आपके घर की हवा चली
मिली राहत हेमंत टली
पिकानद* हल्दी अंगों पर
लगाकर लगती है मनचली.
शिशिर तो खेल रहा स्वच्छंद
बहिन मुख पर मलता हैं रंग
सभी को छूट मिली है आज़
फाग खेलन की हो निर्बन्ध.
मुझे मदमत्त कर रही है
आपको छूकर आयी पौन.
कौन आलिंगन देगा आज़
पिया बैठी है होकर मौन.
सुहाता वसन आपका आज़
कली खिलती हैं सारी साज
देह को, फिर से आयी लाज
राज करता है अब ऋतुराज.
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*पिकानद = बसंत ऋतु
8 टिप्पणियां:
'देह को लाज' क्या कहने.
पुरवा पवन के आभार स्वरुप उत्कृष्ट रचना । पढ़कर आनंद आ गया ।
suprabhat guruji..........
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ruchikar laga ye prastooti...
pranam.
देह को, फिर से आयी लाज
राज करता है अब ऋतुराज.
आनंद आ गया
बहुत सुंदर ...प्रकृति के रंग में रंगे मन के भाव....
बहुत सुन्दर रचना है पिकानंद शब्द पहली बार पढा ये शब्द। शुभकामनायें।
देह को, फिर से आयी लाज
राज करता है अब ऋतुराज.
अच्छी अभिव्यक्ति बधाई....
सभी ने शाबाशी दी.
समझ आ गया कि... कविता बहुत अच्छी है.
निर्मला जी,
सभी रचनाकारों के कुछ प्रिय शब्द होते ही हैं जिनके इर्द-गिर्द वे चक्कर लगाते प्रतीत होते हैं.
कई सुलझे रचनाकार इसे अपनी व्यंजनाओं में छिपा लेते हैं और कुछ अनसुलझे उनमें कई अर्थ बसा देते हैं.
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