शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

काव्य-शिक्षा [आशु कविता – 6]


प्रायः किसी भी आशु कविता का शरीर प्रयोक्ता के बहुप्रयुक्त शब्दों से तैयार होता है। प्रयोक्ता 'कविता शरीर' गढ़ने के समय यह भी प्रयास करता है कि वह आकर्षक लगे। इसके लिए वह अपनी समस्त (अधिकतम) क्षमताओं का उपयोग करता है। आशुकविता का रचनाकार जिस भी मुख्य कार्यक्षेत्र से जुड़ा होता है, प्रयुक्त शब्दों के मुखों को देखकर पाठक/श्रोता अनुमान लगा लेते हैं कि उसका मुख्य व्यवसाय क्या है या क्या रहा होगा?

जानकारी के अभाव में कविता यदि शाब्दिक व आर्थिक अलंकारों से नहीं सज पाती तो उसका कोई तो गुण ऐसा हो जो उसे सहृदयों में वाहवाही दिलवाये। इसी कारण नवोदित रचनाकार का जैसा भी सौन्दर्यबोध होता है वह उसके अनुसार ही अपनी कृति को सज्जित करने का प्रयास करता है। शब्द अर्थ-सौन्दर्य की समझ जिस भी अनुपात में हो उसका प्रयोग आशु रचना गढ़ने में वह करता ही है। इसके अलावा यदि वह कोई अन्य ध्वनिगम* अथवा वक्रोक्तिगम माध्यम अपनाकर स्वकृति को पठनीय व श्रवणीय बनाता है तो वह भी स्वीकार्य है। [*शब्दों का ऐसा विन्यास हो उच्चारण के उतार-चढ़ाव से रचना को सरस बनाता हो।]

इस बार मेरी ही एक 'आशु रचना'कसौटी पर कसने को तैयार है।



"गुमसुम पाठी"

मैं 'हूँ'
इसे अनुभव करने के लिए / हर पल हर क्षण
इधर उधर भटकता हूँ
कभी ज़मीन देखता हूँ / तो कभी आकाश
चलते-फिरते शरीर देखता हूँ / तो कभी लाश
निर्माण और नाश की घटनाओं में
स्वयं को तलाशने की /
तलाशकरस्वयं को एक पहचान देने की
कोशिश में ही तो
मैं जगह-जगह भटक रहा हूँ।

मैं 'हूँ'
इसे जानने के लिए
कभी मैं उन पर ध्यान देता हूँ
जो मेरा उपयोग जान मेरे पास आते हैं
तो कभी उनपर /
जो मुझसे भयभीत हो मुझसे दूरी बनाते हैं।

मैं 'हूँ'
मैं कभी कुछ हूँ / तो कभी बहुत कुछ हूँ
मैं डूबते के लिए तिनका हूँ / तो कभी असहाय के हाथ की लाठी हूँ
दरअसल / 'मैं'
अभिव्यक्ति के विभिन्न मानवीय माध्यमों में पिछड़े
मूक निर्जीव वस्तुओं का गुमसुम पाठी हूँ।