रेषित की मुस्कान उन्हें तो वे भी थोड़ा मुस्काये।
मिलने को दो नयन-युगल धीरे-धीरे सम्मुख आये।
 
एक युगल आँखें निराश थीं और दूसरी झुकी हुईं।
आर-पार दिखने वाले परदों के पीछे छिपी हुईं।
 
प्रथम दो नयन हँसकर बोले सफल नहीं हम हो पाये।
गौरव किस पर करें किसलिए अब तुमसे मिलने आयें।
 
'अरे नहीं, ऐसा ना बोलो' मन ने था चुपचाप कहा -
'तुम हो सफल दृष्टि में मेरी, सफल हमारा नेह रहा।'
 
नयन दूसरे चुपके-चुपके देख रहे थे सकुचाये।
सोच रहे वे कौन करुण गाथा कवि के सम्मुख गायें।
 
मन भाये वे नयन, कल्पना ने मुझसे हो मौन कहा -
'इनको भी दो नेह इन्होंने शुष्क शिशिर का पौन सहा। '

बुधवार, 25 जून 2014

आखेट कुशलता

तुम चले, चला धीरे-धीरे
मन मेरा चुपके से पीछे। 
तुम रुके, नहीं रुक सका हाय
संयम मेरे मन को खींचे।
क्यूँ रुके, नहीं तब था जाना
अब जान गया चख हैं तीखे।
रुक जाता तो मन मर जाता
आखेट-कुशलता बिन सीखे।

मंगलवार, 24 जून 2014

निःशब्द क्षमा


 
 
 
 
 
 
 



क्षमा किसे मैं करूँ स्वयं से बड़ अपराध किया किसने
माँग रहे तुम क्षमा भूल पर मुझको दंड दिया जिसने
कोमलता के भाव ह्रदय से बन-बनकर तेरे निकले
फिर भी मैं था मौन देख बढ़ गया भाव तेरे पिचले
तुम पर मुझको क्रोध नहीं क्यों शब्द तुम्हारे हैं पिघले
मैं तो खुद को कोस रहा चुपचुप कुछ वर्षों से पिछले
अमा रही जब तक निज मन में तब तक ही मैं था भटके
जब से दरस किया तव का सुषमा मेरे मुख पर मटके।

सोमवार, 16 जून 2014

उठो अंशुमान !

प्रकाश औ' प्रकाशिका 
कर्तव्य साथ छोड़कर 
दे रहे थे देह को 
विराम प्राचि-गेह में। 

प्रकाश ताप व्याज से 
घटा-विधान ओढ़कर 
ले रहा था सुबकियाँ 
अश्रुओं को छोड़कर। 

मलिनता मिटाने को 
खींचती घटा-विधान 
धीरे से खाँसती, पिय 
आई, उठो अंशुमान !

सोमवार, 26 मई 2014

ग्रहण करूँगा शपथ


मुझे देख तुम आते-जाते 
अधर-ओष्ठ दो बार मिलाते 
स्वर 'माँ' से कमतर न लगता 
'प' व्यंजन की झड़ी लगाते। 

माँ के इर्द-गिर्द है 'शाला' 
शयन समय है छुट्टी वाला 
भाषा शब्द और भावों का 
सीख रही व्याकरण निराला।

डाँट प्यार ममता से लथपथ 
हाँका करते गृहस्थी का रथ 
करूँ सुरक्षित जीवन भव्या 
ग्रहण करूँगा मैं भी शपथ। 

शनिवार, 17 मई 2014

गुजराती पट्ठा


उपयोगी थी भूमि
लगाने — ईंटों का भट्टा।


भीड़ लगी रहती थी
लेने — चट्टे पे चट्टा। 

इंतज़ार में जाने किसके 
रहता मन खट्टा। 

तिल-तिल चाट रहा दिन-घण्टे 
काला* तिलचट्टा। 

समय बड़ा बलवान
दरकती — भावशून्य सत्ता। 

उसी भूमि से बाहर आया 
पत्ते पे पत्ता। 

विषतरु मूल जड़ों में ठेले 
अमूल दूध मट्ठा। 

दशकों बाद मिला देश को 
गुजराती पट्ठा। 


*काला = समय का (समय रूपी)


रविवार, 23 मार्च 2014

आगंतुक काम

पृष्ठ कोरा
देखना मैं चाहता हूँ
एक धुंधला चित्र जिसमें
रख कलम उस पर उकेरूँ
सहजता से चित्र प्रेरक।
एक बिंदु -
आरम्भ होकर
अंत बिंदु तक मिले जा
मध्य की रेखाएँ
इतनी उभर जाएँ कि लजाएँ
सिमटने का भाव उसमें
दृष्टि पड़ते संचरित हो।
पाद का अंगुष्ठ
भूमि पर बनाता चाप
एड़ी टिकी रहती
बनाते गर्त छोटे आप।
यौवन भार
कर रहा लोचित
-- मध्य के उभार
उरु पर स्वतः ही
पड़ रहा समग्र वपु भार।
संध्या समय
के सूर्य का प्रकाश
तरु-पल्लवों के बीच से
पहनाये छाया-पाश।
सुमन-क्यारी
से गुजर कर वायु
घ्राण रंध्रों को बताये
अंग-सौष्ठव आयु।
कर बद्ध दिखते
प्रेम, श्रद्धा भाव
आगंतुक की भाँति होता
'काम' का ठहराव।

शनिवार, 22 मार्च 2014

श्वास का स्यंदन

दुर्दान्तता है प्रेम की
उद्दाम उच्छल आग में
चल रहा है श्वास का
स्यंदन बिना रुके हुए.
धँस रहे हैं चक्र दोनों
स्नेह-शुभ्र-पंक में
हाँकता हूँ मदन-अश्व
हृदय की लगाम से.
म्लान मुख हो गया
उर मदन-अश्व हाँकते
किन्तु स्नेह-पंक से
स्यंदन ज़रा हिला नहीं.
श्लथ हुई हैं इन्द्रियाँ
संस्रस्त पूर्ण तन-वदन
पर स्मृति स्नेह की
स्यंदन को बढ़ा रही.

गुरुवार, 6 मार्च 2014

स्नेह ऋण - २

पिछले का शेष ... 

उर - सर स्वर यूँ 
निकला जैसे फूट पड़ी हो धारा 
शीतल जल की 
जिसमें छिपा हुआ था 
नेह - ऋण प्यारा 
"क्यों होते हो व्याकुल 
क्या रूठा है भाग्य तुम्हारा 
या फिर तुम भी यही चाहते 
हो निज पानी खारा 
एक बार तो आकर देखो 
मेरे अंतस में तुम 
सम्भवतः 
मिल जाए आपको 
हुआ आपसे जो गुम।"

मैंने सोचा - 
बड़ा बुरा है ऋण को लेकर जीना
कड़क शीत में डर के मारे 
कैसे आये पसीना 
नयन बंद कर डुबकी मारी 
थर - थर काँप गया मैं
उर - सर के हर कौने जाकर 
देख - देख हाँफा मैं 
बाहर आकर सर से बोला -
"तुमने मिथ्या बोला 
नहीं मिला मुझको  पिय का ऋण 
उर में धधके शोला। "
सरवर बोला -
"नहीं - नहीं मेरे वचनों में मिषता 
मुझमें ही आ छिपी हुई थी 
पिय - ऋण की अस्थिरता 
देखो! अपनी देह 
दीखती है धुंध - परी निकलती 
जाती है वापस 
पिया के पास हवा - सी उड़ती 
यही आपके पिय का ऋण है 
स्वयं जा रहा पिय के 
पास, जहाँ देनी है उसको 
पावनता पहचान। "

मैंने पूछा -
सरवर से 
"क्यूँ रहते शीतल हरदम 
रजनी आकर पास फहराती 
शीतलता का परचम
काँप - काँप जाता हूँ 
जब - जब देती पिया उधार 
कभी वक्ष से लगकर 
और कभी अधरों से प्यार 
पर उस कम्पन में मुझको 
शीतलता नहीं सताती 
पर सर में डुबकी लेने की 
सोच भी भय दिखलाती। "
 
सरवर बोला -
फँस जाओगे यदि लिया उधार 
और अंत में देना होगा 
सूद सहित ऋण - प्यार 
इससे तो मैं ही अच्छा हूँ 
मेरी शीतलता से 
आप बनोगे पाक 
बचोगे घोर वपु - निंदा से 
और यदि मिल जाता मुझमें
दूषित उर का प्यार 
उसका भी कर देता उर - सर 
प्यार सहित उद्धार 
और यदि ऐसे ही पिय से  
लेते रहे उधार 
ऋण भी पा जाएगा उस दिन 
बहुत अधिक विस्तार  
दब जाओगे बोझ तले तब 
प्राण रोएगा फबक - फबक कर 
दूषित हो मैं उबल पड़ूँगा 
कर बैठूँगा 
खर्च आपकी गुप्त निधि का 
हो जाओगे रंक आप 
अपने से ही जब 
मुझसे मिलकर पश्चाताप 
करोगे तब। 

बुधवार, 1 जनवरी 2014

स्नेह-ऋण

शरद निशा में
काँप रहा तन
थर-थर-थर-थर
मैं बिस्तर में सिमट गया
तन फिर भी शीतल
तभी कहीं से आया लघु
एक स्वप्न प्यारा
पिय ने मेरी दशा देखकर
मारी स्नेह धारा
उस गरमी से दहक उठा
मेरा शीतल तन
चलि*
उर में जो ठहर गई थी
मेरी धड़कन
पौं फटने में रहे
मात्र अब थोड़े ही पल
और अधिक बन गया भुवन
शीकर में शीतल
भोर भई
भानु भी भय से
भाग रहे भीरु बन
कड़क शीत में
कर-पिया से
माँग रहे स्नेह तन
भानु
पिया के आँचल में
छिप गया सिमटकर
हुआ कपिल रंग
था अब तक जो
भगवा दिनकर
स्नेह ताप से गर्म किया
दिनकर ने निज तन
उर में छाई धुंध
छँटी और बढ़ा सपन
ह्रदय धुंध हटते ही पिय का
स्नेह हटा निज उर से 
सम्भवतः छिप गया
ओट पाकर के
निज उर-सर से
व्याकुल हो पूछा तब मैंने
"उर-सर! कहाँ छिपा है
'पिय का ऋण'
जिससे ठंडा निज
तन-मन बहुत तपा है
आप बता दें तो मिल जाए
ढाँढस मेरे हिय को।
आज नहीं तो
कल उधार
लौटाना है पिय को।"
 आगे का स्वप्न कहीं लापता हो गया है। मिलते ही आपसे मिलवाने लाऊँगा।