सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

खोखली धारणा

जिसके अर्चन में दिवस रात
रहती थीं निज आँखें सनाथ
जिसके आँचल में बैठ मुझे
मिलता था ईहित प्यार-मात।

जिसके दर्शन से नयन धन्य
समझा करता खोले कपाट
जिसके चलने पर ऊंच-नीच
पथ को करता था मैं सपाट।

जिसके नर्तन पर कभी-कभी
कवि उर में आ जाता भुचाल*
कविता बेचारी इधर-उधर
मारी फिरती जिह्वा संभाल।

खोखली धारणा थी मेरी
कुछ ही पल का था प्रिय मिलाप
जब से मिलकर वे दूर हुए
आँखें करती रहतीं विलाप।
* भूचाल

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

ज्ञानोपनयन-3

आया बसंत पट हटा अरी
चख चहक रहे "अब करो बरी"
तुमने इनको कब कैद किया
– है पूछ रही ऋतुराज-परी.

क्यों दी इनको आजन्म कैद
पिंजर खोलो, उल्लास भरो.
त्राटक कर इनको रूप पुरा
देना, नूतन उपचार करो.

(स्वसा नूतन श्री को सादर समर्पित)

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

ज्ञानोपनयन-2

"ज्ञानोपनयन देना मुझको "
बोली – क्यों-क्यों-क्यों-क्यों-क्यों-क्यों.
"कुछ वस्तु  पुरातन देखन को "
बोला मैंने उससे जब यों.

वो मंद-मंद मुस्का बोली –
"मैं समझ गयी तेरी बोली
तुम गोल-मोल बातें करके
सूरत दिखलाते हो भोली".

"तुम नहीं समझ पाए मुझको
क्यों मांग रहा ज्ञानोपनयन
मैं संबंधों के बीच नव्य
करना चाहूँ सम्बन्ध चयन".

(प्रेरणा: स्वसा नूतन जी)

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

ज्ञानोपनयन-१

आर-पार दिखने वाले
पर्दों को मुझसे हटा अरी.
नयन-दीप जलते हैं पीछे
जल जावेंगे करो घरी.

मुझ नयनों के लिए एक
ज्ञानोपनयन* ला करके दो.
जिसे पहन हर वास्तु पुरातन
नूतन-सी दिखती बस हो.

(*ज्ञानोपनयन — चश्मा - ज्ञान का)
प्रेरणा — ऋतुराज परी