शनिवार, 31 जुलाई 2010

कवि और श्रोता

कवि की
निज कल्पना से
कर रहा यह कौन परिणय?
या सतीत्व भंग करती
स्वयं सती कल्पना मम?

छवि ही
निज वासना से
मगन है मदमत्तता में?
किवा विवशतावश पड़ी
बाहें अपरचित कंठ में?

भड़की
कवि की लेखनी
तब ईर्ष्या और क्रोध से.
पर शांत हो पूछा कवि ने
अये! अपरचित कौन हो?

***
"कवि! मैं
छवि का दास हूँ.
मैं श्रोत का प्रयास हूँ.
पर अय कवि!
क्यों कर बनी है कल्पना सुवासिनी^."

"क्या कल्पना-छवि देखना ही
बस हमारा काम है?
क्या कल्पना की क्रोड़ में
निषिद्ध निज आराम है?"
***

[*श्रोता का कवि को स्पष्टीकरण और उससे प्रश्न  ]
[^सुवासिनी — पिता या पति के घर रहने वाली अक्षता नवयुवती/ सधवा स्त्री ]

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कपोल-लली-२

खोलो अवगुंठन नहीं लली
तुम हो कपोल की कुंद कली.
लावण्य लूटने को मेरी
आँखें बन आती आज अली.

ओ रूप-पराग-गर्विते! सुन,
तुम अवगुंठन में बंद भली.
मत सोचो कभी निकलने का
बाहर बैठे निज नयन छली.

[कपोल-लली — लज्जा, अली — भ्रमर]

बुधवार, 21 जुलाई 2010

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे
पढ़ सकूँ भाव मुख के तेरे.
चाहूँ देखूँ तुम को लेकिन
बैठा हूँ मैं मुख को फेरे.

अनुमान हाव-भावों का मैं
मुख फेर लगाता हूँ तेरे.
सौन्दर्य आपका है अनुपम
संयम को घेर रहा मेरे.

लेता है मेरा ध्यान खींच
बरबस लज्जा-लूतिका* जाल.
लगता है चूस रहा तेरा
रक्तपा*-रूप निज रक्त-खाल.

* [रक्तपा – जोंक, खून पीने वाली, डायन, पिशाचन; लूतिका – मकड़ी]

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दीप-सत्ता आयेगी

निश्चित निकलकर
कुछ समय के बाद मेरे कंठ से
निज चित्त की अतृप्तियों को
तृप्त कर पहनाएगी.
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.

भविष्य की प्रतीक्षा में
स्नात होते वाक्-पथ.
नेह-पुष्प-वाटिका में
रुक गए हैं काम-रथ.
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
दिक् दर्शिका के नाम से
दिखायेंगी आकाश को.
................... दीप-सत्ता आयेगी.

[*अमित जी! अर्थ नहीं बताउँगा, बताया तो अन-अर्थ हो जाएगा.
अनायास डॉ. अमर जी स्मृति भी हो आयी, मंगलवार जो है. उन्होंने मंगल का दिन चुना है काव्य-रस पान के लिये. ]

रविवार, 18 जुलाई 2010

अवगुंठित विभायें

क्यों छिपा रखा है घटाओं ने शशि को?
रोक क्यों रखा पहाड़ों ने हवा को?
क्यों दबा रखी हैं ह्रदय ने कल्पनाएँ?
......................... क्या प्यार है उनसे सभी को?

ओढ़ रखी क्यों धरा ने तन पर चादर?
पहन क्यों रखा निशा ने तिमिर-लहँगा?
डाल क्यों रखा नयन ने पलक-पर्दा?
......................... क्या लाज आती बिना उनके?

कंठ डाली है प्रभा ने अंशुमाला.
लाद सिन्धु ने रखा है पानी खारा.
समेट रखी फूलों ने सुगंध सारी.
......................... क्या गर्व होता निज गुणों पर?

भरा है मेरी भुजाओं में अमर बल.
मोड़ सकती कलम मेरी काव्यधारा.
यशस्वी होकर दिखा सकता अभी मैं.
......................... मैं प्रतिभा ना छिपाना चाहता.

आलोचना-प्रत्यालोचना

कलम-कुल में भी हुई कलह!


................सुधामय सुविचारों की लय
................हुई तो फ़ैल गई अतिशय
................गंध, मलयाचल से जैसे
................चली आई हो मारुत मौन.

................सभी को भली लगी लेकिन
................कुछों ने मुख टेड़ा कर लिया
................कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
................हमीं ने गंधी को भेजा.


[वैसे कलह मानसिक शान्ति को समाप्त कर देती है. लेकिन कलम परिवार की कलह से साहित्यिक-प्रेमी, काव्य-रसिक, बतरस-पायी सभी आह्लादित होते हैं. आलोचना का अपना एक सुख है, बस आलोचना तार्किक हो, किसी(लेखक) के विचारों में आलोचना ही वह माध्यम है जो पाठक को भी रचना में भागीदार बना सृजन का सुख देती है.]

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

तरल नयन*

सजल नयन मनहुँ सरित.
युगल पलक जनहुं पुलिन.
सजन सुमिरन नित बहित.
शिथिल तन पर मुख मलिन.
अधर हुलसत तन सिहर.
लटकत लट कमर तलक.
उर पर उग युगल कमल,
कस फिर-फिर निखिल वसन
सतत विकसित, मद शयन.
चकित पिय अवनत नयन.

[*तरल नयन — वह वर्णवृत जिसमें 4 नगण हों अर्थात 12  मात्राएँ हृस्व स्वर की हों.  प्रत्येक चरण में ऐसा हो. ]

सोमवार, 12 जुलाई 2010

उषा नयन-बाण

तारकों-सी तरुणियों के
प्रभावान हृदयों को
तुष्ट करने के लिये
उनके निशा-से पीड़कों को
दूर करने के लिये
अमर्ष-हास रूप धर
व नयनों की शिंजनी में
तनाव तनिक दे दिया
करते हुए विभीषिका
न चाहत की मारने की
निशा-सी व्यथाओं को
मृषा की पियाओं को
क्योंकि तारक-तरुणियों का
निशा-सी व्यथाओं में
अचल भान होता है.

तब भाग निशा प्राची से
छिप गयी प्रतीची में
पर, ताव अधिक देने से
खंडित हुयी रज्जु, चाप की.

शिंजनी की संधि का
प्रयास शुरू हो गया
किन्तु, हाय! व्यर्थ ही गया.

हा! अंततः ग्रंथि लगी
उषा-कमान-रज्जु में.
अब रोती उडु-तरुणियाँ
देख उषा नयनों को.

[अमर्ष-हास — क्रोध की हँसी; मृषा की पिया — मिथ्या की प्रेमिका]
[विशेष बात — इसमें कर्ता का अंत में उल्लेख आया है.]

शनिवार, 10 जुलाई 2010

तुम मान किये बैठो अपना

मैं संयम में बैठा तम में
तुम मान किये बैठी भ्रम में
मैं आऊँगा लेने तुमको
तुम सोच रही होगी मन में.

है मान तुम्हारा क्षण-भंगुर
मेरे संयम से अब अंकुर
फूटे, यौवन मर्यादा के
उर नहीं मिलन को है आतुर.

घन कोपभवन तेरा अपना
जिसमें पी का देखा सपना
आवेगा लेने संभवतः
तुम मान किये बैठो अपना.

ये मान तुम्हें मरवा कर ही
छोड़ेगा, सुन लो लिपि-शरणा*!
पर नहीं ह्रदय अब टस-से-मस
मेरा होगा, सुन मसि-वरणा*!

[*शब्द संकेत : 'लिपि-शरणा' और 'मसि-वरणा' लेखनी के लिये किये गए संबोधन हैं.]

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कंठ में बाँध रहा हूँ पाश

ह्रदय के कोमल भावों पर
लगाता हूँ फिर से प्रतिबंध.
कंठ में बाँध रहा हूँ पाश
कहीं न फैले नेह की गंध.

किया जब तक तेरा गुणगान
बढ़ाया तुमने मेरा मान.
उलाहना क्यों देते हो अब
किया करते हो क्यों अपमान?

आपसे भी सुन्दर गुणवान
किया करते मुझसे पहचान
दूर कैसे कर दूँ उनको
गाऊँ न क्यों उनका गुणगान?

आप ही न केवल बलवान
रूप, गुण-रत्नों की हो खान.
किया करता सबका सम्मान
सभी लगते मुझको भगवान्.

[ओ प्यारी! प्रेम को आपने समझा नहीं, सो अब मैं फिर से कोमलतम भावों पर प्रतिबंध लगाता हूँ और अपना समग्र माधुर्य कंठ के भीतर ही छिपा रखूँगा, वह भी एक फंदा लगाकर, जिससे उसकी गंध भी बाहर ना आये.]
[ओ प्यारी! जब तक मैं आपके साथ काव्य-सृजन में लगा रहा आप मुझे सम्मान देते रहे, (लेकिन अब यह क्या, मैंने बेड परि-इच्छाओं से नेह क्या किया, आपने मेरे चरित्र पर ही उँगली उठाना शुरू कर दिया, कभी घनानंद के एकनिष्ठ प्रेम की दुहाई देकर, तो कभी स्वयं को द्रोपदी और मेरे क्षणिक प्रेम को उलूपी/सुभद्रा के पार्थीय प्रेम समान अनुभूत कराकर उसे एक प्रकार-से वासनामयी ठहराया.)  आपका ये उलाहना मेरा अपमान ही तो है.] **
[सुनो प्यारी, इस साहित्य जगत में केवल आप ही गुनी नहीं हो, कई और भी है, जो मुझसे पहचान बढ़ाने को उतावले रहते हैं. उन सबको कैसे विस्मृत कर सकता हूँ. मैं उनका गुणगान, उनका बखान क्यों ना गाऊँ. (आपको जलन होती है तो जलो).] 
[प्यारी! आप गुनी हो, रूपवती हो, आप द्वारा सृजित विचार बहुमूल्य होते हैं. फिर भी मैं सभी लेखनियों का सम्मान करता हूँ और सभी में उस ईश्वरीय प्रेरणा का अंश मानता हूँ. इस कारण मुझे सभी ईश्वर लगते हैं.]

{** वैसे अमित जी ने कलम पक्ष से जो बातें रखीं वे कलम-कुल को जीवंत कर रही हैं. उन्होंने मेरी प्यारी की ओर से जो त्यागमयी भाषा बोली, वह प्रशंसनीय है. बाद में तो मसि-सहेली ने एकाकार होने की बात कहकर मन जीत लिया. लेकिन क्रोधवश बाद की बातों पर देर से ध्यान गया. सच हैं कि क्रोध में संतुलन बिगड़ जाता है. हे अमित जी, क्षमा चाहता हूँ, आपने कलम-पक्ष को तो सही से रखा लेकिन मेरा पक्ष बलहीन होकर खड़ा नहीं रह पाया. सो क्रोध को प्रभावी बना दिया. यह एक तरीका है अपनी कमजोरियों को छिपाने का.}

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कवि तो केवल शब्द-भिखारी

[मेरा प्रत्योत्तर]
अरी! रूठ मत मुझसे प्यारी.
भाव नहीं अपना व्यभिचारी.
तुझको ही हर कलम-वपु में
पाया मैंने है संचारी.

एक बेड* शिक्षा-व्यापारी
उनकी परि-इच्छाएँ** कुँवारी
उनके मोह जाल में मैंने
समय दिया था बारी-बारी.

लेकिन तेरी भय बीमारी
अविश्वास करती है भारी.
ह्रदय-वृक्ष के शब्द-फलों का
सार छिपाया सबसे प्यारी.

तुम मेरी स्थूल अर्चना
मैं तेरा हूँ शब्द-पुजारी.
यदा-कदा टंकण से भी मैं
तुझको पूजा करता प्यारी.

मसी-सहेली! अब तो तेरी
पूजा करते अमित-पुजारी.
कवि केवल लिपि-राह चलाता
वो ले जाते चिंतन गाड़ी.

कृष्ण और सुदामा में से
वरण करो ओ लिपि-कुमारी!
कवि तो केवल शब्द-भिखारी
तर्क-वितर्क के अमित-मदारी.

[ *बेड — BEd , **परि-इच्छाएँ — परीक्षाएँ ]

मसी-सहेली का उलाहना  -----------

एहो प्रियवर! रुष्ट हूँ तुम से जाओ
बितायी कहाँ इतनी घड़ियाँ बतलाओ
निज पाणी-पल्लव की द्रोण-पुटिका में भरकर
उर-तरु के मधुर फल का सार किसे पिलाया

मैं वधु-नवेली मिलन आस में सिकुड़ी सकुचाई
भय मन में क्या उनको नगरवधू कोई भायी
भय शमन करो आस पूर्ण करो करो त्रास निर्वाण
कवि आलिंगन मसि का करो हो अमित निर्माण
[अमित जी द्वारा रचित इस कलम-उलाहने के कारण
प्रतिक्रिया भी पाणि-पल्लवों के थिरकन का परिणाम है.]

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मसी-सहेली !

अरी!
अकेली देख तुम्हें
पाणि-पल्लव हिलने लगते.
उर-तरु से शब्दों के फल
आ-आकर के गिरने लगते.

वधु-नवेली बनकर मेरे
पास आप आती सकुचा.
पहले भय, लज्जा फिर मुख पर
मिलन-भाव सकुचा पहुँचा.

मसी-सहेली!
प्रेम किया करता है कवि तुमसे इतना.
नहीं एक पल रह सकता
तेरा आलिंगन किये बिना.

शनिवार, 29 मई 2010

ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन — जिस पर बहस ज़ारी है....

वैचारिक पक्वता लिये मनोविश्लेषक दिव्या जी के विचारों ने लज्जा पर फिर से सोचने को बाध्य किया :

"मेरा पूर्ण विश्वास है कि लज्जा नारी का सौन्दर्य है किन्तु यह उसकी सुरक्षा नहीं है. एक स्त्री का रक्षात्मक कवच उसकी बुद्धिमत्ता तथा सजगता है जो कि शिक्षा, लालन-पालन एवं सचेतना से परिपूर्ण होता है.

आनंदानुभूति के लिये स्त्री को किसी प्रकार के "अलंकरण" की आवश्यकता नहीं होती है. पुरुष द्वारा, स्त्री को मूर्ख बनाए जाने की परम्परा सदियों से जारी है. चाटुकारिता, अनुशंसा, प्रशंसा आदि के द्वारा पुरुष नारी को मानसिक तौर पर कमज़ोर बनाकर उसे अपनी ओर करने का प्रयास करता रहता है. और यह विरले ही देखने में आता है कि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग पुरुष को पहचानने में करे.

उसका लज्जा रूपी कवच ही उसका शत्रु बन जाता है. ऐसे में केवल उसकी बुद्धिमत्ता ही उसे भावावेग से दूर रखते हुए उसकी सुरक्षा कर सकती है.

"बुद्धि" एक सचेत एवं समझदार स्त्री का सर्वोपरि गुण है जो जीवन को हर परिस्थिति में उसकी सुरक्षा करता है. उसे जीवनयापन हेतु किसी प्रकार के अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती है.

उसे अपनी स्थिति का आभास होना आवश्यक है. स्त्री को शिक्षा, ज्ञान तथा सजगता, सचेतता का अर्जन अवश्य ही करना चाहिए. उसे अपने साथ पर गर्व होना चाहिए, उसे स्वयं की प्रशंसा करनी चाहिए उसे स्वयं से प्रेम होना चाहिए. जब कोई स्वयं से प्रेम करता है तो उसे किसी अलंकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती है.

वैसे भी कहा जाता है "सुन्दरता निहारने वाले की दृष्टि में होती है" केवल धीर-गंभीर व सभ्य पुरुष ही नारी में "लज्जा" का भाव उत्पन्न कर सकता है. क्योंकि नारी में नारीत्व जागृत करने की क्षमता केवल एक परिपूर्ण पुरुष [पुरुषत्व से परिपूर्ण] में ही होती है. पुरुष, नारी से सदैव समर्पण चाहता है जो कि उसमें [नारी के प्रति] अन्मंस्यकता का भाव जागृत करता है अथवा ये उसके क्रोध का कारण बन जाता है और वह [नारी] इनकार कर देती है. किन्तु इसके विपरीत प्रेम और परवाह करने वाला [loving and caring] पुरुष नारी को प्रेम की अनुभूति देता है जो नारी को स्वयं समर्पण के लिये उत्प्रेरित करता है, जिसमें समाहित होता है पुरुष के प्रति पूर्ण अटूट विश्वास.

 "survival of the fittest " वही है जिसके पास बुद्धि है और जो सजग है. अतः मात्र "बुद्धिमत्ता" ही मनुष्य का "कवच" है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष".
— ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन.

[इसे पढ़कर मैंने सोचा एक बार फिर इस विषय पर बहस जारी हो और स्वयं स्त्रियाँ इस विषय पर अपने दिमागी कवच से "लज्जा" सम्बन्धी विचारों को रूप दें. ध्यान रहे भाषा संयत हो, थोड़े में अधिक कहने की चेष्टा हो.]

शुक्रवार, 28 मई 2010

कब तलक रहें हम मौन कहो

कब तलक रहें हम मौन कहो.
कुछ ना कह पाने की पीड़ा.
इच्छा मन में करती क्रीड़ा.
हो आर्तनाद बिन आहट  हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

है कौन प्रेम की परिभाषा.
बिन शब्द व्यक्त होती भाषा.
परिचय ही क्या कुछ शब्द ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

हो आप कोई भाषा-भाषी.
मुझ पर शब्दों की कुछ राशी.
क्या बात करें जब समझ ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


कविता जिव्हा पर आ मेरे.
मैं विवश हुआ सम्मुख तेरे
जब भी मुख पर कुछ रौनक हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


[अलंकार : 'तेरे' शब्देक अलंकार, जिसे कभी 'दहली दीपक अलंकार' के रूप में जाना जाता था. 'दहली मतलब दहलीज पर रखा दीपक जो अंदर भी प्रकाश करे और बाहर भी उजेला करे. .......और विस्तार बाद में कभी]


"रौनक" : लज्जा से निहतार्थ

गुरुवार, 27 मई 2010

लज्जा के नीड़ में चपलता का बसेरा

अब टिकते नहीं फिसलते हैं
मुख पर जाकर मेरे दो दृग.
पहले रहती थी नीड़ बना
लज्जा, अब रहते चंचल मृग.

चुपचाप चहकती थी लज्जा
बाहर होती थी चहल-पहल. 
चख चख चख चख देखा करते
कोणों को करके अदल-बदल.

अब नहीं रही वैसी सज्जा
औ' रही न वैसी ही लाली.
बस उछल-उछल घूमा करते
मृग इधर-उधर खाली-खाली.

[जब से लज्जा के आवास में चपलता ने डेरा जमाया है लज्जा चहकना भूल गयी है और इस चपलता को नारी की जागृति समझा जा रहा है, बौद्धिकता माना जा रहा है, सहमती और समर्पण में अंतर कर उसे उसके दिव्य गुणों से पृथक करने का प्रयास हो रहा है. 'सहमती' में नारी की गरिमा को और उसके 'समर्पण' में पुरुष के वाक्-जाल को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है.]

बुधवार, 26 मई 2010

ये लज्जा तो केवल संयम

बोलूँ ना बोलूँ ......सोच रही.
बोलूँगी क्या फिर सोच रही.
मन में बातें ...करने की है
इच्छा, लज्जा पर रोक रही.


कुछ है मन में थोड़ा-सा भय.
संकोच शील में होता लय.
पलकों के भीतर छिपे नयन
मन में संबोधन का संशय.


"प्रिय, नहीं आप मेरे प्रियतम
मन में मेरे अब भी है भ्रम
प्रिय हो लेकिन तुम 'प्रिये' नहीं
ये लज्जा तो केवल संयम."


"क्या संयम पर विश्वास करूँ?
या व्यर्थ मान लूँ इसको मैं?
आनंद मिलेगा अंत समय?
क्या संयम देगा लम्बी वय?"

मंगलवार, 25 मई 2010

नर की लज्जा बदरंग गाय

लज्जा नारी का नहीं कवच
लज्जा तो आभूषण कहाय.
लज्जा स्वाभाविक भाव नहीं
लज्जा तो पहनी ओढ़ी जाय.

लज्जा नारी का मूलतत्त्व
फिर भी गुण आभूषण कहाय.
मैंने लज्जा को कवच कहा
मेरी लज्जा अब मुँह छिपाय.

नारी की लज्जा आभूषण
नर की लज्जा बदरंग गाय.
जो दूध बहुत देती फिर भी
मारी पीटी दुत्कारी जाय.

[छंद ज्ञान के समर्थक "ओढ़ी" और "दुत्कारी शब्दों में एक-एक मात्रा घटाकर भी लिख-पढ़ सकते हैं]

शनिवार, 22 मई 2010

कवच [एक चित्र काव्य]

नयन चार करना नवीनता
ही क्षणिक पहला पागलप
हीं मिलन को आती तन्वी
रेतीला होता मेरा म
मेरे आकर पास कल्पना
र देती है मुझको काय
सुरबाला को देखूँ अपल
त्कंठित रहता है अंत
कोस रहा है कब से सच्चा
ख से शिख तक तुमको निज म
गी को आकर कौन बुझा
मिलन को उत्सुक मेरे नयन.

शब्दार्थ :
तन्वी मतलब कृशकाय किशोरी, दुबली-पतली बाला.

पिछली बार 'ढाल' नामक कविता चित्र काव्य के रूप में दी थी लेकिन किसी ने उसमें चमत्कार ढूँढने में रुचि नहीं दिखायी, कहीं इस 'कवच' का भी वही हाल ना हो. इसलिये कुछ संकेत किये देता हूँ.
दो वाक्य कविता को चारों ओर से घेरे हुए है.
एक वाक्य 'नयन चार करना नवीनता' बायें से दायें है और वही नीचे से ऊपर भी बनता हुआ दिखाई देगा.
दूसरा वाक्य 'मिलन को उत्सुक मेरे नयन' न केवल अंत में आया है बल्कि वही वाक्य नीचे से ऊपर जाता हुआ [सभी वाक्यों के अंत में] प्रतीत होगा.
मैं इस बात से अवगत हूँ कि इन काव्य खेल-तमाशों के प्रति रुचि काफी घट चुकी है. फिर भी मुझे जो आता है मैं तो वही खेल दिखा सकता हूँ. ]
अगली कविता अकल्पित छवि 'दिव्या जी' पर

शुक्रवार, 21 मई 2010

लज्जा : नारी का अभेद्य कवच

यदि लज्जा ही निर्लज्ज होकर
घूमेगी घर के आँगन में.
तो स्वयं नयन की मर्यादा
भागेगी छिपने कानन में.

यदि लज्जा ही मुख चूमन को
लिपटेगी अपनी काया से.
तो कैसे आकर्षित होंगे 'चख'
ह्री की श्रीयुत माया से.

यदि लज्जा ही अवगुंठन की
आलोचक बन जाए भारी.
तो कौन कवच ऐसा होगा
होगी जिसमें निर्भय नारी.

[श्री देव कुमार झा के लेख से प्रेरित]

बुधवार, 19 मई 2010

विरह उदगार

मित्र विनय ने संपर्क कर ही लिया. २० मिनट बात हुयी. हम परस्पर वर्ष में एक या दो बार ही मिलने वाले मित्र थे. लेकिन जब सात वर्ष से अधिक हो गए तो रहा ना गया. सो स्वभाव के विपरीत धमकी देकर देखा. और वह कारगर हुआ. मतलब मित्रों को समय-समय पर धमकियाते रहना चाहिए. अब मैं उनपर लिखी दर्जनों कविताओं को उदघाटित नहीं करूँगा केवल एक को छोड़कर, नहीं तो सभी समझेंगे कि काव्य-पिटारा खाली था वैसे ही बहकाया. तो लीजिये मित्र विनय के "विरह उदगार"


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विनय, अर्चन, या..चना व्यर्थ
कलम, सृजन, सो..चना व्यर्थ
नुपुर, नर्तन, showभना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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कथन पिय का, घू..मना व्यर्थ 
मिलन उनका, झू..लना व्यर्थ
सुमन चुनना, चू..मना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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नयन, पलकें झप..कना व्यर्थ
रुदन, आँसू टप..कना व्यर्थ
भवन उनके पहुँ..चना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
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दिया उनको जो उनके अर्थ
लिखा उसपर जो, क्या था अर्थ
अभी तक है मुझको वो याद,
हमारे बीच रही जो शर्त.
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शिखर पर तुम हो मैं हूँ गर्त
विनय करता पर मिला अनर्थ
याद कर-कर तेरी हो गया
विरह में मैं आधे से अर्ध.
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मिलन कुछ पल का विरह अपार
यही मुझको देता है मार.
बिना उनके निज नयन अनाथ
बची दो ही आँखें हो चार.
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कपट करना उनका व्यापार
लिपट जाना उनका उदगार
मरण तो अब जीवन के लिये
जरूरी सा बन गया विचार.
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[काव्य थेरपी से साभार]
प्रेम औषधि से उपचार करना वहाँ मना है इसलिये दर्शन प्राशन दवाखाने पर आया हूँ.