मत करो स्वयं को शुष्क शिला
मेरे नयनों से नयन मिला.
फट पड़े धरा देखूँ जब मैं
तुम हो क्या, तुमको दूँ पिघला.
संयम मर्यादा शील बला
तेरे नयनों में घुला मिला.
फिर भी चुनौति मेरी तुमको
मैं दूँगा तेरा ह्रदय हिला.
मैं कलाकार तुम स्वयं कला
तुम तोल वस्तु मैं स्वयं तुला.
तोलूँगा तुमको पलकों पर
चाहे छाती को रहो फुला.
'मंजुल मुख' मेघों में चपला
मैं आया तेरे पास चला.
मंजुले! खुले भवनों में क्यों
तुम भटक रहीं निज भवन भुला.
यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
सोमवार, 13 सितंबर 2010
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
हमने है ले लिया क्षणिक सुख
हमने है ले लिया क्षणिक सुख
देख आपको फिर प्रफुल्ल.
जब थे नयनों से दूर बहुत
यादें करती थीं खुल्ल-खुल्ल.
हम दुखी रहे यह सोच-सोच
तुम बैठ गये होकर निराश.
अथवा आते हो नहीं स्वयं
भयभीत कर रहा नेह पाश.
जैसे बदले हैं भवन कई
तुमने दो-दो दिन कर निवास.
वैसे ही क्या अब बदल रहे
चुपचाप छोड़ निज उर-निवास.
फिर भी लेते हैं ढूँढ नयन
तुमको, चाहे कर लो प्रवास.
होते उर में यदि भवन कई
तुम भवन बदलते वहीं, काश!
देख आपको फिर प्रफुल्ल.
जब थे नयनों से दूर बहुत
यादें करती थीं खुल्ल-खुल्ल.
हम दुखी रहे यह सोच-सोच
तुम बैठ गये होकर निराश.
अथवा आते हो नहीं स्वयं
भयभीत कर रहा नेह पाश.
जैसे बदले हैं भवन कई
तुमने दो-दो दिन कर निवास.
वैसे ही क्या अब बदल रहे
चुपचाप छोड़ निज उर-निवास.
फिर भी लेते हैं ढूँढ नयन
तुमको, चाहे कर लो प्रवास.
होते उर में यदि भवन कई
तुम भवन बदलते वहीं, काश!
शनिवार, 4 सितंबर 2010
प्रेमोन्माद
'राहत'
कैसे पाऊँ दुःख में
आँसू सूखे खेवक रूठे
नयनों की नैया डूब रही
पलकों के बीच भँवर में.
'आहत'
तस्वीरें रेंग रहीं
तन्वंगी आशाएँ बनकर
तम, छाया है या निशामयी
जीवन ठहरा है मन पर?
'चाहत'
की चमड़ी ह्रदय से
उतरी है तेरी यादों की
मन पर मांसज-सी चिपकन है
चमड़ी चढ़ती उन्मादों की.
[प्रेम में असफल हुए एक पागल-प्रेमी की मनोदशा का चित्र]
इसमें कुछ पंक्तियों में अनुप्रास का छठा भेद 'अन्त्यारम्भ अनुप्रास' है.
कैसे पाऊँ दुःख में
आँसू सूखे खेवक रूठे
नयनों की नैया डूब रही
पलकों के बीच भँवर में.
'आहत'
तस्वीरें रेंग रहीं
तन्वंगी आशाएँ बनकर
तम, छाया है या निशामयी
जीवन ठहरा है मन पर?
'चाहत'
की चमड़ी ह्रदय से
उतरी है तेरी यादों की
मन पर मांसज-सी चिपकन है
चमड़ी चढ़ती उन्मादों की.
[प्रेम में असफल हुए एक पागल-प्रेमी की मनोदशा का चित्र]
इसमें कुछ पंक्तियों में अनुप्रास का छठा भेद 'अन्त्यारम्भ अनुप्रास' है.
सोमवार, 30 अगस्त 2010
प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे
कैसे आता मैं मिलने को
सब मेरा रस्ता रोक रहे.
अपशकुन हुआ आते छींका
कुछ रुका, चला फिर टोक रहे.
मन मार चला बिन ध्यान दिए
ठोकर खाईं पाषाण सहे.
पर मिलना था स्वीकार नहीं
ईश्वर भी रस्ता रोक रहे.
पहले भेजा उद्दंड पवन
करते उपाय फिर नये-नये.
दिक् भ्रम करते कर अन्धकार
पहुँचा वापस वो सफल भये.
विधि के हाथों मैं हार गया
'दिन हुआ दूज' खग-शोर कहे.
फिर भी निराश था मन मेरा
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे."
*'रस्ता' शब्द का सही शब्द 'रास्ता' है. कविता में मुख सुविधा के लिये रस्ता शब्द लिखा है.
[अंतिम पंक्ति में अनुप्रास का छठा भेद 'अंत्यारंभ अनुप्रास' है. प्रचलित पाँच भेदों से अलग तरह का भेद जिसमें 'जिस वर्ण पर शब्द की समाप्ति होती है उसी वर्ण से अन्य शब्द का आरम्भ होता है.']
यह छठा भेद 'मेरी काव्य-क्रीड़ा' मात्र है. इसे आप लोग ही मान्यता देंगे.
सब मेरा रस्ता रोक रहे.
अपशकुन हुआ आते छींका
कुछ रुका, चला फिर टोक रहे.
मन मार चला बिन ध्यान दिए
ठोकर खाईं पाषाण सहे.
पर मिलना था स्वीकार नहीं
ईश्वर भी रस्ता रोक रहे.
पहले भेजा उद्दंड पवन
करते उपाय फिर नये-नये.
दिक् भ्रम करते कर अन्धकार
पहुँचा वापस वो सफल भये.
विधि के हाथों मैं हार गया
'दिन हुआ दूज' खग-शोर कहे.
फिर भी निराश था मन मेरा
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे."
*'रस्ता' शब्द का सही शब्द 'रास्ता' है. कविता में मुख सुविधा के लिये रस्ता शब्द लिखा है.
[अंतिम पंक्ति में अनुप्रास का छठा भेद 'अंत्यारंभ अनुप्रास' है. प्रचलित पाँच भेदों से अलग तरह का भेद जिसमें 'जिस वर्ण पर शब्द की समाप्ति होती है उसी वर्ण से अन्य शब्द का आरम्भ होता है.']
यह छठा भेद 'मेरी काव्य-क्रीड़ा' मात्र है. इसे आप लोग ही मान्यता देंगे.
सोमवार, 23 अगस्त 2010
पिकानद-व्यवस्था
[जब चारों तरफ पानी ही पानी भर गया हो, कई प्रान्तों में बाढ़ आ गयी हो, ऐसे समय में सौन्दर्य के दर्शन कहाँ करूँ.]
जब जानबूझकर बादल ने
बाधा ऋतुओं को पहुँचाई.
"ओ भैया, मेरे सुनना तो!"
ऋतुएँ सारी ये चिल्लायीं.
"पहले बरसा फिर घेर लिया
वसुधा पर पानी फेर दिया
सुध-बुद अपनी खोकर जल में
हमसे मनचाहे मेल किया."
"वर्षा तो इतनी चंचल है
पानी में ही घुस जाती है
वह हम सबको बिन घबराये
नित अपने पास बुलाती है."
"हम पाँचों ऋतुएँ घबरातीं
बस फिसलन से हैं डर जातीं
हेमंत शरद औ' शिशिराती*
सविता से ही नय्या पातीं."
'गरमी' के तन से स्वेद चला
बस अंत करो अपने डर का
ऋतु-राज 'पिकानद'-व्यवस्था*
टूटी तो रव होगा हर का.
शब्दार्थ :
'शिशिराती' — 'गरमी' ने 'शिशिर' को संबोधन में बोला शब्द.
'पिकानद'-व्यवस्था — ऋतुराज 'बसंत' की व्यवस्था
रव — हो-हल्ला, शोर-शराबा
[चिल्लाने के अतिरिक्त जो भी शिकायत भरे संवाद हैं 'गरमी' ने बोले हैं.]
जब जानबूझकर बादल ने
बाधा ऋतुओं को पहुँचाई.
"ओ भैया, मेरे सुनना तो!"
ऋतुएँ सारी ये चिल्लायीं.
"पहले बरसा फिर घेर लिया
वसुधा पर पानी फेर दिया
सुध-बुद अपनी खोकर जल में
हमसे मनचाहे मेल किया."
"वर्षा तो इतनी चंचल है
पानी में ही घुस जाती है
वह हम सबको बिन घबराये
नित अपने पास बुलाती है."
"हम पाँचों ऋतुएँ घबरातीं
बस फिसलन से हैं डर जातीं
हेमंत शरद औ' शिशिराती*
सविता से ही नय्या पातीं."
'गरमी' के तन से स्वेद चला
बस अंत करो अपने डर का
ऋतु-राज 'पिकानद'-व्यवस्था*
टूटी तो रव होगा हर का.
शब्दार्थ :
'शिशिराती' — 'गरमी' ने 'शिशिर' को संबोधन में बोला शब्द.
'पिकानद'-व्यवस्था — ऋतुराज 'बसंत' की व्यवस्था
रव — हो-हल्ला, शोर-शराबा
[चिल्लाने के अतिरिक्त जो भी शिकायत भरे संवाद हैं 'गरमी' ने बोले हैं.]
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
छायावाद
जब झिझक हो
संकोचवश —
कुछ कह न पाओ.
जब ह्रदय की
बात को
तुम जीभ पर
बिलकुल न लाओ.
जब ह्रदय में
कोई कर ले
घर
बिन पूछे बताये
और तुम
उसको छिपाओ.
सच्चाई कहते
जब लगे
डर
हर बात को
थोड़ा घुमाओ.
न भटको
सत्य से
पर सत्य का
आभास तुम
सबको कराओ.
पाओगे तब
हो गई
अनुकूल
जलवायु — छायावाद को.
संकोचवश —
कुछ कह न पाओ.
जब ह्रदय की
बात को
तुम जीभ पर
बिलकुल न लाओ.
जब ह्रदय में
कोई कर ले
घर
बिन पूछे बताये
और तुम
उसको छिपाओ.
सच्चाई कहते
जब लगे
डर
हर बात को
थोड़ा घुमाओ.
न भटको
सत्य से
पर सत्य का
आभास तुम
सबको कराओ.
पाओगे तब
हो गई
अनुकूल
जलवायु — छायावाद को.
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
"क्यू"
इन नयनों का इतिहास आपका सरल नहीं लगता दुरूह.
नर्तन विस्फारित नयन करें क्यूँ सम्मुख शिष्यों के समूह.
आँखों की भाषा सरल समझ आने वाला सौन्दर्य-व्यूह.
पर समझ नहीं पाता जल्दी उदगार आपके मैं दुरूह.
सुन कथन आपके मैं सोचूँ — "माँ सरस्वती में कौन रूह".
श्रद्धा के शब्दों की हृत में पूजा करने को लगी 'क्यू'.
[मैं हिंदी ओनर्स का विद्यार्थी कोलिज के दिनों में जब एक बार गलती से इतिहास की कक्षा में जा बैठा तो वहाँ
डॉ. पूजा जी हिस्टरी ओनर्स के स्टुडेंट्स की क्लास ले रहीं थीं. माध्यम इंग्लिश था. मेरे जो समझ आया मैंने वह कार्य करना शुरू किया. यह कविता इसी का नतीजा है.]
एक पुरानी रचना
नर्तन विस्फारित नयन करें क्यूँ सम्मुख शिष्यों के समूह.
आँखों की भाषा सरल समझ आने वाला सौन्दर्य-व्यूह.
पर समझ नहीं पाता जल्दी उदगार आपके मैं दुरूह.
सुन कथन आपके मैं सोचूँ — "माँ सरस्वती में कौन रूह".
श्रद्धा के शब्दों की हृत में पूजा करने को लगी 'क्यू'.
[मैं हिंदी ओनर्स का विद्यार्थी कोलिज के दिनों में जब एक बार गलती से इतिहास की कक्षा में जा बैठा तो वहाँ
डॉ. पूजा जी हिस्टरी ओनर्स के स्टुडेंट्स की क्लास ले रहीं थीं. माध्यम इंग्लिश था. मेरे जो समझ आया मैंने वह कार्य करना शुरू किया. यह कविता इसी का नतीजा है.]
एक पुरानी रचना
शनिवार, 14 अगस्त 2010
प्रेम-आगमन
संयम की प्रतिमा बन जाओ
जितनी चाहे जड़ता खाओ
आगमन हुवेगा जब उसका
भूलोगे अ आ इ ई ओ.
दृग फेर आप मुख पलटाओ
या निर्लज हो सम्मुख आओ
पहचान हुवेगी जब उससे
सूझेगा केवल वो ही वो.
मन की बातें न झलकाओ
पीड़ा को मन में ही गाओ
उदघाटित हो जाएगा जब
हँसेंगे सब हा-हा हो-हो.
जितनी चाहे जड़ता खाओ
आगमन हुवेगा जब उसका
भूलोगे अ आ इ ई ओ.
दृग फेर आप मुख पलटाओ
या निर्लज हो सम्मुख आओ
पहचान हुवेगी जब उससे
सूझेगा केवल वो ही वो.
मन की बातें न झलकाओ
पीड़ा को मन में ही गाओ
उदघाटित हो जाएगा जब
हँसेंगे सब हा-हा हो-हो.
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
मेरा कल्पना-पुत्र
इस कविता की गति अत्यंत धीमी है, इसे जल्दबाजी में ना पढ़ जाना, अन्याय होगा.
शून्य में मैं जा रहा हूँ
कल्पना को साथ लेकर.
भूलकर भी स्वप्न में
जिस ओर ना आये दिवाकर.
मैं करूँगा उस जगह
निज कल्पना से तन-प्रणय.
जिस नेह से उत्पन्न होगा
काव्य-रूपी निज तनय.
मैं समग्र भूषणों से
करूँगा सुत-देह भूषित
और उर को ही करूँगा
प्रिय औरस में मैं प्रेषित.
मात्र उसको ही मिलेगी
ह्रदय की विरह कहानी
और उस पर ही फलेगी
कंठ से निकली जवानी
रागनी की, व्यथित वाणी.
भूलकर भी मैं उसे
ना दूर दृष्टि से करूँगा.
सृष्टि से मैं दूर
काव्य की नयी सृष्टि रचूँगा.
[औरस — समान जाति की विवाहिता स्त्री से उत्पन्न (पुत्र)]
शून्य में मैं जा रहा हूँ
कल्पना को साथ लेकर.
भूलकर भी स्वप्न में
जिस ओर ना आये दिवाकर.
मैं करूँगा उस जगह
निज कल्पना से तन-प्रणय.
जिस नेह से उत्पन्न होगा
काव्य-रूपी निज तनय.
मैं समग्र भूषणों से
करूँगा सुत-देह भूषित
और उर को ही करूँगा
प्रिय औरस में मैं प्रेषित.
मात्र उसको ही मिलेगी
ह्रदय की विरह कहानी
और उस पर ही फलेगी
कंठ से निकली जवानी
रागनी की, व्यथित वाणी.
भूलकर भी मैं उसे
ना दूर दृष्टि से करूँगा.
सृष्टि से मैं दूर
काव्य की नयी सृष्टि रचूँगा.
[औरस — समान जाति की विवाहिता स्त्री से उत्पन्न (पुत्र)]
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
केश-विन्यास
चोरी-चोरी केशकार से
करवा लेती है विन्यास
केशों का, जो बिखर गये थे
आगे उसके मुख के पास.
पता चलाने पलक ओट से
देख रहे हैं मेरे दास
नयनों में जो छिपे हुए थे
लेकर करुणामय विश्वास.
मारुत-नापित ही सविता के
केशों का करता विन्यास
पता लगाया तब नयनों के
तारों ने, जब हुआ निराश.
[केशकार — केश संवारने वाला या वाली, नाई;
मारुत — वायु, हवा;
नापित — नाई, केश काटने-छाँटने-संवारने वाला;
सविता — सूर्य
विन्यास — सँवारना]
प्रसंग :
कवि एक समय प्राकृतिक छटा के सम्मुख बैठा विचारमग्न था कि सविता के सौन्दर्य का क्या रहस्य है? वह प्रातः और सांय क्यों इतनी सुन्दरता को प्राप्त हो जाती है? वह इन्हीं प्रश्नों के समाधान के लिये सुबह-शाम सविता को निहारता रहता. तब उसे दिन ज्ञात हुआ कि :
व्याख्या :
जब भी सविता मुख के पास उसके केश (घटाएँ) फैलकर उसके सौन्दर्य को छिपाते हैं तब-तब सविता केश सँवारने वाले नापित (मारुत) के पास अपने केशों के प्रसाधन हेतु जाया करती है.
इन बातों को जानकार कवि के दास (नयनों के तारक) अपना कर्तव्य समझकर पलक की ओट में कारुणिक मुद्रा में इस विश्वास से खड़े रहे कि अब सविता सौन्दर्य का रहस्य उदघाटित हो जाएगा. अंततः नयन तारक अपने अभियान में सफल हुए.
नयन-तारकों को पता गया कि मारुत-नापित ही सविता के केशों को संवारकर उसके सौदर्य में वृद्धि करता है. वही घटाओं को इधर-उधर करके प्रातः और संध्या को सविता-सौदर्य में प्रतिदिन भिन्नता लाता रहता है.
करवा लेती है विन्यास
केशों का, जो बिखर गये थे
आगे उसके मुख के पास.
पता चलाने पलक ओट से
देख रहे हैं मेरे दास
नयनों में जो छिपे हुए थे
लेकर करुणामय विश्वास.
मारुत-नापित ही सविता के
केशों का करता विन्यास
पता लगाया तब नयनों के
तारों ने, जब हुआ निराश.
[केशकार — केश संवारने वाला या वाली, नाई;
मारुत — वायु, हवा;
नापित — नाई, केश काटने-छाँटने-संवारने वाला;
सविता — सूर्य
विन्यास — सँवारना]
प्रसंग :
कवि एक समय प्राकृतिक छटा के सम्मुख बैठा विचारमग्न था कि सविता के सौन्दर्य का क्या रहस्य है? वह प्रातः और सांय क्यों इतनी सुन्दरता को प्राप्त हो जाती है? वह इन्हीं प्रश्नों के समाधान के लिये सुबह-शाम सविता को निहारता रहता. तब उसे दिन ज्ञात हुआ कि :
व्याख्या :
जब भी सविता मुख के पास उसके केश (घटाएँ) फैलकर उसके सौन्दर्य को छिपाते हैं तब-तब सविता केश सँवारने वाले नापित (मारुत) के पास अपने केशों के प्रसाधन हेतु जाया करती है.
इन बातों को जानकार कवि के दास (नयनों के तारक) अपना कर्तव्य समझकर पलक की ओट में कारुणिक मुद्रा में इस विश्वास से खड़े रहे कि अब सविता सौन्दर्य का रहस्य उदघाटित हो जाएगा. अंततः नयन तारक अपने अभियान में सफल हुए.
नयन-तारकों को पता गया कि मारुत-नापित ही सविता के केशों को संवारकर उसके सौदर्य में वृद्धि करता है. वही घटाओं को इधर-उधर करके प्रातः और संध्या को सविता-सौदर्य में प्रतिदिन भिन्नता लाता रहता है.
बुधवार, 11 अगस्त 2010
भानु-भामिनी
वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी.
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.
नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.
मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनाना चाहे तिया, कामिनी.
[ वियत — आकाश;
प्रतूलिका — गद्दा;
अभ्यागत — अतिथि;
भानु-भामिनी — सूर्य क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति;
यामिनी — रात्रि;
कंज — कमल;
कंदर्प — कामदेव;
अंध — गहन;
दर्पक — कामदेव, अभिमानी;
द्विज-दर्पण — चन्द्रमा रूपी दर्पण;
द्विज मतलब जिसका दो बार जन्म होता हो; अंडज प्राणी, पक्षी, सर्प; चन्द्रमा; ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो - ये सभी द्विज कहे जाते हैं.
तिया — स्त्री, पत्नी;
कामिनी — कामयुक्ता स्त्री ]
व्याख्या : आकाश में काले मेघों के गद्दे पर 'भानु' नायिका क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति लेटी हुई सोच रही है — "यदि 'रजनी' अप्सरा बिना सूचना दिए [अर्थात अतिथि बनकर] आयी तो मैं उससे प्रतिकार लूँगी. क्योंकि वह हमेशा वसुधा पर रहने वाले प्रेमियों के हृदयों पर कमल मुकुलित करती [हृदयों को उत्तेजित करती] हुई अपने 'कामदेव' नायक के साथ अंग-प्रदर्शन करती हुई गहन रात्रि में नृत्य करती है."
इस बात की प्रमाणिकता के लिये 'भानु' नायिका सोचती है — "यदि इसमें तथ्य है तो मैं चन्द्रमा रूपी दर्पण से कामदेव के साथ नाचने वाली उस लज्जाहीन रजनी [अप्सरा] को देखूँगी. मैं यह भी पता लगाऊँगी कि क्या वह रजनी [काम्युक्ता स्त्री] मेरे प्रियतम कवि की स्त्री होना तो नहीं चाहती?"
[ मेरी स्मृति में बसे रहने वाले प्रिय मित्र धर्मराज अमित शर्मा जी को समर्पित]
पर लेटी पिय भानु-भामिनी.
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.
नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.
मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनाना चाहे तिया, कामिनी.
[ वियत — आकाश;
प्रतूलिका — गद्दा;
अभ्यागत — अतिथि;
भानु-भामिनी — सूर्य क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति;
यामिनी — रात्रि;
कंज — कमल;
कंदर्प — कामदेव;
अंध — गहन;
दर्पक — कामदेव, अभिमानी;
द्विज-दर्पण — चन्द्रमा रूपी दर्पण;
द्विज मतलब जिसका दो बार जन्म होता हो; अंडज प्राणी, पक्षी, सर्प; चन्द्रमा; ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो - ये सभी द्विज कहे जाते हैं.
तिया — स्त्री, पत्नी;
कामिनी — कामयुक्ता स्त्री ]
व्याख्या : आकाश में काले मेघों के गद्दे पर 'भानु' नायिका क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति लेटी हुई सोच रही है — "यदि 'रजनी' अप्सरा बिना सूचना दिए [अर्थात अतिथि बनकर] आयी तो मैं उससे प्रतिकार लूँगी. क्योंकि वह हमेशा वसुधा पर रहने वाले प्रेमियों के हृदयों पर कमल मुकुलित करती [हृदयों को उत्तेजित करती] हुई अपने 'कामदेव' नायक के साथ अंग-प्रदर्शन करती हुई गहन रात्रि में नृत्य करती है."
इस बात की प्रमाणिकता के लिये 'भानु' नायिका सोचती है — "यदि इसमें तथ्य है तो मैं चन्द्रमा रूपी दर्पण से कामदेव के साथ नाचने वाली उस लज्जाहीन रजनी [अप्सरा] को देखूँगी. मैं यह भी पता लगाऊँगी कि क्या वह रजनी [काम्युक्ता स्त्री] मेरे प्रियतम कवि की स्त्री होना तो नहीं चाहती?"
[ मेरी स्मृति में बसे रहने वाले प्रिय मित्र धर्मराज अमित शर्मा जी को समर्पित]
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
साखी
मुझे तुमने माना है क्या?
बताना है तुमको अथवा
समझ जाऊँगा राखी पर
पिया या प्यारा-सा भैया.
आपका आँचल हरा-भरा
सदा लहराता है, पुरवा!
आपका यौवन छिपा-छिपा
हमीं पर करता है धावा.
अरी! जब आँचल हरा ज़रा
राह चलते पर छू जाता
आपका, नख से शिख तक का
हमारा गात काँप जाता.
बांधनी है तो बोलो री
हमारे हाथों पर राखी.
न देखो अब चोरी-चोरी
सभी शरमाते हैं साखी.
ये बोल एक वृक्ष मदमाती वायु से बोल रहा है जिसका आँचल हरियाली है.
[साखी — वृक्ष, यहाँ शाखाओं वाले को साखी कहा गया है]
जब तक अपरिचय रहता है तब तक सम्बन्ध निर्धारण नहीं होता. इसलिये मनोभावों के स्वच्छंद पक्ष को रखने का प्रयास करते भाव. आरोपण प्रकृति पर किया गया है.
बताना है तुमको अथवा
समझ जाऊँगा राखी पर
पिया या प्यारा-सा भैया.
आपका आँचल हरा-भरा
सदा लहराता है, पुरवा!
आपका यौवन छिपा-छिपा
हमीं पर करता है धावा.
अरी! जब आँचल हरा ज़रा
राह चलते पर छू जाता
आपका, नख से शिख तक का
हमारा गात काँप जाता.
बांधनी है तो बोलो री
हमारे हाथों पर राखी.
न देखो अब चोरी-चोरी
सभी शरमाते हैं साखी.
ये बोल एक वृक्ष मदमाती वायु से बोल रहा है जिसका आँचल हरियाली है.
[साखी — वृक्ष, यहाँ शाखाओं वाले को साखी कहा गया है]
जब तक अपरिचय रहता है तब तक सम्बन्ध निर्धारण नहीं होता. इसलिये मनोभावों के स्वच्छंद पक्ष को रखने का प्रयास करते भाव. आरोपण प्रकृति पर किया गया है.
रविवार, 8 अगस्त 2010
काव्य का खेल
काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
निकली है मेरे भावों की
अरथी हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज खेला है मेरी गेल
प्रभु, अब क्या होगा, कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
स्वागत नयी कल्पना का
होना चाहता है अब
इतस्ततः भटकने के बाद
ह्रदय का 'काम' — एकनिष्ठ.
इतराया घूमे था पहले
साधू संन्यासी बनकर
संयम हमारा — वरिष्ठ.
हुआ था सिद्ध
स्वयं की दृष्टि में भी
कुछ समय को वह — बलिष्ठ.
किन्तु, दोनों बाँह फैलाये
करता है स्वागत कौन?
नयी कल्पना का, होकर — उत्तिष्ठ.
इतस्ततः भटकने के बाद
ह्रदय का 'काम' — एकनिष्ठ.
इतराया घूमे था पहले
साधू संन्यासी बनकर
संयम हमारा — वरिष्ठ.
हुआ था सिद्ध
स्वयं की दृष्टि में भी
कुछ समय को वह — बलिष्ठ.
किन्तु, दोनों बाँह फैलाये
करता है स्वागत कौन?
नयी कल्पना का, होकर — उत्तिष्ठ.
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
मुस्कान
दौकल* अदभुत मुख-द्वार धवल
सारथी एक मुस्कान, श्रवन
तक खींच रहे द्वय-छोर-तुरग*
हँसि दिखी हटे जब दन्त-वसन*.
रथ रुका रहा बढ़ गया रथी*
रथपति* ने पायी वीर-गती*.
अरि-कथन* श्रवन में छिपा-छिपा
ललकार रहा हा-हहा-रथी!
[दौकल — कपड़े से ढका हुआ रथ.
रथपति — सारथी (मुस्कान से तात्पर्य)
अरि-कथन — वह शत्रु जो रथी (हँसी) को उत्तेजित (निःसृत) करने का कारण है.
द्वय-छोर-तुरग — मुस्कान के छोरों रूपी अश्व.
दन्त-वसन — अधर, रथ द्वार का पर्दा.]
{हँसि, गती में मात्रिक छेडछाड छंद के कारण से}
सारथी एक मुस्कान, श्रवन
तक खींच रहे द्वय-छोर-तुरग*
हँसि दिखी हटे जब दन्त-वसन*.
रथ रुका रहा बढ़ गया रथी*
रथपति* ने पायी वीर-गती*.
अरि-कथन* श्रवन में छिपा-छिपा
ललकार रहा हा-हहा-रथी!
[दौकल — कपड़े से ढका हुआ रथ.
रथपति — सारथी (मुस्कान से तात्पर्य)
अरि-कथन — वह शत्रु जो रथी (हँसी) को उत्तेजित (निःसृत) करने का कारण है.
द्वय-छोर-तुरग — मुस्कान के छोरों रूपी अश्व.
दन्त-वसन — अधर, रथ द्वार का पर्दा.]
{हँसि, गती में मात्रिक छेडछाड छंद के कारण से}
बुधवार, 4 अगस्त 2010
कूप-सी आँखें
लिखा उलटा दिखे सीधा चमकती आँख में म्हारी.
रहो विपरीत मुख फेरे न आओ पास में मेरे.
मुझे मुख दीखता फिर भी पियारा, पीठ में तेरे.
हमारी कूप-सी आँखें तुम्हारा बिम्ब पाकर के.
उसे सीधा किया करतीं तुम्ही से दूर रहकर के.
[प्रिय हरदीप सिंह राणा जी 'म्हारी' शब्द से याद आये.]
सोमवार, 2 अगस्त 2010
मुख अम्लान
श्याम लोचन विस्फारित लोल
मधुर लगते तेरे सब बोल
गीत गाते जो तुम चुपचाप
सुना करता कानों को खोल.
याद है मुझको पहली बार
छींट से देकर मैंने चार
किये थे अपने दोनों नयन
आपसे खुलवा चख के द्वार.
घने नभ में छाये थे मेघ
टपाटप बूँदों को मैं देख
रहा था, तेरा मुख अम्लान
तुरत चमकी चपला-सी रेख.
[गगन में मेघ घिरते हैं, किसी की याद घिरती है... ...अज्ञेय]
मधुर लगते तेरे सब बोल
गीत गाते जो तुम चुपचाप
सुना करता कानों को खोल.
याद है मुझको पहली बार
छींट से देकर मैंने चार
किये थे अपने दोनों नयन
आपसे खुलवा चख के द्वार.
घने नभ में छाये थे मेघ
टपाटप बूँदों को मैं देख
रहा था, तेरा मुख अम्लान
तुरत चमकी चपला-सी रेख.
[गगन में मेघ घिरते हैं, किसी की याद घिरती है... ...अज्ञेय]
रविवार, 1 अगस्त 2010
स्मृति-सोना
चोरी हुई
मेरे जीवन की
बीती यादें चली गईं.
पास मेरे अब फिर आयी हैं
छलने, यादें और नयी.
चोर वही
जिसको देनी थीं
सारी प्रिय यादें अपनी.
पर वह संयम न कर पायी.
यादें मेरी छीन ले गयी.
शोर नहीं
मैं कर पाया था
रो भी न पाया रोना.
मैंने वापस लिया उसे जो
छीना था स्मृति-सोना.
और कहीं
कैसे मैं दे दूँ?
यादों का अपना संग्रह.
नहीं चाहता मैं औरों के
गृह में कर दूँ तम-विग्रह.
भोर गई
संध्या हो आयी
पाने फिर स्मृति-सोना.
वह आयी मेरे पास बोल —
"भैया! मुझको दिखला दो ना!"
एक यही
बस कमज़ोरी है
जो कह देता है 'भैया!'
रुक न पाता हाथ मेरा
देते में, बनकर के भैया.
[स्मृति-सोना — सुखद मूल्यवान चमचमाती स्मृतियाँ]
मेरे जीवन की
बीती यादें चली गईं.
पास मेरे अब फिर आयी हैं
छलने, यादें और नयी.
चोर वही
जिसको देनी थीं
सारी प्रिय यादें अपनी.
पर वह संयम न कर पायी.
यादें मेरी छीन ले गयी.
शोर नहीं
मैं कर पाया था
रो भी न पाया रोना.
मैंने वापस लिया उसे जो
छीना था स्मृति-सोना.
और कहीं
कैसे मैं दे दूँ?
यादों का अपना संग्रह.
नहीं चाहता मैं औरों के
गृह में कर दूँ तम-विग्रह.
भोर गई
संध्या हो आयी
पाने फिर स्मृति-सोना.
वह आयी मेरे पास बोल —
"भैया! मुझको दिखला दो ना!"
एक यही
बस कमज़ोरी है
जो कह देता है 'भैया!'
रुक न पाता हाथ मेरा
देते में, बनकर के भैया.
[स्मृति-सोना — सुखद मूल्यवान चमचमाती स्मृतियाँ]
शनिवार, 31 जुलाई 2010
कवि और श्रोता
कवि की
निज कल्पना से
कर रहा यह कौन परिणय?
या सतीत्व भंग करती
स्वयं सती कल्पना मम?
छवि ही
निज वासना से
मगन है मदमत्तता में?
किवा विवशतावश पड़ी
बाहें अपरचित कंठ में?
भड़की
कवि की लेखनी
तब ईर्ष्या और क्रोध से.
पर शांत हो पूछा कवि ने
अये! अपरचित कौन हो?
***
"कवि! मैं
छवि का दास हूँ.
मैं श्रोत का प्रयास हूँ.
पर अय कवि!
क्यों कर बनी है कल्पना सुवासिनी^."
"क्या कल्पना-छवि देखना ही
बस हमारा काम है?
क्या कल्पना की क्रोड़ में
निषिद्ध निज आराम है?"
***
[*श्रोता का कवि को स्पष्टीकरण और उससे प्रश्न ]
[^सुवासिनी — पिता या पति के घर रहने वाली अक्षता नवयुवती/ सधवा स्त्री ]
निज कल्पना से
कर रहा यह कौन परिणय?
या सतीत्व भंग करती
स्वयं सती कल्पना मम?
छवि ही
निज वासना से
मगन है मदमत्तता में?
किवा विवशतावश पड़ी
बाहें अपरचित कंठ में?
भड़की
कवि की लेखनी
तब ईर्ष्या और क्रोध से.
पर शांत हो पूछा कवि ने
अये! अपरचित कौन हो?
***
"कवि! मैं
छवि का दास हूँ.
मैं श्रोत का प्रयास हूँ.
पर अय कवि!
क्यों कर बनी है कल्पना सुवासिनी^."
"क्या कल्पना-छवि देखना ही
बस हमारा काम है?
क्या कल्पना की क्रोड़ में
निषिद्ध निज आराम है?"
***
[*श्रोता का कवि को स्पष्टीकरण और उससे प्रश्न ]
[^सुवासिनी — पिता या पति के घर रहने वाली अक्षता नवयुवती/ सधवा स्त्री ]
बुधवार, 28 जुलाई 2010
कपोल-लली-२
खोलो अवगुंठन नहीं लली
तुम हो कपोल की कुंद कली.
लावण्य लूटने को मेरी
आँखें बन आती आज अली.
ओ रूप-पराग-गर्विते! सुन,
तुम अवगुंठन में बंद भली.
मत सोचो कभी निकलने का
बाहर बैठे निज नयन छली.
[कपोल-लली — लज्जा, अली — भ्रमर]
तुम हो कपोल की कुंद कली.
लावण्य लूटने को मेरी
आँखें बन आती आज अली.
ओ रूप-पराग-गर्विते! सुन,
तुम अवगुंठन में बंद भली.
मत सोचो कभी निकलने का
बाहर बैठे निज नयन छली.
[कपोल-लली — लज्जा, अली — भ्रमर]
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