प्रेषित की मुस्कान उन्हें तो वे भी थोड़ा मुस्काये।
मिलने को दो नयन-युगल धीरे-धीरे सम्मुख आये।
एक युगल आँखें निराश थीं और दूसरी झुकी हुईं।
आर-पार दिखने वाले परदों के पीछे छिपी हुईं।
प्रथम दो नयन हँसकर बोले सफल नहीं हम हो पाये।
गौरव किस पर करें किसलिए अब तुमसे मिलने आयें।
'अरे नहीं, ऐसा ना बोलो' मन ने था चुपचाप कहा -
'तुम हो सफल दृष्टि में मेरी, सफल हमारा नेह रहा।'
नयन दूसरे चुपके-चुपके देख रहे थे सकुचाये।
सोच रहे वे कौन करुण गाथा कवि के सम्मुख गायें।
मन भाये वे नयन, कल्पना ने मुझसे हो मौन कहा -
'इनको भी दो नेह इन्होंने शुष्क शिशिर का पौन सहा। '