'प्रतीक्षा' का हूँ मैं अभ्यस्त
दिवस बीता, दिनकर भी अस्त
पलक-प्रहरी थककर हैं चूर
आगमन हुआ नहीं मदमस्त.
बैठता हूँ भूखों के संग
बनाता हूँ याचक के भाव
मिले किञ्चित दर्शन उच्छिष्ट
प्रेम में होता नहीं चुनाव.
ईश, तेरा ही मुझमें अंश
अभावों का फिर भी है दंश
'जीव' की सुन लो आर्त पुकार
ठहर ना जाये उसका वंश.
यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
शुक्रवार, 8 जुलाई 2011
मन के छिपे भाव पहचानो
छात्र हमारे बड़े हो गये
साथ-साथ रह सकुचाते.
मिलने को गुरु की शाला में
एक साथ अब ना आते.
पूर्व दिशा में बिजली चमके
पश्चिम में बादल छाते.
वर्षा होती ठीक मध्य में
प्यासे दोनों रह जाते.
पूर्व दिशा की शुष्क शिला ने
भेदभाव पहचान लिया.
पश्चिम दिक् के सैकत-झरने
ने मरीचिका गान किया.
स्नेह कौन से स्वर में उनसे
ऋण-चुकता संवाद करे.
इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे.
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