'रोङ्ग नंबर' के साथ छंद चर्चा और ध्वनि परिवर्तन की दिशाएँ
किसी विषय पर होने वाली बातचीत से निकलते प्रश्न और उनके उत्तर खोजने में किया जाने वाला स्वाध्याय एक विषय को दूसरे विषय से जोड़ देता है. तब महसूस होता है कि एक विषय अपने आप में परिपूर्ण नहीं वह भी अन्य विषयों की जानकारी की अपेक्षा रखता है. मैं चला तो था छंद पर बातचीत करने लेकिन भाषा में आये बदलाव को बतलाना भी जरूरी-सा लगता है. इसलिये अब से कविता के साथ-साथ छंद-चर्चा के पाठों को भी भाषा-विज्ञान की जानकारी के साथ लेकर चलेंगे.
'रोङ्ग नम्बर'
हलक में सिकुड़ रही थी प्यास।
पलक का विनत हुआ था व्यास।
स्मृतियाँ करने आयीं रास।
दर्शन का था पर उपवास।
अचानक दौड़ा आया स्वर।
घुसा कानों से मम अंतर।
मैंने गोदी लेना चाहा ।
निकल भागा कह 'रोङ्ग नंबर'।
छंद-चर्चा
उपर्युक्त छंद में ऐच्छिक मात्रिक विधान किया जा सकता है. 'प्यास' 'व्यास' पर तो जैसा होना चाहिए वैसा ही होगा. लेकिन 'स्मृतियाँ' शब्द में 'इ' का आगम करके 'इस्मृतियाँ' शब्द पर ऐच्छिक मात्रिक विधान करना पड़ेगा अन्यथा छंद की तीसरी पंक्ति को एक मात्रा की कमी झेलनी होगी. दूसरा पद सममात्रिक छंद का उदाहरण है. सममात्रिक छंद में पहले व दूसरे [१-२] में और तीसरे व चौथे [३-४] में बराबर मात्राएँ होती हैं.
ध्वनि परिवर्तन की दिशाएँ
संस्कृत वैयाकरणों ने ध्वनियों के विकास की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है : [१] वर्णागम, [२] वर्णलोप, [३] वर्ण-विपर्यय, तथा [४] वर्ण विकार. वैसे तो आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों ने ध्वनि-विकास की कई प्रमुख वजह तलाश ली हैं, जिनमें १) आगम, २) लोप, ३) विपर्यय, ४) समीकरण, ५) विषमीकरण, ६) मात्रा-भेद, ७) घोषीकरण, ८) अघोषीकरण, ९) महाप्राणीकरण, १०) अल्पप्राणीकरण, ११) ऊष्मीकरण, १२) अनुनासिकीकरण, १३) संधि, १४) भ्रामक व्युत्पत्ति, तथा १५) विशेष परिवर्तन.
......... ये समस्त परिवर्तन मूलतः परिणाम हैं पर इनके मूल में कुछ कारण भी होते हैं. यहाँ पर उन्हीं कारणों का उल्लेख करता हूँ :
ध्वनि-परिवर्तन के कारण
(क) प्रमुख आभ्यंतर कारण :
— वाक् यन्त्र की विभिन्नता
— श्रवणेन्द्रिय की विभिन्नता
— अनुकरण की अपूर्णता
— अज्ञान
— प्रयत्न लाघव या मुख-सुख
— बोलने में शीघ्रता
(ख) गौण आभ्यंतर कारण :
— भावातिरेक
— आत्म-प्रदर्शन
— विभाषा का प्रभाव
— मात्रा, सुर या बलाघात
— सादृश्य
— लिपि की अपूर्णता या लिपि दोष.
(ग) बाह्य कारण :
— भौगोलिक कारण
— ऐतिहासिक परिस्थितियाँ या काल प्रभाव.
.... उपर्युक्त कारणों का आगामी पाठों के साथ विस्तार किया जाएगा. अभी केवल इतना कहकर बात समाप्त करता हूँ कि वैदिक ध्वनियाँ ही संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से होती हुई हिन्दी में आयी हैं. यह परम्परागत ध्वनि समूह विदेशियों के संपर्क से भी प्रभावित हुआ है. जैसे - द्रविड़ के संपर्क से मूर्धन्य [ट, ठ, ड, ढ] तथा मुगलों के संपर्क से क़, ख़, ग़, ज़, फ़ (पाँचों नुक्ते वाले व्यंजन) ध्वनियाँ हिन्दी में शामिल हो चुकी हैं. इस प्रकार ध्वनियाँ ऐतिहासिक तथा काल के प्रभाव से परिवर्तित होती हैं.
प्रश्न : ओष्ठ मिलाकर बोला जाने वाला 'फ' वर्ण और बिना ओष्ठ मिलाये बोला जाने वाला 'फ' वर्ण में क्या अंतर है? फल और फ़ल में अंतर पहचानते हुए स्पष्ट करें।
13 टिप्पणियां:
फल और फ़ल, बढि़या उदाहरण.
सुंदर भाषायी जानकारी.... फल के उच्चारण का उदाहरण सुंदर
उत्तम चर्चा।
स्मृतियाँ करने आयीं रास।
दर्शन का था पर उपवास
इन दोनों पंक्तियों का मात्रा विधान बताएं।
स्मृतियाँ करने आयीं रास।
2112 112 22 21 = 17
दर्शन का था पर उपवास
211 2 2 11 1121 = 15
क्या यह सही है? यदि सही है तो पहली पंक्ति में 17 और दूसरी में 15 मात्राएं, सही होती हैं क्या?
क्या यह सही है? यदि सही है तो पहली पंक्ति में 17 और दूसरी में 15 मात्राएं, सही होती हैं क्या?
@ अजित जी, ठीक पहचाना. आपने गलती की तरफ सही इंगित किया.
यदि हम स्मृति को इस्मृति मान भी लें और मात्रिक विधान करें तो होगा :
स् + म् + ऋ + त् + इ = १ + १
लेकिन इसका ऐच्छिक मात्रिक विधान करते ही :
इ + स् + म् + ऋ + त् + इ = 211 प्राप्त होगा.... मतलब कि १७ मात्राएँ.
अतः इसमें छंद की दृष्टि से भारी कमी रह गयी है.
चलिए, इन दो पक्तियों को फिर से लिखकर देखते हैं :
स्मृतियाँ रचती रहीं रास. [ऐच्छिक विधान से १६ मात्रा]
सुदर्शन का था पर उपवास. [सु जोड़कर एक मात्रा की पूर्ति कर ली.]
अब कविता का अर्थ :
@ मेरा कंठ सूख रहा था, प्यास लगी थी लेकिन उसको शांत करने का उपाय नहीं कर रहा था.
पलकें अपने अर्ध गोलाकार रूप के साथ बंद होने लगी थीं. चेतनाशून्य हो रही थी, निद्रा आ रही थी. पूर्व की कुछ मधुर यादों से घिरा हुआ था, लेकिन जानबूझकर उस पात्र का सुन्दर दर्शन नहीं कर रहा था जो प्रिय था.
दर्शन करने से स्मृतियों की मधुरता समाप्त होने का भय था. [कभी-कभी घटना प्रधान हो जाती है व्यक्ति गौण हो जाता है.]
@ 'दर्शन के अनशन' के समय में एक नन्हाँ कोमल स्वर दौड़ा आया और मेरे कानों के रास्ते मेरे हृदय में घुस गया. मेरी ममता जाग गयी मैंने उस स्वर को गोदी लेने को हाथ ही बढाया था कि वह 'रोंग नंबर' कहकर निकल भागा.
अक्सर,पढ़कर लाभान्वित होना ही विकल्प रह जाता है। टिप्पणी के लायक कुछ मिलता नहीं।
हलक में सिकुड़ रही थी प्यास।
पलक का विनत हुआ था व्यास।
स्मृतियाँ करने आयीं रास।
दर्शन का था पर उपवास॥
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
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@ वैद्यराज कुमार राधारमण जी, मुझे आपके ब्लॉग पर बड़ी श्रेष्ठ जानकारियाँ मिला करती हैं. मुझे तो जबरन बतियाने की और चुटकियाँ लेने में रस मिलता है. इसका अर्थ कतई ये नहीं कि आप इस पाठशाला में आयें और ऋण-स्वरूप टिप्पणी का चुकता करें. मुझे तो बड़ों के अनुभव से काफी कुछ सीखने की आदत है. आजकल वह पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था कहाँ रही कि मैं किसी बुजुर्ग की खटिया के किनारे जाकर उनके जीवनानुभव सुनूँ. आप केवल एक स्मिति :) ] छोड़ जाया करें. इस तरह मुझे लगेगा कि आप मेरे पाठ को देख कर गये हैं.
@ दिव्या जी, इस रचना का श्रेय तो एक नन्हीं बच्ची को है जो गलती से मेरे कान के रास्ते हृदय तक आयी और रोंग नंबर कहकर वापस भाग गयी. : (
प्रतुल जी , यदि उस छोटी बच्ची ने इतनी श्रेष्ठ रचना आपसे करवा दी , तो ये सिद्ध होता है की कभी-कभी रोंग नंबर भी कितने मधुर होते हैं। आपको एवं उस छोटी सी बच्ची को अनेक शुभकामनाएं।
मेरा सही नंबर लगा और मै कुछ सीख कर ही जाऊंगा इस पाठशाला से प्रवेश ले लिया मैंने जबरिया . हा हा .
काफी कुछ सीखना पडेगा । हम तो अपने कान पर ज्यादा भरोसा करते हैं ।
जैसे मैने गोदी लेना चाहा की जगह
गोद में लेना चाहा जब
कानों को ज्यादा सही लगता है ।
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