रविवार, 11 दिसंबर 2011

छिद्र-प्रकाश

दिवस का होकर रहे प्रकाश 
नहीं किञ्चित मन हुआ निराश 
काश! अंतरतम में भी आ'य 
छींट-सा छोटा छिद्र-प्रकाश. 

द्वार कर लिये दिवा ने बंद 
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद 
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य 
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

'प्रशंसा' से प्रिय 'निंदक' राग
'दिवस' से गौर 'तमस' अनुराग 
'सुमन' कैसे पहचाना जा'य
विलग होकर 'स्व' पंक्ति पराग.

बंद हैं किसके लिये कपाट?
विचरते जो पथ देख सपाट?
आप भी तो आते हो ना'य  
बैठने, छिद्रों वाली खाट.

* ना'य .... नहीं