पहले से ही दिखी भवन में
आती अमा अरे! चुपचाप.
होली खेल रहा था छिपकर
तेल जला तम से दिव-ताप.
नत थे दोनों नयन नुकीले
बतलाओ थे कौन कलाप.
रज्जू बिना छूटे आहत कर
काजलमय हृत, करे विलाप
ला वह चाप कौन-सी है, यदि
कलाकार बनते हो आप.
[यह कविता 'ढाल' नामक चित्र काव्य का उदाहरण है. खोजिये, कैसे?]
यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
रविवार, 16 मई 2010
नयन-मर्यादा
ओ दूर-दूर रहने वाले! हमसे भी दो बातें कर लो.
इतना दूर नहीं रहते जो मिलने में भी मुश्किल हो.
मौन बहुत रहते हो, दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो.
कभी-कभी तो आते हैं, मिलते हैं. हमसे हँस बोलो.
जितना आते पास तिहारे उतना नयन झुकाते हो.
लज्जा है ये नहीं तुम्हारी, फिर भी तुम शरमाते हो.
बोल रही प्राची से नूतन, सब बातों से अवगत हो.
'मर्यादा में भी कहते हैं नयन किसी हद तक नत हों.'
इतना दूर नहीं रहते जो मिलने में भी मुश्किल हो.
मौन बहुत रहते हो, दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो.
कभी-कभी तो आते हैं, मिलते हैं. हमसे हँस बोलो.
जितना आते पास तिहारे उतना नयन झुकाते हो.
लज्जा है ये नहीं तुम्हारी, फिर भी तुम शरमाते हो.
बोल रही प्राची से नूतन, सब बातों से अवगत हो.
'मर्यादा में भी कहते हैं नयन किसी हद तक नत हों.'
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