शनिवार, 18 दिसंबर 2010

हवामहल


वात बात करती सपनों से 
ऐसा हो निज राजमहल. 
जिनमें द्वार कई छोटे हों 
किरणों की हो चहल-पहल. 

एक द्वार हो मुख्य, उसी पर 
लटके परदा फूलों का. 
खुल जाये मेरे आने पर, 
देकर बस हलका झोंका. 

बस वेणु आवाज़ गूँजती 
हो कानों में मधुर-मधुर. 
त्रसरेणु पग घुंघरू पहने 
नाच करे छम-छम का स्वर. 

दूर-दूर तक मेरी गाथा 
गाती हो हर इक जिह्वा -
"देखो आयी राजमहल से 
रानी के यश की गंधा." 

त्रसरेणु — प्रकाश में दिखलाई देने वाले सूक्ष्मतम कण, धूलिकण, प्रकाश-वाहक कण, परमाणु. 
यह कविता मेरे मन का संगीत है. अभी-अभी जयपुर दर्शन करके आया हूँ. 
वहाँ हवामहल को देखकर मन मयूर नाच उठा. पिछले समय के तनावों से कुछ राहत मिली. 
प्रकृति-दर्शन और संस्कृति का बोध कराने वाले स्थल मानस में बन रही आड़ी-तिरछी रेखाओं को अपने मौन-संवादों से पौंछ देते हैं.