काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
गुजरी है मेरे भावों की
अरथी, हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज़ खेला है मेरी गेल.
प्रभो! अब क्या होगा कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.
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गेल = गैल
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गेल = गैल