बुधवार, 4 मई 2011

कपोल-लली

खिलने में हो लावण्य भंग
दिखने में सबको लगे भली। 
पिय दर्शन से रतनार रंग
हो जाता कनक-कपोल-लली*

नत नयन मंद मुस्कानों की
अवगुंठन की कहलाति अली**
पुरुषों के भ्रमर-लोचनों को
लगती रसदार कपोल-कली । 

*कपोल-लली — लज्जा.
**अली — सखी.





मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

'रोङ्ग नम्बर'

'रोङ्ग नंबर' के साथ छंद चर्चा और ध्वनि परिवर्तन की दिशाएँ 
किसी विषय पर होने वाली बातचीत से निकलते प्रश्न और उनके उत्तर खोजने में किया जाने वाला स्वाध्याय एक विषय को दूसरे विषय से जोड़ देता है. तब महसूस होता है कि एक विषय अपने आप में परिपूर्ण नहीं वह भी अन्य विषयों की जानकारी की अपेक्षा रखता है. मैं चला तो था छंद पर बातचीत करने लेकिन भाषा में आये बदलाव को बतलाना भी जरूरी-सा लगता है. इसलिये अब से कविता के साथ-साथ छंद-चर्चा के पाठों को भी भाषा-विज्ञान की जानकारी के साथ लेकर चलेंगे. 

'रोङ्ग नम्बर'

हलक में सिकुड़ रही थी प्यास।  
पलक का विनत हुआ था व्यास। 
स्मृतियाँ करने आयीं रास। 
दर्शन का था पर उपवास। 

अचानक दौड़ा आया स्वर। 
घुसा कानों से मम अंतर।  
मैंने गोदी लेना चाहा । 
निकल भागा कह 'रोङ्ग नंबर'। 

छंद-चर्चा 

उपर्युक्त छंद में ऐच्छिक मात्रिक विधान किया जा सकता है. 'प्यास' 'व्यास' पर तो जैसा होना चाहिए वैसा ही होगा. लेकिन 'स्मृतियाँ' शब्द में 'इ' का आगम करके 'इस्मृतियाँ' शब्द पर ऐच्छिक मात्रिक विधान करना पड़ेगा अन्यथा छंद की तीसरी पंक्ति को एक मात्रा की कमी झेलनी होगी.  दूसरा पद सममात्रिक छंद का उदाहरण है. सममात्रिक छंद में पहले व दूसरे [१-२] में और तीसरे व चौथे [३-४] में बराबर मात्राएँ होती हैं. 

ध्वनि परिवर्तन की दिशाएँ 

संस्कृत वैयाकरणों ने ध्वनियों के विकास की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है : [१] वर्णागम, [२] वर्णलोप, [३] वर्ण-विपर्यय, तथा [४] वर्ण विकार. वैसे तो आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों ने ध्वनि-विकास की कई प्रमुख वजह तलाश ली हैं, जिनमें १) आगम, २) लोप, ३) विपर्यय, ४) समीकरण, ५) विषमीकरण, ६) मात्रा-भेद, ७) घोषीकरण, ८) अघोषीकरण, ९) महाप्राणीकरण, १०) अल्पप्राणीकरण, ११) ऊष्मीकरण, १२) अनुनासिकीकरण, १३) संधि, १४) भ्रामक व्युत्पत्ति, तथा १५) विशेष परिवर्तन. 

......... ये समस्त परिवर्तन मूलतः परिणाम हैं पर इनके मूल में कुछ कारण भी होते हैं. यहाँ पर उन्हीं कारणों का उल्लेख करता हूँ : 

ध्वनि-परिवर्तन के कारण 

(क) प्रमुख आभ्यंतर कारण :
— वाक् यन्त्र की विभिन्नता 
— श्रवणेन्द्रिय की विभिन्नता 
— अनुकरण की अपूर्णता 
— अज्ञान 
— प्रयत्न लाघव या मुख-सुख
— बोलने में शीघ्रता
(ख) गौण आभ्यंतर कारण :
— भावातिरेक 
— आत्म-प्रदर्शन 
— विभाषा का प्रभाव 
— मात्रा, सुर या बलाघात 
— सादृश्य 
— लिपि की अपूर्णता या लिपि दोष.
(ग) बाह्य कारण :
— भौगोलिक कारण 
— ऐतिहासिक परिस्थितियाँ या काल प्रभाव. 

.... उपर्युक्त कारणों का आगामी पाठों के साथ विस्तार किया जाएगा. अभी केवल इतना कहकर बात समाप्त करता हूँ कि वैदिक ध्वनियाँ ही संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से होती हुई हिन्दी में आयी हैं. यह परम्परागत ध्वनि समूह विदेशियों के संपर्क से भी प्रभावित हुआ है. जैसे - द्रविड़ के संपर्क से मूर्धन्य [ट, ठ, ड, ढ] तथा मुगलों के संपर्क से क़, ख़, ग़, ज़, फ़ (पाँचों नुक्ते वाले व्यंजन) ध्वनियाँ हिन्दी में शामिल हो चुकी हैं. इस प्रकार ध्वनियाँ ऐतिहासिक तथा काल के प्रभाव से परिवर्तित होती हैं. 


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

पिछले पाठों पर एक नज़र ....

अब तक के पाठों और सवाल-जवाबों में मेरी त्रुटियों को पकड़ने की काफी कोशिश हुई. यह एक अच्छी परम्परा है कि त्रुटियों को इंगित किया जाये. लेकिन बहुतों के द्वारा गलतियों का पुरजोर विरोध न करने का कारण यही लगा कि या तो विषय के पंडित शालीनतावश नवोदित शिक्षक को सार्वजनिक रूप से बौद्धिक संवाद में चित नहीं करना चाहते, या फिर वे स्वयं को अल्पज्ञ मानकर (चुपचाप) पीछे हट जाते हैं... यह एक ग़लत परम्परा है जो स्वस्थ संवाद करने से रोकती है. 

पिछले पाठों की दोहरावट में मुझे अपनी कई त्रुटियाँ पकड़ में आयीं. अब तक मैंने मात्रिक-विधान और गण-विधान को समझाने के लिये कुछ उपाय किये. फिर भी कई शब्द ऐसे हैं जिनका मात्रिक विधान करते समय हम उलझ जाते हैं. ये किस प्रकार के शब्द हैं? और ये कैसी उलझन होती है? आज हम इन्हें ही जानेंगे. 

प्रायः हम संयुक्त व्यंजनों में उलझते हैं. हम जानते हैं कि संयुक्त व्यंजन में जो व्यंजन अर्ध रूप से आगे रहता है वह अपने से पूर्व व्यंजन को गुरु कर देता है. यथा 'अस्त' शब्द में 'अ' वर्ण गुरु हो जाएगा क्योंकि उसके बाद वाले वर्ण 'त' में 'स्' अर्ध रूप में जुड़ा हुआ है. 

कुछ शब्दों में अर्ध वर्ण स्पष्ट समझ में आते हैं जो खड़ी पाई वाले होते हैं. मतलब जिनकी बनावट में पाई [ | ] का प्रयोग होता है. ऐसे वर्ण अर्ध होते समय अपनी पाई [ | ] गँवा बैठते हैं अथवा आधे होकर साफ़-साफ़ नज़र आते हैं. यथा : क और फ वर्ण. लेकिन समस्या वहाँ आती हैं जहाँ वर्ण की बनावट संयुक्त होते समय पूरे वर्ण को ही बदलकर रख देती है. 
यथा : 'ब्राह्मण' 'क्षत्रिय' 'वैश्य और 'शूद्र'  ऐसे शब्द हैं जिनमें यदि हम गुरु और लघु वर्णों को तार्किक रूप से पहचान पायें तो काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगा. 

पहले लेते हैं 'ब्राह्मण' 
इस शब्द को एक बार पूरा खोल देते हैं : [ नोट :  ^ चिह्न को हलंत मानकर ही चलें ]
 ब् + र् + अ + अ + ह् + म् + अ + ण ् + अ
इसके बाद इसे संक्षेप करते हैं जिससे गुरु और लघु वर्ण पहचान में आयें :
 ब् + र् + आ + ह् + म् + अ + ण ् + अ
इसके बाद कुछ और संक्षेप करते हैं जिससे गण-विधान करना सहज होता दिखायी दे : 
ब् + रा + ह् + म + ण
वास्तविक शब्द है : ब् + रा + ह् + म + ण= ब्राह्मण
लेकिन जो शब्द मात्रिक और गण विधान करने के लिये लेंगे,  वह है : 
रा + ह् + म + ण = राह्मण 
अब 'ब्राह्मण' शब्द में ब् और ह् वर्ण हैं जो अपने से पूर्व व्यंजन को गुरु करते हैं. लेकिन ब् से पूर्व कोई व्यंजन न होने से वह किसी को गुरु नहीं करेगा. अतः इस समय उसका होना व्यर्थ है. 
'रा' वर्ण पहले से गुरु है लेकिन 'ह' वर्ण का प्रभाव से भी वह गुरु हो सकता था. अब ऐसे में जो पहले से गुरु है वह गुरु ही रहेगा महागुरु नहीं हो जाएगा मतलब उसकी २ मात्राएँ ही गिनी जायेंगी.

अब 'क्षत्रिय' आदि शब्द को भी खोल देते हैं : 
क्षत्रिय = क् + श् + अ + त् + र + इ + य् + अ  =  क्ष् + अ + त्र् + इ + य् + अ
वैश्य = व् + अ + इ + इ + श् + य् + अ  =  व् + अ + ई + श् + य = व् + ऐ + श् + य
शूद्र = श् + उ + उ + द् + र् + अ  =  श् + ऊ + द् + र =  श् + ऊ + द्र* 
अब 'शूद्र' शब्द में 'द्र' वर्ण में 'द' अर्ध है जो अपने से पहले वर्ण को गुरु करना चाहिए. लेकिन वह पहले से गुरु है. इस कारण यह व्यर्थ हो जाता है. लेकिन एक विशेष अंदाज-ए-बयाँ पर यह स्वयम् गुरु हो जाता है जब हम अंग्रेजी प्रभाव में आकर 'शूद्र' को 'शूद्रा' कहने लगते हैं. जैसे 'योग' को 'योगा' और 'राम' को 'रामा' कहने लग जाएँ. फिर भी अनुचित तो अनुचित ही रहेगा. 

पिछले पाठों में मुझे संगीता स्वरूप जी ने कई शब्दों में इंगित किया. जिस कारण मुझे सभी पाठ खुद पढ़ने पढ़े. अच्छा है मुझे अपने ही पाठों से सीखने को मिलेगा. हरकीरत जी ने भी राजेन्द्र जी नाम पुनः उल्लेख करके कुछ कहना चाहा था, मुझे ऐसा भ्रम है. 

पिछले पाठों में प्रयुक्त शब्दों का एक बार फिर निराकरण : 
— 'स्वप्निल' शब्द में हम केवल 'वप्निल' शब्द का मात्रिक विधान करके गण पहचानेंगे. [स^ वर्ण की अर्ध मौजूदगी इस समय बेअसर है]
— 'राजेन्द्र' शब्द वास्तव में म-गण का सदस्य नहीं अपितु त-गण का सदस्य है. किन्तु राजेन्द्र' शब्द यदि अपने बाद वाले शब्द 'स्वर्णकार' के साथ लिखा जाएगा तो वह म-गण में आ बैठेगा. 'राजेन्द्र' शब्द अकेला रहेगा तो वह 'ताराज' है और यदि 'स्वर्णकार' के साथ बोला जाएगा तो वह 'मातारा' है.
— 'प्रतुल' शब्द पर वैसे तो 'स्वप्निल' शब्द पर लगा सूत्र ही लगाया जाएगा. [मतलब 'प्' वर्ण की अर्ध मौजूदगी इस समय बेअसर होगी, और रतुल शब्द का मात्रिक विधान करके गण पहचानेंगे] अर्थात यह शब्द न-गण वर्ग का है न कि भ-गण वर्ग का जैसा कि पूर्व में कहा गया था.  

कविता लेखन में मात्रिक विधान के समय में कुछ उलझाव भरे शब्द : 
'स्क' 'स्व' 'स्त' या फिर 'रेफ' वाले वर्णों में ऐच्छिक मात्रिक विधान किया जा सकता है. 
उदाहरण : 
— 'स्तर' शब्द का 'लघु लघु' मात्रिक विधान के अलावा 'इस्तर' उच्चारण करके 'गुरु लघु लघु' [भानस] का आभास भी मिलता है.
— 'स्वर' शब्द का 'लघु लघु' मात्रिक विधान के अलावा 'सुवर' उच्चारण करके 'लघु लघु लघु' [नसल] का आभास भी मिलता है. 
— 'स्कूल' 
स्कूल [21] शब्द का उच्चारण जैसे इस्कूल (या इसकूल) किया जाता है. ऐच्छिक मात्रिक विधान होगा : 221 = गुरु गुरु लघु 
स्त्री [2] शब्द का उच्चारण जैसे इस्त्री किया जाता है. ऐच्छिक मात्रिक विधान होगा : 22 = गुरु गुरु  

क्र ग्र ज्र ट्र ड्र द्र त्र प्र फ्र ब्र भ्र म्र ल्र श्र स्र ह्र आदि वर्णों का प्रारम्भिक उच्चारण कविता लेखन में यदा-कदा ऐच्छिक मात्रिक विधान की चाहना करता है. 
क्रम, ग्रह, ट्रक, ड्रम, द्रुम, प्रभु, श्रम आदि वर्ण लघु-लघु वर्ण वाले शब्द हैं किन्तु छंद की माँग पर यह विधान मुख के विशेष उच्चारण पर बदल भी सकता है. 
यथा : क्रम का किरम, ग्रह का गिरह, ट्रक का टिरक, ड्रम का डिरम, द्रुम का दिरुम, प्रभु का पिरभु, श्रम का शिरम उच्चारण करना कविता पाठ (सुनाने) में तो छूट दे देता है लेकिन उसके लिखित रूप में क्षम्य नहीं कहा जाता. अतः इन उलझावों से बचने के लिये ही ऐच्छिक मात्रिक विधान की आवश्यकता पड़ती है. छंद के लिखे जाने और उसके सुनाये जाने में अक्सर कवि छूट लेता रहा है. इसे हम बीच का रास्ता कह सकते हैं. 

........ ये समस्त उलझन मुख उच्चारण के कारण पैदा हुई है. अतः इसमें छंदविदों के मार्गदर्शन की आवश्यकता मुझे आज भी महसूस होती है. पिछले पाठों में की गयी त्रुटियों से मेरा गुरु अहंकार धरातल छूने लगा है.  





मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

फिर वही मधुर शब्दों का स्वर गुजरा कानों की सड़कों पर

छंद का तीसरा पाठ शुरू करूँ, उससे पहले अपनी एक विशेष अनुभूति को व्यक्त कर दूँ .....

फिर वही मधुर शब्दों का स्वर 
गुजरा कानों की सड़कों पर 
फिर वही रूप जो निराकार 
तिरता नयनों की पलकों पर 
फिर वही हास मीठा-मीठा 
दौड़ा है किसके अधरों पर 
फिर वही वास धीरे-धीरे 
बैठी है मेरे नथुनों पर 
पिक आम बाग़ में 'पिया पिया' 
कर, आया है रसिया होकर 
ओ सुधाश्रवा! विष घोलो ना 
'भैया' कह दो बहना होकर. 

रविवार, 17 अप्रैल 2011

छंद निष्ठुर नहीं होता

आवरण - १ 


अग्र से नील, पृष्ठ से पीत 
हरित आभा देते बन मीत.
श्याम रंजित लघु लघु लघु छींट.
लगी हो लू को जैसे शीत. 

इंदु-मुख पर शश-तिल का अंक 
नयन लेटे पल के पर्यंक. 
कमर केहरि जैसी कृश, काल 
ग्रसित लगते इंदु चख लंक. 

पहले छंद का मात्रिक विधान कुछ ऐसे किया जाएगा : 
राजभा गाल, राजभा गाल* = 8 + 8 = 16
नसल मातारा भानस गाल = 16
राजभा नसल नसल सलगाल = 16
यमाता मातारा ताराज = 16

[*ध्यान दें : कभी-कभी किसी पंक्ति का मात्रिक विधान तो बिल्कुल सही होता है लेकिन फिर भी उस पंक्ति की छंद कविता की गेयता ख़त्म हो जाती है. ऐसे में गण-विधान अपनी मुख-सुविधा के अनुसार किया जाना ठीक रहता है. जैसे हमने कविता की पहली पंक्ति का मात्रिक-विधान तो कर लिया लेकिन उसका गण-विधान "राजभा राजभा यमाता ल" न करके उसे दो खण्डों में बाँट कर किया "राजभा गाल, राजभा गाल" मतलब "अग्र से नील, पृष्ठ से पीत" पंक्ति के मध्य आये 'अर्धविराम' के अनुसार उसका गण-विधान भी किया. इस बात से मेरा तात्पर्य यह है कि हमें छंद में 'गीति तत्व' को अहमियत देनी होती है. दूसरी बात, मात्रिक विधान के चक्कर में मन का आनंद नष्ट नहीं करना चाहिए. 'छंद' मन के उन्मुक्त भावों को बाँधने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु वह इतना निष्ठुर भी नहीं कि कोमलतम भावों को अपनी वैधानिक-रज्जु से कुचलकर रख दे.] 

वरिष्ठों के लिये : 
प्रश्न : दूसरे छंद का मात्रिक विधान कैसे किया जाएगा? 

कनिष्ठों के लिये :
प्रश्न : 'पर्यंक' कितनी मात्राओं का शब्द है? 

[नोट : विद्यार्थी अपनी इच्छा से दोनों प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं. 



गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

अशुभ गणों की शुभ्रता

मात्रिक छंदों के अंतर्गत जिन्हें 'अशुभ' गण जानकर नवल आभ्यासिक कवि/कवयित्री बचते हैं उन गणों की अशुभता वार्णिक छंदों के समीप आते ही विलुप्त हो जाती है. 
वार्णिक छंदों की 26 जातियाँ हैं और उनके प्रसार-भेद की संख्या ६७१०८८६४ [छह करोड़ इकहत्तर लाख आठ हहार आठ सौ चौंसठ] है. 
फिलहाल, अशुभ गणों के प्रति नकारात्मकता समाप्त करने के लिये मुझे छंद की विधिवत चर्चा के बीच इस उप-अध्याय को कहना पड़ रहा है. 
त ज र स वाले घरों की कथित अशुभता का उज्ज्वल पक्ष दिखाने के लिये ये अध्याय आपके सामने लाया हूँ. 

'त' गण से आरम्भ होने वाले कुछ छंद : 
1] इंद्रवज्रा
2] इंद्रवंशा
3] वसंततिलका

'ज' गण से आरम्भ होने वाले कुछ छंद :
1] उपेन्द्रवज्रा
2] प्रमाणिका
3] पञ्चचामर


'र' गण से आरम्भ होने वाले कुछ छंद :
1] स्रग्विणी
2] स्वागता
3] रथोद्धता
4] चामर
5] चंचला
6] चंचरी 

'स' गण से आरम्भ होने वाले कुछ छंद :
1] तोटक 
2] सुन्दरी (सवैया) 
3] कुन्दलता (सवैया) 

सुंदरी (सवैया) छंद : 
यह २५ वर्णों का आकृति जाति के अंतर्गत आने वाला छंद है. 
"सगणा जब आठ मिलें गुरु से तब सुन्दरि छंद बने अति नीका." 
जिस छंद के प्रत्येक चरण में आठ स-गण एवं एक गुरु के क्रमानुसार २५ वर्ण हों, उसे 'सुन्दरी' (सवैया) छंद कहते हैं. 
उदाहरण : 
सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा गा.
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
हरकीरत हीर करैं बिनती अब फ़ौरन शंस्वर मालि बुलाओ. 
कर ट्यूशन धाक जमा हम लें, सब छंद रचें, वह पाठ पढ़ाओ. 
अविनाश*-कली खिल जाय, भली कविता कर लें, वह बीन बजाओ. 
हर ऊसर में उग जाय शमी*, मन का जलवायु उपाय बताओ. 
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*अविनाश — कविराज अविनाश चन्द्र से तात्पर्य 
*शमी — ऐसा वृक्ष जो अकाल में भी हरा-भरा रहता है. बंजर में भी सहजता से उग सकता है. 

चंचला छंद : 
"चंचला सदा सुहात राज राज रा ल से."
जिस छंद का प्रत्येक चरण, क्रमशः रगण, जगण, रगण, जगण, रगण और लघु युक्त १६ वर्णों पर आधारित हो, वह 'चंचला' छंद कहलाता है. 
उदाहरण : 
राजभा जभान राजभा जभान राजभा ल 
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
हंसराज सुज्ञ डाकिया बने जहान घूम. 
ढूँढ लात लोग सात दृष्टि की महान ज़ूम.
खान पान शुद्ध, आन बान शान देख झूम.
एक-एक बाँटते सभी अपार्टमेन्ट रूम. 
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

'चंचला' छंद का एक अन्य उदाहरण : 
पक्षिराज यक्षराज प्रेतराज यातुधान. 
देवता अदेवता नृदेवता जिते जहान. 
पर्वतारि अर्व खर्व सर्वथा बखानि. 
कोटि कोटि सूरचंद्र रामचंद्र दास जानि. [यह किस कवि की रचना है, जानकारी नहीं]

एक प्रश्न : 
'चंद्र' शब्द में कौन-कौन से वर्ण आधे हैं और कौन-कौन से पूरे हैं ? 
संकेत : इस शब्द में चार वर्ण हैं : च, न, द, र


शेष चर्चा आगामी पाठ में ....

रविवार, 10 अप्रैल 2011

खेल का नाम है "कौन-सा नाम कौन से घर में"

स्वर के तीन भेद हैं : 
१] हृस्व : अ इ उ ऋ — चिह्नित करते हैं I से 
२] दीर्घ : आ ई ऊ ए ऐ ओ औ — चिह्नित करते हैं S से  
३] प्लुत : ओ३म — चिह्नित करते हैं ३ से 

व्यंजन :
१] क  वर्ग = क ख ग घ (गं)
२] च वर्ग = च छ ज झ (यं)
३] ट वर्ग = ट ठ ड ढ (ण) 
४] त वर्ग = त ठ द ध (न) 
५] प वर्ग = प फ ब भ (म)
इनके अलावा ..... य र ल व् श ष स ह 
...... उपर्युक्त व्यंजन हृस्व माने जाते हैं.
कुछ व्यंजन : शृ हृ म्ह आदि लघु माने जाते हैं. 
तो कुछ व्यंजन दीर्घ माने जाते हैं यथा : ह्म म्ह 
'म्ह' कभी लघु माना जाता है तो कभी गुरु. यह अपवाद है.
सभी संयुक्त व्यंजन गुरु चिह्न से अभिहित किये जायेंगे. 
संयुक्त व्यंजन : क्ष त्र ज्ञ श्र 
ध्यान रखें : संयुक्त व्यंजन के पूर्व वाला व्यंजन गुरु हो जाता है. 
जिसका आरम्भ ही संयुक्त से हो तो वह गुरु ही रहता है. यथा : प्र से प्रकाश – SSI 
[लेकिन होता यह आभासी गुरु है.]
गुरु = S = 2 मात्रा 
लघु = I = 1 मात्रा 
जैसे : बुद्धि = बुद+ धि = S + I = 3 मात्राएँ 

अब छंद ज्ञान अपनी जटिलता समाप्त करके रहेगा. 
इसलिये पाठशाला में एक खेल शुरू कर रहा हूँ :
खेल का नाम है "कौन-सा नाम कौन से घर में"

आठ घर {गण} हैं. चार शुभ घर हैं चार अशुभ घर हैं 
आपको ब्लॉग जगत के ब्लोगरों के नाम पकड़-पकड़ कर घरों में बैठाने हैं. 

म गण = मातारा = SSS =  [दिव्या श्रीवास्तव / संगीता स्वरूप ..... ] 
न गण = नसल = III =  [अमित/ अजित/ सुमन/ ....... ]
भ गण = भानस = SII =  [प्रतुल/ सञ्जय/ पंकज/ दीपक .... ]
य गण = यमाता = ISS =  [?] कोई दो नाम सुझाइए : 
स गण = सलगा = IIS =  [अविनाश/ हरदीप .....]
त गण = ताराज = SSI =  [?] कोई दो नाम सुझाइए : 
र गण = राजभा = SIS =  [हंसराज/ .....]
ज गण = जभान = ISI =  [समीर/ सतीश .....]

यदि आपके जान-पहचान के नाम किसी घर में रहने के इच्छुक हों तो अवश्य उन्हें घर दिलवाइये.




बुधवार, 6 अप्रैल 2011

छंदों का वर्गीकरण ........... पाठ 2

छंद — 
१] वैदिक छंद 
२] लौकिक छंद — मात्रिक छंद , वार्णिक छंद 
मात्रिक छंद — 
१] सम मात्रिक छंद
२] अर्ध मात्रिक छंद 
३] विषम मात्रिक छंद 
वार्णिक छंद — 
१] सम वार्णिक छंद 
२] अर्ध वार्णिक छंद 
३] विषम वार्णिक छंद 

अन्य छंद भेद : 
मात्रिक एवं वार्णिक छंदों के दो-दो अन्य भेद हैं — 
१] साधारण मात्रिक छंद – ३२ मात्राओं तक सीमित 
२] दंडक मात्रिक छंद – ३२ से अधिक होने पर दंडक मात्रिक छंद कहलाते हैं. 
३] साधारण वार्णिक छंद – २६ वर्णों तक सीमित
४] दंडक वार्णिक छंद – २६ से अधिक होने पर दंडक वार्णिक छंद होता है. 

मात्रिक और वार्णिक छंदों का विस्तार आगे के पाठों में किया जाएगा. फिलहाल मैं पाठ की जटिलता को देखते हुए सरलतम और रोचक जानकारी पहले दिये दे रहा हूँ. जिससे पाठ में कुछ तो रोचकता आये. अभी छंद-विषयक कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देना जरूरी समझा है इसलिये नवल विद्यार्थी अपना धैर्य नहीं गँवायें तो आगामी पाठों को सहजता से समझ पायेंगे. 

शुभाशुभ गण, दग्धाक्षर एवं उनका परिहार :
शुभ गण — मगण, नगण, भगण, यगण
अशुभ गण — जगण, रगण, सगण, तगण
शुभाशुभ विचार का तात्पर्य यह है कि शुभ गणों से ही किसी पद्य का आरम्भ करना चाहिए. छंदारम्भ में अशुभ गण का प्रयोग दोष माना गया है. 
['दग्धाक्षर एवं उनका परिहार' पर आगे चर्चा की जायेगी]

प्रश्न : एक कविता दी जा रही है, जिसमें शास्त्र की दृष्टि से दोष बताइये :

बुद्धि से लो काम 
हृदय को हावी मत होने दो. 
दबा हुआ जो भाव 
हृदय में, ज़ाहिर मत होने दो. 

वही प्रीति का बीज 
बाद में फलदायी तरु होगा. 
जिसको सबकी आँख 
बचाकर, रोंपा सींचा होगा. 




गुरुवार, 31 मार्च 2011

नूतन-प्राची संवाद

"तुम कहाँ छोड़ आये शरीर 
मैं लेकर आयी हूँ अबीर 
ओ प्राची! मैं नूतन अद्या 
तुमसे सुनने आयी कबीर."

"ओ चंचल नूतन अधुनातन! 
मैं त्याग चुका अपना शरीर 
अब तुमसे आशा करता हूँ 
दिव बनो करो तम हरण चीर. 

मैं प्राची तो तुमसे ही हूँ 
तुम जब चाहो कर दो फ़कीर. 
तुम चाहो तो हम मिलें सदा 
ना चाहो तो, होवूँ अधीर."

मंगलवार, 29 मार्च 2011

छंद-चर्चा ...... पाठ 1

किसी रचना के प्रत्येक पाद में मात्राओं अथवा वर्णों की नियत संख्या, क्रम-योजना एवं यति के विशेष विधान पर आधारित नियम को छंद कहते हैं. 

छंद के विभिन्न अंग —
चरण : छंद की उस इकाई को पाद अथवा चरण कहते हैं जिसमें छंद विशेष के वर्णों अथवा मात्राओं का एक सुनिश्चित नियोजन होता है.

वर्ण : मुख से निःसृत प्रत्येक उस छोटी-छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं, जिसके खंड नहीं हो सकते. 

मात्रा (परिमाण) :  वर्णों के उच्चारण में लगने वाले समय को 'मात्रा' कहते हैं. विनती यही गोपाल हमारी. हरौ आज़ संकट-तम भारी. [गुपाल का उच्चारण किया जाने से हृस्व स्वर चिह्नित किया जाएगा, अन्यथा चौपाई में पहले ही चरण में सत्रह मात्रा हो जाने से लय दोष पैदा हो जाएगा ]

क्रम : किसी छंद के प्रत्येक चरण में वर्णों या मात्राओं का एक निश्चित अनुपात से प्रयोग 'क्रम' कहलाता है.

छंद के अंतर्गत 'क्रम का महत्व निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा - 
जहाँ सुमति वहँ सम्पति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना

यह चौपाई छंद का उदाहरण है, जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राओं का नियम है. इस चौपाई के अंतिम दोनों वर्ण दीर्घ हैं. किन्तु इसी उदाहरण को यदि यों कहा जाये – 
जहाँ सुमति वहाँ सम्पति नान, जहाँ कुमति तहाँ विपति निदान

यद्यपि इसमें मात्रा संख्या १६ ही हैं, तथापि इसे चौपाई छंद का शुद्ध प्रयोग नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके अंत में 'दीर्घ' और 'हृस्व' का क्रम होने के कारण इसकी स्वाभाविक गति में व्यवधान पड़ता है. इसीलिए छंद शास्त्रकारों ने चौपाई छंद का लक्षण बताते हुए स्पष्ट किया है कि इसके अंत में 'जगण' अर्थात हृस्व-दीर्घ-हृस्व [लघु-गुरु-लघु] मतलब [ISI] का क्रम नहीं होना चाहिए. 

यति : छंद में जो एक प्रकार की संगीतात्मकता रहती है, उसका कारण ध्वनियों का आरोह-अवरोह होता है. ध्वनियों के इस आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) का आधार बीच-भीच में रुक-रूककर ऊँचा या नीचा बोलना होता है. छंद के प्रत्येक पाद में यथावश्यक विराम की योजना भी इसीलिए रहनी आवश्यक है. इसी विराम योजना को 'यति' कहते हैं. 

गति : छंद में लय-युक्त प्रवाह का होना आवश्यक है. इसी 'गीति-प्रवाह' को गति कहते हैं. 

छंद के अंतर्गत नवोदित आभ्यासिक कवियों को लघु-गुरु का परिचय आवश्यक है. 
गणों को सहज-स्मरणीय बनाने के लिये एक अन्य संक्षिप्त सूत्र भी प्रचलित है – 
"य मा ता रा ज भा न स ल गा"

गण-परिचय — 
गण : तीन-तीन वर्णों के विशेष समूह को गण कहते हैं.  
गण संख्या : आठ प्रकार हैं.
सर्व गुरु — SSS [म गण] .....मातारा 
आदि गुरु — SII [भ गण] .... .भानस
मध्य गुरु — ISI [ज गण] .....जभान
अंत गुरु —  IIS [स गण] ......सलगा
सर्व लघु — III [न गण] .........नसल 
आदि लघु — ISS [य गण] ....यमाता
मध्य लघु — SIS [र गण] .... राजभा 
अंत लघु — SSI [त गण] ......ताराज 

मैं एक रचना की 'छंद कविता' लिखता हूँ विद्यार्थी गण उसका वाचन करके देखें, क्या उन्हें रस मिला? 

छंद कविता  

राजभा नसल यमाता गाल 
राजभा मातारा ताराज 
यमाता सलगा मातारा ल 
राजभा सलगा मातारा ल.

नसल मातारा सलगा गाल 
यमाता भानस सलगा गाल 
राजभा भानस भानस गाल 
यमाता सलगा मातारा ल. 

जभान यमाता सलगा गाल 
जभान यमाता सलगा गाल
जभान जभान यमाता गाल 
यमाता भानस मातारा ल. 

यमाता सलगा सलगा गाल 
राजभा सलगा सलगा गाल 
जभान यमाता मातारा ल 
राजभा जभान  मातारा ल. 


शब्द कविता  

पारिभाषित करने को आज़ 
सम्प्रदायों में होती जंग. 
मतों का पहनाने को ताज 
धर्म को करते हैं वे नंग. 

धर्म को आती सबसे लाज 
छिपाता है वह अपने अंग.
सोचता था पहले कर राज 
रहूँगा सबके ही मैं संग. 

रखा करते जो उसकी लाज 
वही नर-नारी करते तंग. 
विदूषक के वसनों से साज 
चलाते हैं उसको बेढंग. 

अँधेरी नगरी तम का राज 
ईश की करनी करती दंग. 
मिला तमचारियों को ताज 
धर्म हो गया भिखारी-लंग. 


यदि आप छंद कविता को गा पाते हैं और प्रवाह में कहीं व्यवधान नहीं पाते. तब आपकी रचना गेयता की कसौटी पर खरी है. और यदि उसमें कुछ व्यवधान पाते हैं तब उसे दूर करने का उपाय करें. 

प्रश्न 1 : यदि उपर्युक्त कविता की अंतिम पंक्ति में 'धर्म हो गया भिखारी-लंग' के स्थान पर ' धर्म बन गया आज़ भिखमंग' कर दिया होता तब मुझे क्या परेशानी हो सकती थी? सोचिये.

प्रश्न २ : चार पंक्ति की कोई एक छंद कविता रचें और उसपर शब्दों का अभ्यास करके दिखाएँ.

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर?

शीघ्र ही 'पाठशाला' फिर से शुरू होने वाली है. विषय होगा 'छंद चर्चा'. 

छंद के महात्म्य को पुनः स्थापित करने की मन में जो भावना प्रकट हुई,  वह अकारण नहीं हुई.
— पहला कारण, काव्य के आधुनिक रूप के प्रति मेरा प्रसुप्त आक्रोश.
— दूसरा कारण, मैं उन तम्बुओं को उखाड़ने का सदा से हिमायती रहा हूँ, साहित्य जगत में जिनके बम्बू केवल इसलिये गड़े कि वे कुछ अधिक गहरे दिखायी दें. 'टोली प्रयास' रूप में अपनी अलग पहचान कोशिशें और कविता को तरह-तरह के वादों में बाँटकर ये बम्बू उसे आज एक ऎसी दुर्दशा तक ले आये हैं जहाँ वह फूहड़ मनोरंजन के रूप में ही अधिक पहचानी जाती है. 
जब किसी क्षेत्र का कोई नियम टूटता है और उसकी सराहना करने वालों की तादात अधिक होती है .. तब उस क्षेत्र में अराजकता शीघ्र फ़ैल जाती है.

कविता के क्षेत्र में भी छंद-बंधन टूटते जा रहे हैं. यह टूटन कहाँ तक उचित है इस विषय पर आगे विचार जरूर करेंगे. आज ब्लॉगजगत में डॉ. रूपचंद शास्त्री 'मयंक' एवं श्री राजेन्द्र जी 'स्वर्णकार' छंद-नियमों को मानकर न केवल रचना कर रहे हैं अपितु छंद को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं. पिछले दिनों दोहों के वर्गीकरण पर श्रीमती अजित गुप्ता जी की एक सुन्दर पोस्ट देखने में आयी थी. छंद-ज्ञान प्रचार में उनका योगदान भी मुझे हर्षित कर गया. 

बहरहाल, छंद-चर्चा पर पाठशाला पुनः खोलने का अमित अनुरोध आया तो मैं अपने मन की इच्छा को छिपाकर न रख सका. बस कभी-कभी यह आभास होता है कि मेरा सीमित प्रयास निरर्थक सा है इस कारण ही बीच-बीच में उदासीन हो जाता हूँ. वैसे कुछ अन्य कारण भी बन आते हैं उदासीन होने के, लेकिन सुज्ञ जी जैसे विचारक मुझे संभाल लेते हैं. संजय झा हमेशा अपनी उपस्थिति से यह एहसास कराते हैं कि क्लास पूरी तरह से खाली नहीं है.

एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि मैं 'विषय का पंडित' नहीं हूँ लेकिन फिर भी मुझे 'निरंतर पूछे जाने वाले प्रश्न' कुछ नया सोचने को उत्साहित करते हैं. कृपया इतनी कृपा अवश्य बनाए रखियेगा कि 'प्रश्न' सक्रीय रहें, मृत न होने पायें. 

पाठशाला शुरू करने से पहले मैं अपने आक्रोश को प्रकट कर अभी फिलहाल खाली हो जाना चाहता हूँ :  

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर ?
वेदों की  छंदों में ही रचना क्यूँकर ?
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला ? 
किसलिये  श्लोक रचकर रहस्य ना खोला ? 

क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था ? 
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था ? 
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी ? 
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी ? 

'कवि' हुये वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को . 
आहत पक्षि कर गया था भावुक उनको . 
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा .
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा .

माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू ? 
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू ? 
या रामायण के लिये भी डाका डाला ? 
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला ? 

हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो ! 
क्या अब भी ऐसा हो सकता है ? बोलो . 

अब तो कविता में भी हैं कई विधायें . 
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें . 
अब नहीं छंद का बंध ना कोई अड़चन . 
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन . 

कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये ? 
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये ? 

छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला. 
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला. 
मिल गई छूट सबको बलात करने की . 
कवि को कविता से खुरापात करने की . 

यदि होता कविता का शरीर नारी-सम . 
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम . 

'छायावादी' ... छाया में उसको लाता . 
धीरे-धीरे ... उसकी काया .. सहलाता. 
उसको आलिंगन में .. अपने लाने को . 
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता . 

लेकिन 'रहस्यवादी' करता सब मन का .
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का .
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता. 
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता . 

पर, 'प्रगतीss वादी', भोग लगा ठुकराता . 
कविता के बदले 'नयीS .. कवीता'* लाता. 
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को . 
बेचारी कविता को ... वन्ध्या ठहराता . 

और 'प्रयोगवादी' ...  करता छेड़खानी .
कविता की कमर पकड़कर कहता 'जानीS'
करना 'इंग्लिश' अब डांस आपको होगा . 
वरना ......... मेरे कोठे पर आना होगा . 

अब तो कविता-परिभाषा बड़ी विकट है . 
खुल्लमखुल्ला कविता के साथ कपट है .
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है .
कविता वादों का ... नहीं कोई सम्पुट है . 

ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है .
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है .
जिसकी निःसृति कवि को वैसे ही होती . 
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव ... पर होती . 

जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है .
कविता भी ऎसी दशा बिना सरहद है .

बुधवार, 23 मार्च 2011

मिल गयी हमारी छिपी बात

मिल गयी हमारी छिपी बात 
लज्जा से गुंठित थे कपाट. 
तेरी सखि शोधक बहुत तेज़ 
रखते तुम क्यों नज़रें सपाट?

हो सरल हृदय करुणाभिसिक्त 
दीठी सखि की है स्यात तिक्त.
पिछली कविता का भेद खोल 
कारण जाना 'मम स्नेह रिक्त'.*

बलहीन कलम कविता विहीन 
हत मीन नयन मेरी ज़मीन.
नट बने भाव आते-जाते.
जीवट पर तेरे है यकीन.