सुनो जाने से पहले पौन!
हमें अब देगा श्वासें कौन?
आप यदि जावोगे इस तरह
करेगा हमसे बातें कौन?
याद है मुझको पहली बार
आपने सहलाये थे केश
घटा के, जो आई थी पास
पहनकर शिष्या की गणवेश.
बना हैं नहीं कभी भी चित्र
पौन, निर्गुण हो या तम, इत्र.
धूलि ने पा तेरा आभास
बनाया है सांकेतिक चित्र.
कहा तुमने मुझसे इक बार
कमी तुममें केवल है प्यार
किया करते हो प्राची से,
नव्य का ना करते विस्तार.
अश्रु पलकों पर हैं तैयार
विदा देने से पहले भार
डालते हैं वे नयनों पर
व्यथित मेरे सारे उदगार.
शोध करने वाली ओ पौन!
विदा देते हैं तुमको मौन!
मिलेंगे ना जाने फिर कहाँ?
बिछड़कर मिल पाया है कौन?
उपर्युक्त भाव उस 'सुखद बयार' को संबोधन हैं जो मुझसे विदा लेकर जाने कहाँ चली गयी.
24 टिप्पणियां:
कांग्रेसी नेता इस बात का जी तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं कि किसी प्रकार से सत्ताधारी परिवार (दल नही परिवार) की छवि गरीबों के हितैषी के रूप मे सामने आए, इसके लिए वो छल छद्म प्रपंच इत्यादि का सहारा लेने से भी नही चूकते। इसकी जोरदार मिसाल आपको नीचे के चित्र मे मिल जाएगी
http://bharathindu.blogspot.com/2011/03/blog-post.html?showComment=1299158600183#c7631304491230129372
अश्रु पलकों पर हैं तैयार
विदा देने से पहले भार
डालते हैं वे नयनों पर
व्यथित मेरे सारे उदगार.
शोध करने वाली ओ पौन!
विदा देते हैं तुमको मौन!
मिलेंगे ना जाने फिर कहाँ?
बिछड़कर मिल पाया है कौन?
सर जी.....ये पंक्तियां बेहद पसंद आई।
एक प्यारी सी कविता के लिए आपका आभार।
चाहें तो मिल ही जाते हैं, बिछड़ने वाले भी.
ईश्वर ही एक ऐसें हैं जो कभी नहीं बिछड़ते. हाँ हम उसे हजार बार भुला सकतें हैं, लेकिन ईश्वर हमें कभी नहीं भूलतें.
अश्रु पलकों पर हैं तैयार
विदा देने से पहले भार
डालते हैं वे नयनों पर
व्यथित मेरे सारे उदगार.
मन के संवेदनशील भाव ..... बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ हैं.....
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जो आकर चली जाए , वो बयार होती है ,
जो टिकी रह जाए वो नासूर होती है ।
इश्वर का कुछ विधान ही ऐसा है की उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता है । आना और जाना दोनों ही विधि का विधान हैं। किसी विशेष प्रयोजन से इश्वर किसी बयार को भेजता है और दायित्व समाप्त हो जाने के बाद बयार का चले जाना ही श्रेयस्कर होता है ।
वैसे एक प्राविधान भी किया है इश्वर ने - दृढ इच्छाशक्ति यदि है किसी के पास , तो उस सुखद बयार के साथ आजीवन रहा भी जा सकता है । 'वीर भोग्या वसुंधरा '..वर्ना बयार को आकर गुज़रते देर नहीं लगती ।
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आपसे कुछ ज्यादा ना कहूँगा पर इतना फिर भी कहूँगा .............
अपने प्रवाह को ना रुकने दीजिये दर्शन प्राशन के उद्देश्य शायद कहीं व्यक्तिगत वेदना में विलीन हो रहें है .................. आप सैनिक है हिंद और हिंदी के, और सैनिक व्यक्तिगत कारणों से करणीय को विस्मृत नहीं कर सकता ...............
ना कहीं हिंद और ना दिखती कहीं हिंदी
बस कहीं दिखती है तो यादों कि चिंदी
suprabhat guruji,
kaise rachte hain itne komal padya?
pranam.
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भारत जी,
आपका ब्लॉग वास्तव में एक श्रेष्ठ स्थल है जहाँ से प्रेरित होने के साथ-साथ अपने विचार भी रखे जा सकते हैं. आपके ब्लॉग पर जो टिप्पणी की वह फिर से उद्धृत किये दे रहा हूँ :
कमाल की तस्वीर है. इसे ही कहते हैं फोटो पत्रकारिता. इसे देखकर कुछ कहावत और मुहावरे याद आये :
— ढोल की पोल.
— हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और
— रंगा सियार.
— कौआ चला हंस की चाल..या
— मोरपंख लगाकर कोई कौवा मोर नहीं हो जाता.
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विरेन्द्र जी,
पूरी कविता में यही दो पद हैं जिनका पाठक सरलता से सामान्यीकरण कर समझ सकते हैं.
बाक़ी पदों के साथ जब तक पूरा प्रकरण ना दिया जाये अलग-अलग अर्थ ही लगते रहेंगे - यह जानता हूँ.
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राहुल जी,
जो भी मुझसे विदा ले गया, लौट नहीं वह आया.
शायद मेरी चाह क्षीण हो, दुबली उसकी काया.
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हे बेनामी!
आपने इसी रूप में आकर मुझे पिछली पोस्ट पर रोज़गार के कई रास्ते सुझाए थे. आभारी हूँ.
मिलने की क्षीण आशा बंधी है एक जगह. कल साक्षात्कार के लिये जाऊँगा.
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डॉ. मोनिका जी,
हृदय-स्पर्शी तो ये मेरे भी हैं मैं इन्हें गुनगुनाकर हृत-वेदना का मोचन करता हूँ.
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डॉ. दिव्या जी,
आपने अपने काव्य-उक्ति से एक सूत्र निर्मित कर दिया.
"जो आकर चली जाए वो बयार होती है, जो टिकी रह जाए वो नासूर होती है।"
विद्वानों की कुछ बातें याद हो आयीं : 'ठहरा हुआ जल सड़ जाता है. निर्मल वही जल होता है जो बहता रहे, आता-जाता रहे.'
लेकिन जो आकर गयी उस 'बयार' की पुनरावृति जब एक लंबा अंतराल ले लेती है तब उसकी सुखद स्मृति प्रतीक्षा के कारण पीड़ा पहुँचाने लगती है.
बयार को यदि बलात रोक लूँ तो यह अनाचार होगा. उसे रोकने में मुझे असामान्य आचरण भी करना पड़ सकता है. यथा- झूठी खुशामद, औपचारिक व्यवहार, कृत्रिम हँसी.
भावुक और कोमल अनुभूति के क्षणों में अपनी इच्छा की तनी प्रत्यंचा खोल देना बेहतर समझता हूँ.
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अपने प्रवाह को ना रुकने दीजिये दर्शन प्राशन के उद्देश्य शायद कहीं व्यक्तिगत वेदना में विलीन हो रहें है .......
@ प्रिय अमित जी, उद्देश्यों को किसी भी प्रकार की वेदना में भटकने नहीं दूँगा. चाहे वह राष्ट्रीय वेदना हो अथवा समाज में व्याप्त विसंगतियों से उपजी वेदना हो. चाहे वह निजी वेदना हो.
थोड़ा-बहुत असर अवश्य दिखेगा. वह भी इसलिये कि मैं अपने भावों और मन की दशा से न्याय करता हूँ. यदि मेरा मन भी बनावटी हँसी हँसने लगा तो छिपी वेदना सुसुप्त ज्वालामुखी बनकर मेरा ही नाश कर देगी.
...
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आप सैनिक है हिंद और हिंदी के, और सैनिक व्यक्तिगत कारणों से करणीय को विस्मृत नहीं कर सकता .......
@ मैं अपने व्यक्तिगत कारणों को कभी राष्ट्रीय कर्तव्यों के आड़े नहीं आने दूँगा. विश्वास करें.
आप मेरे स्वर का तापमान बताकर इस बेमौसम पड़ रही सर्दी में गरमाहट ला सकते हैं.
इस तरह ब्लॉग का उद्देश्य भी लौट आयेगा.
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ना कहीं हिंद और ना दिखती कहीं हिंदी
बस कहीं दिखती है तो यादों कि चिंदी.
@ .... सत्य वचन.
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कैसे रचते हैं इतने कोमल पद्य?
@ सञ्जय जी, जब स्मृतियाँ एक-एक करके बड़ी संख्या में एकत्र हो जाती हैं. तब मैं उनसे लगातार मिलने वाले तनाव की काव्य-चिकित्सा करता हूँ.
और रात्रि एकांत भ्रमण के समय भाव-रेचन के साथ-साथ इसका सेवन भी करता हूँ.
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Respected sir
actually , i am not a benaami blogger
Please don't get confuse with any benaami comment because i will not comment as benaami in future.
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best of luck
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ओशो सिद्धार्थ कहते हैं-
बीते का जिसको शोक नहीं,
जो वर्तमान में जीता है।
वह पा लेता अपनी मंज़िल,
उसका जीवन एक गीता है।।
सुखद बयार निजी जीवन का रहा हो या कि सार्वजनिक जीवन का,नई शुरूआत भविष्य को उम्मीदों से बांधती है।
कुछ तो है जरूर।
जो होता है अच्छे के लिये ही होता है, हो सकता है यह विछोह पहले से भी ज्यादा सामीप्य ले आये।
B+
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@ प्रिय बेनामी,
आभारी हूँ आपने लौटकर मुझे अपना स्नेह दिया. मेरे भाग्य को मेरा साथ देने के लिये प्रेरित किया. देखता हूँ .. वह क्या करता है?
भविष्य में आप अपना दर्शन देकर मेरी रहस्यमयी जिज्ञासा को शांत करेंगे... आशा है.
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@ कु.राधारमण जी,
आपकी शुभेच्छाओं को आशीर्वचन रूप में ग्रहण करता हूँ.
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राधा उद्धव-उपदेश सुने.
मन ही मन कनु के रेश बुने.
गीता से केवल जले-भुने.
मतलब के ही सन्देश चुने.
मुझको ओशो सिद्धार्थ मुनः
कहते हैं हितकर वचन पुनः
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@ मित्र सञ्जय,
सच में .. बात तो है कुछ.
रक्त में बी+ के कण पहले से विद्यमान हैं, पर
आपकी शुभकामनाएँ कब फलती हैं? मुझे भी प्रतीक्षा है.
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