रविवार, 6 मार्च 2011

आपके घर की हवा चली

आपके घर की हवा चली 
मिली राहत हेमंत टली 
पिकानद* हल्दी अंगों पर 
लगाकर लगती है मनचली. 

शिशिर तो खेल रहा स्वच्छंद 
बहिन मुख पर मलता हैं रंग 
सभी को छूट मिली है आज़ 
फाग खेलन की हो निर्बन्ध. 

मुझे मदमत्त कर रही है 
आपको छूकर आयी पौन.
कौन आलिंगन देगा आज़ 
पिया बैठी है होकर मौन. 

सुहाता वसन आपका आज़ 
कली खिलती हैं सारी साज 
देह को, फिर से आयी लाज 
राज करता है अब ऋतुराज. 

____________
*पिकानद = बसंत ऋतु

पूर्व दिशा की अधिष्ठात्री 'दिविता' को संबोधन करते हुए उसके घर से आती 'पुरवा' पवन के प्रति मेरा आभार.  

8 टिप्‍पणियां:

Rahul Singh ने कहा…

'देह को लाज' क्‍या कहने.

ZEAL ने कहा…

पुरवा पवन के आभार स्वरुप उत्कृष्ट रचना । पढ़कर आनंद आ गया ।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji..........

.........
.........
ruchikar laga ye prastooti...

pranam.

Amit Sharma ने कहा…

देह को, फिर से आयी लाज
राज करता है अब ऋतुराज.

आनंद आ गया

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर ...प्रकृति के रंग में रंगे मन के भाव....

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है पिकानंद शब्द पहली बार पढा ये शब्द। शुभकामनायें।

Sunil Kumar ने कहा…

देह को, फिर से आयी लाज
राज करता है अब ऋतुराज.
अच्छी अभिव्यक्ति बधाई....

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

सभी ने शाबाशी दी.
समझ आ गया कि... कविता बहुत अच्छी है.

निर्मला जी,
सभी रचनाकारों के कुछ प्रिय शब्द होते ही हैं जिनके इर्द-गिर्द वे चक्कर लगाते प्रतीत होते हैं.
कई सुलझे रचनाकार इसे अपनी व्यंजनाओं में छिपा लेते हैं और कुछ अनसुलझे उनमें कई अर्थ बसा देते हैं.