मैं संयम में बैठा तम में
तुम मान किये बैठी भ्रम में
मैं आऊँगा लेने तुमको
तुम सोच रही होगी मन में.
है मान तुम्हारा क्षण-भंगुर
मेरे संयम से अब अंकुर
फूटे, यौवन मर्यादा के
उर नहीं मिलन को है आतुर.
घन कोपभवन तेरा अपना
जिसमें पी का देखा सपना
आवेगा लेने संभवतः
तुम मान किये बैठो अपना.
ये मान तुम्हें मरवा कर ही
छोड़ेगा, सुन लो लिपि-शरणा*!
पर नहीं ह्रदय अब टस-से-मस
मेरा होगा, सुन मसि-वरणा*!
[*शब्द संकेत : 'लिपि-शरणा' और 'मसि-वरणा' लेखनी के लिये किये गए संबोधन हैं.]