25 वर्ष पुराना मेरा पहला वैचारिक लेख।
मुझे अब इसमें कुछ
कमियाँ दिखायी देती हैं। क्या आपको भी?
पशुविहीन
संसार की
कल्पना बड़ी
विचित्र-सी
लगती है।
मानव जीवन
के सभ्य-असभ्य
दोनों रूपों
में पशुओं
की अपरिहार्यता
सर्वमान्य रही
है। मानवीय
सृष्टि के
आरंभ में राष्ट्रीय
प्रार्थना के वैदिक
मंत्रों में
पशुओं का
सम्मानपूर्वक उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद
में ‘दोग्ध्रीः
धेनुर्वोढ़ाSनड्वानाशुः’
कहकर वायु
ॠषि ने
मनुष्य मात्र
के लिए दुधारू
गउओं, भारवाहक
बैल व
बलशाली अश्वों
की कामना
की है।
साथ ही
‘ऊर्जं नो
धेहि द्विपदे
चतुष्पदे’ द्वारा
स्वयं के
भोजन करने
से पूर्व
उच्चरित किए जाने वाले
मंत्र में
पशुओं के
भोजन की
उपलब्धि की
भी प्रार्थना
की गई
है। अतः
पशुओं की
महत्ता आदि
ग्रंथ वेदों तक
ने स्वीकार
की है।
आदिमानव
भी सभ्य
तब हुआ
जब उसने
पशुओं को
अपने दैनिक
जीवन में
सम्मिलित किया।
पशुओं को
पाला, उनको
कृषि-उपयोगी
बनाया। उनका
दोहन किया,
उन्हें रक्षा-सुरक्षा
निमित्त युद्ध
आदि में
प्रयोग कर
अपनी सभ्यता
का विकास
किया। आसुरी
वृत्ति के
समुदायों ने
उनको भक्ष्य
मान उपभोग
किया। कृषक
ने पशुओं
के मल से
खाद बनायी
तो वैद्यक
ने मूत्र
से चिकित्सा की। मृत
पशुओं के अस्थि
चर्म का
प्रयोग करना
तो मनुष्य
को शुरू
से आता
है। वह हड्डियों
से हथियार,
खाल से
शरीर ढाँपने
के वस्त्र,
जूते आदि
अपनी आवश्यकतानुसार
बनाता रहा
है। अतीत
यदि पशु
विहीन होता
तो युद्ध
में तीव्रता न
होती। अश्व,
गज की
अनुपस्थिति से युद्धवीरों
की वीरता
द्वंद्व युद्ध
(कुश्ती) प्रतीत
होती।
यदि
हम पाश्चात्य
वैज्ञानिकों के
‘विकासवाद’ के
सिद्धांत’ पर
विश्वास करें। बंदर
से मनुष्य
बनने की
विकास-प्रक्रिया
स्वीकारें। तब
तो मानस
में उठे
इस ‘पशुविहीन
संसार’ के
खयाल से अमुक सिद्धांत
का वध
हुआ समझो।
यानी कि
मनुष्य बनने
की यात्रा का
आरंभ में
ही अंत।
अन्यथा विकासवाद
पर चिंतन
करते हुए किसी
अन्य पक्षी-कल्पना
का सिद्धांत
गढ़ा मिलता। बहुत
से पौराणिक
देवी-देवताओं
पर अपनी-अपनी
सवारी के
कई प्रकार
के पशु
हैं। वो
भी पशुविहीन
संसार की
कष्ट कल्पना
से छीन
लिए जाते।
यदि
संसार पशुविहीन
होता तो
साहित्य के
वे सभी
मुहावरे कोरी
बकवास हो
जाते जो
प्रायः हम
बोलचाल में
प्रयोग करा
करते हैं। यथा
– गधे
सा सीधा…,
गीदड़ भभकियाँ…,
धोबी का
कुत्ता…, शेर
के मुँह
में हाथ
डालना, भैंस
के आगे
बीन…, भेड़ियावसान
मचना, भाड़े
का टट्टू,
मेरी बिल्ली
मुझसे म्याऊँ,
बकरे की
माँ कब
तलक खैर
मनाएगी, खिसियानी
बिल्ली…, कुत्ते
की नींद
सोना आदि।
तब सिंहावलोकन
जैसे साहित्यिक
शब्द भी
निरर्थक जान
पड़ते। दुधारु
पशुओं का
विकल्प न
होता तो
बिना माँ
वाले दुधमुँहे बच्चे
पयपान कैसे
करते?
मनुष्य
की पाशविकता
ही जीवोत्पत्ति
का कारण
है। मनुष्य
की सात्विकता
में पाशविकता
का प्रवेश
होते ही
काम की
उत्पत्ति होती
है और
वह एक
सृष्टिपरक भाव
है। इसे
कविता में
कहने की
कोशिश करता
हूँ —
यदि
पशु न
होता ~
तो पशुता न होती ~
पशुता न होती तो हिंसा न होती ~
हिंसा न होती तो मन शांत होता ~
यदि मन शांत होता – क्या रति भाव होता ~
रति भाव से ही तो सृष्टि बनी है ~
रति भाव में भी तो पशुता छिपी है ~
है पशुता ही मनुष्य को मनुष्य बनाती ~
वरना मनुष्य देव की योनि पाता ~
अमैथुन कहाता, अहिंसक कहाता ~
तब सृष्टि की कल्पना भी न होती ~
संसार संसार होने न पाता ~
होता यहाँ पर भी शून्य केवल ~
अतः पशु से ही संसार संभव।
जैसे संसार की शोभा उसकी प्राकृतिक संपदा से है और उसमें भी प्रकृति की शोभा उसके जंगलों से है और जंगलों की शोभा उसमें निवास करने वाले जीवों से है, जीवों में भी पशुओं से है। वैसे ही मनुष्य की शोभा उसकी प्रकृति (व्यवहार) से है। उस प्रकृति की शोभा उसमें निहित सात्विक आचरण से है। उसमें भी पशुता (संतुलित हिंसा) उसे महिमामंडित करती है। सृष्टि को चलायमान रखने के लिए, मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए पशुता अनिवार्य है।
क्योंकि पशुता पशु की देन है इसलिए हमें पशु के प्रति कृतज्ञ भाव रखना होगा।
दश अवतारों पर मनन करते हुए विचार आया कि कहीं 'नरसिंह अवतार' की अभिकल्पना में आस्था प्रतीकों के चित्रकार ने मानव और पशु मेल द्वारा मनुष्यता में जरूरी पशुता की ओर इंगित तो नहीं किया???