शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

काव्य-चर्चा .............. मित्र से बातचीत

प्रिय जिज्ञासु मित्र विचारशून्य साधक दीप जी, 
मैं नहीं चाहता मेरी शृंगारिक शैली आपको क्षणिक हर्ष देकर आपके जीवन का अनमोल समय क्रय कर ले. फिर भी चाहता हूँ कि आप कभी काव्य-जगत में घूम कर तो देखें, जाने की इच्छा न कर पायेंगे. 
आप कहते हैं कि आपने कवितायी और अलंकारों की दीवारों के पार कभी नहीं झाँका. मैं आपको इन ऊँची दीवारों के पार लिये चलता हूँ. आपकी यह यात्रा सीढ़ी-दर-सीढ़ी होगी मतलब धीरे-धीरे.
इस दौरान मैं केवल उन काव्यशास्त्रीय आचार्यों की बात ही दोहराऊँगा जो स्थापित हैं. यदा-कदा मेरी स्थापनाओं की मौलिकता के दर्शन भी होंगे जिसका किसी कौने में उल्लेख भी करता चलूँगा.
तो आज से तैयार हैं ना आप? यह काव्य-पाठशाला काव्य-रसिकों के लिये भी खुली हुई है.  
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अभिमान से रति का जन्म होता है और जब रति व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट होती है 
तब उसे शृंगार रस कहते हैं. 


मित्र, पहले स्थायी भावों के बारे में जान लेते हैं...
— सुख के मनोकूल अनुभव का नाम ............... रति है.
— हर्ष आदि से मन का जो विकास होता है ............ हास है. 
— प्रिय के विनाश से मन की विकलता ............... शोक है. 
— किसी शोकातिशायी वस्तु के देखने से उत्पन्न चित्त विस्तार ............ विस्मय है. 
— किसी प्रतिकूल परिस्थिति में समुत्पन्न तीक्ष्णता ............ क्रोध है.
— ह्रदय में उत्पन्न पौरुष ............... उत्साह है. 
— किसी चित्र अथवा भयंकर दृश्य को देखने से चित्त की व्याकुलता ........ भय है. 
— गंदी वस्तुओं के निन्दात्मक भाव .............. जुगुप्सा हैं. 


— निर्वेद संचारीभाव का उल्लेख फिर कभी करेंगे. 
     साधु भावों  को सामाजिक भावों से पृथक रखना ही श्रेयस्कर है.