शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

तुम नक़ल, वो है असल 'आह' : सस्वर पाठ


राजेन्द्र स्वर्णकार जी द्वारा स्वरबद्ध लयबद्ध
 




काक कंठ जब तक कोकिल कंठ नहीं सुन लेता ... इतराया घूमता है। पारस से स्पर्श पाकर लौह कण भी स्वर्णिम निखार पा जाते हैं। गीति के निकष पर उतरकर ही कोई साधारण गीत और कविता अपने सौंदर्य की प्रतीति करा पाते हैं।



ओ चन्द्रमा - सम प्रियतमा
कै से क रूँ - तुम को क्षमा
है क्या मिला - जीवन जला
तुम हो प र न्तु है अमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
मे रा प रा जि त प्रेम है
उस पर बिगड़ता क्षेम है
तुम व्यर्थ शीतलता धनी
तन राख से उड़ता धुँआ।
ओ चन्द्रमा ...
 
हूँ देखता तुमको निरंतर
नयन चल पाते कहाँ
है दैव को स्वीकार कैसा
तुम वहाँ और मैं यहाँ।
ओ चन्द्रमा ...
 
वे दिन पुराने याद आते
जागते जब थे निशा
होकर निशाचर घूमते
था जीव तुझसे ही थमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
ते रे द र्श न में मु झे
मिलती रही पिय बेपनाह
फिर भी कसक बाक़ी रही
तुम नक़ल, वो है असल 'आह'
ओ चन्द्रमा ...
 
 
 
जब भी निराशमना होकर मैंने उक्त कविता गुनगुनाते चन्द्र रात्रि का बहुत समय बिताया ... न जाने क्या औषधीय लेप लग गया अंतर्मन के विषाद पर। आज जब राजेन्द्र स्वर्णकार जी ने स्वतः प्रेरणा से इस गीत को अपना स्वर दिया तो पूर्व के विलंबित और अतिविलंबित स्वर सब लुप्त हो गए। यह उनका मेरे प्रति अनुराग है कि वे लौह को स्वर्ण बनाने के प्रयास में निरंतर रहते हैं।
 
हम किसी रचना का काव्यशास्त्रीय विधान चाहे कुछ भी कर लें लेकिन स्वर के मर्मज्ञ ही उसके साथ उचित न्याय कर पाते हैं।
 
मुझ से स्नेह रखने वाले पाठक एक बार फिर इस रचना को सुनते हुए पढ़ें। जो सुख मुझे मिला, चाहता हूँ आपको भी मिले।
 
* देव = देवता
दैव = भाग्य

 

4 टिप्‍पणियां:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मित्रो,
यदि सुनने में भी अब भी कोई व्यवधान आये तो आप इसे अपने सिस्टम में डाउनलोड करके भी सुन सकते हैं। इस बार गुरुजनों के सहयोग से ऐसा किया है। एक-दो बार की यथोचित प्रतिक्रियाओं को पाकर आगे से मुझे स्वयं से करने का आत्मविश्वास होगा।

सुज्ञ ने कहा…

समधुर!!

शुभकामनाएँ!!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

सुज्ञ जी, मैंने सोचा था इस स्वर का मात्र मैं ही श्रोता हूँ। लेकिन प्रतिक्रिया से लगा आपने भी इस सुख को ग्रहण किया।

अहा! अब इस अद्वितीय प्रसाद का वितरण यहाँ भी होने लगा है। मेरे आनंद की सीमा नहीं!!!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…



प्रतुल जी
आपके स्नेह को नमन !

उस रात को आपकी रचना पढ़ते और सुनते हुए अचानक धुन बन गई तो हाथोंहाथ मंद स्वरों में गा कर रिकॉर्डिंग की (तेज तो गा नहीं सकता था , कमरे में बच्चे और श्रीमती जी सब सोये हुए थे)
:)
दिन होता तो खुल कर गा लेता ...
आभार ! आपने इतना मान दिया ...

शुभकामनाओं सहित…