बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जलन

सहसा आये थे ...... देह साज 
मिलने को, जाने कौन व्याज. 
अधिकार जमाने .... पुरा-नेह 
मानो करते थे .... मौन राज. 


फिर भी .. कर व्यक्त नहीं पाए 
निज नेह,.. मौन के मौन रहे. 
कब तलक रहे जीवित आशा 
मेरी, .. इतनी चुप कौन सहे? 


चुप सहने को .. मैं सहूँ सदा 
पर कैसे छलमय मान सहूँ? 
तुम करो बात जब दूजे से, 
मैं जलूँ, 'जलन' किस भाँति कहूँ? 



यह एक स्वप्न था जो कविता-बद्ध हो गया. 
प्रश्न १ : यह स्वप्न क्यों आया? 
विकल्प :
१] मंजीठ राग के कारण 
२] कुंठाओं के कारण 
३] अवचेतन की अतृप्त-इच्छाओं के कारण 
४] पेट खराब होने के कारण. 
प्रश्न २ : 'जलन' के स्वर का तापमान क्या होगा? 

19 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

गुरूजी,

प्रश्न १ : यह स्वप्न क्यों आया?

३] अवचेतन की अतृप्त-इच्छाओं के कारण

प्रश्न २ : 'जलन' के स्वर का तापमान क्या होगा?
060 = व्यंग्य स्वर
...........स्वर आड़ा-तिरछा चलता लगता है.
............परिणाम .......... आड़े-तिरछे चलते स्वर को मद्यप-कथन जान लोग उसे हलके में लेते हैं.

Amit Sharma ने कहा…

प्रश्न १ : यह स्वप्न क्यों आया?
उ : कुंठाओं के कारण

प्रश्न २ : 'जलन' के स्वर का तापमान क्या होगा?
उ : 100 = अवरुद्ध स्वर [क्रोध की पराकाष्ठा]
...........स्वर रुक जाता है.
...........परिणाम ...........सदमा या मूर्च्छा

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

कविता भयी अति गूढ़

और हम भये अति मूढ़

लगाते अर्थ ना जाएँ बूढ़

केवल राम ने कहा…

चुप सहने को .. मैं सहूँ सदा
पर कैसे छलमय मान सहूँ?
तुम करो बात जब दूजे से,
मैं जलूँ, 'जलन' किस भाँति कहूँ?
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
प्रतुल जी
नमस्कार
कविता तो बहुत अच्छी है
.... अरे बड़े दिनों से ढूंढ़ रहा था आपका लिंक ..आपको धन्यवाद करने के लिए पर आज मिला तो ख़ुशी हुई ...आपने मुझे समर्थन दिया .....मेरे ब्लॉग पर आने के लिए मैं आपका हार्दिक धन्यवादी हूँ ...शुक्रिया

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

sikh rahey hain......

pranam.

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

सर जी... इस कविता के बारे में मै सुज्ञ जी के पहले सवाल के उत्तर से और अमित जी के दूसरे सवाल के उत्तर से सहमत हूँ।

बाकी मुझे आपकी कविताओं को समझने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पढ़ती है. आप जैसे विद्धान के लिखे हुए को पढ़ना मेरे लिए सम्मान की बात है।

ZEAL ने कहा…

प्रतुल जी ,
सर्वप्रथम तो आपकी कविता की प्रशंसा करुँगी । जो अपने भाव स्पष्ट करने में पूर्णतया समर्थ है । एक उत्कृष्ट रचना के लिए आभार ।

ZEAL ने कहा…

प्रश्न १ : यह स्वप्न क्यों आया?
परिस्थियों में होते बदलाव ऐसे प्रश्नों को जन्म देते हैं। व्यक्ति का उस विषय पर निरंतर चिंतन-मनन ऐसे स्वप्नों को आकार देता है। ऐसा होना अति-स्वाभाविक है।

ZEAL ने कहा…

प्रश्न २ : 'जलन' के स्वर का तापमान क्या होगा?

जलन के स्वर मुखर होने के कारन उनका तापमान ५० से अधिक होगा । लेकिन चूँकि इसमें क्रोध के स्वरों पर काबू पाने की कोशिश की गयी है , इसलिए इसका तापमान क्रोध के तापमान से सदैव कम होगा।

पुनश्च , जलन के स्वरों की गुप्त-ऊष्मा [ Latent heat ]बहुत ज्यादा होगी तथा दीर्घ कालिक होगी ।

ZEAL ने कहा…

@--तुम करो बात जब दूजे से,
मैं जलूँ, 'जलन' किस भाँति कहूँ?...

जलन होना व्यक्ति के प्यार को दर्शाता है। लेकिन वो भोला भला ये नहीं जानता की दूजे से बात करना महज औपचारिक एवं परिस्थिति-जन्य भी हो सकता है।

अपनों का जो स्थान ह्रदय में होता है , वो गैरों को कभी नहीं मिल सकता।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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मैं अपने मित्र की परेशानी समझते हुए ... सबसे पहले .. अपने इस कविता-दीपक के तले ... सिमटे हुए अर्थ-अँधेरे को दूर किये देता हूँ :

सहसा आये थे देह साज
मिलने को, जाने कौन व्याज.
अधिकार जमाने पुरा-नेह
मानो करते थे मौन राज.
@ स्वप्न में अचानक आ गये थे. आशा नहीं थी. सजे संवरे थे. मुझसे मिलने आये थे. पता नहीं किस बहाने से आये थे.
शायद अपने पुराने स्नेह के कारण अधिकार मानते थे. ऐसा लगता था कि वे चुपचाप शासन कर रहे हैं.

फिर भी कर व्यक्त नहीं पाए
निज नेह, मौन के मौन रहे.
कब तलक रहे जीवित आशा
मेरी, इतनी चुप कौन सहे?
@ वे शासक थे फिर भी अपने स्नेह को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया. वे पहले की तरह चुप ही रहे. मेरी आशा इसलिये जीवित थी कि वे इस बार तो चुप नहीं रहेंगे, कुछ बोलेंगे.

चुप सहने को मैं सहूँ सदा
पर कैसे छलमय मान सहूँ?
तुम करो बात जब दूजे से,
मैं जलूँ, 'जलन' किस भाँति कहूँ?
@ अगर 'चुप' केवल चुप्पी ही हो तो सह ली जाये. पर उस चुप्पी के पीछे प्रपंची मान [रूठने का नाटक] हो तो सह्य कैसे होगा? मतलब.. सहन नहीं हो सकता.
जब तुम मुझसे बात न करके किसी दूसरे से करते हो, तब मेरी जलन का तापमान इतना अधिक हो जाता है कि मुझसे कहते नहीं बनता कि 'अपने शीतल वचन बोल दो'.
[मुझे तेज़ बुखार है माथे पर अपने स्नेह की गीली पट्टी रख दो]

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी,
वैसे स्वप्न के चारों ही कारण हो सकते थे. लेकिन यह सही है कि यहाँ अतृप्त-इच्छाएँ ही स्वप्न रूप में आकार लेकर प्रकट हुईं.

यह स्वप्न है और स्वप्न देखने वाले के समस्त कथन स्वगत हैं. उनमें स्वर नहीं है.
शायद आपने 'प्रिय' द्वारा मिली उपेक्षा से अनुमान लगाया कि स्वप्नदृष्टा के स्वगत कथनों को हलके में लिया जा रहा है.
व्यंग्य कभी स्वगतकथनों में नहीं होता.
यहाँ दोनों ही पक्ष चुप हैं.
बस केवल एक पक्ष ही अपने मन की बातों को स्वगत रूप से व्यक्त कर रहा है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अमित जी,
कुंठाएँ व्यक्ति को अपने तक सीमित कर देती हैं. कविता में व्यक्तिगत पीड़ा को भाँप कर ही आपने इसका अनुमान लगाया.

कुंठाओं से जन्म होता है अतृप्त इच्छाओं का.
अतः आपने अपराधी पर नहीं अपराधी की माँ पर आरोप लगाया है.

स्वर का तापमान :
यहाँ स्वर अवरुद्ध नहीं हुआ है. स्वप्नदृष्टा का संवाद आत्मालाप है.
क्रोध है किन्तु उसके कायिक अनुभाव और सात्विक अनुभाव प्रकट नहीं हुए हैं.
इसलिये क्रोध एक सीढ़ी नीचे है .......... जलन रूप में.
तापमान ९० और १०० के बीच में माना जाएगा.
इसमें स्वर रुकता नहीं .... छिपता हुआ प्रतीत होता है.
परिणाम ......... सदमा या मूर्च्छा नहीं ...... मानसिक अस्थिरता या पागलपन है.
__________
क्रोध आदि स्थायी भावों के कायिक और सात्विक अनुभावों को अग्रिम कक्षाओं में विस्तार दिया जाएगा.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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संजय जी
यह अच्छा है कि परीक्षा तब दी जाये जब तैयारी हो, अन्यथा स्वाध्याय और सत्संग का ही लाभ लेते रहना चाहिए.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विरेन्द्र जी आपके आकलन सही थे. आपके आने तक केवल अमित जी ही अपने उत्तर को सही के आस-पास पहुँचा पाए.
आपका पाठशाला में आना मेरे लिये सम्मान की बात है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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दिव्या जी,
मेरे इस तापमान को आखिरकार एक्सपर्ट कमेन्ट मिल ही गये. कुछ यही संकेत मैंने एक विद्यार्थी को दूर-ध्वनि के द्वारा दिए थे.
हाँ... अब तापमान घटने लगा है.
आपकी भाव-उदघाटित टिप्पणियों का निदर्शन आगामी कक्षा की 'अनुभाव चर्चा' में दिखेगा. संभवतः जनवरी मास में.

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विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 15 जून 2019 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

Onkar ने कहा…

सुन्दर रचना

Pratul Vasistha ने कहा…

धन्यवाद विभा जी और औंकार जी!