लो खुला द्वार
मैंने उधार
माँगा चन्दा से चंद तेल
"दिविता से लो" कह टाल दिया
"मैं शीतल, वो पावक-गुलेल।"
पावक-गुलेल
लक्षित विचार
कृमि कागों का करती शिकार।
बरसाती रक्तिम गाल किये
कटु-कटु संवादों की कतार।
कर मुक्त भार
अनशन विचार
चढ़ती ऊपर फिर 'छंद-बेल'।
दर्शन लेने की करे क्रिया
पावक-गुलेल से हँसी खेल।
16 टिप्पणियां:
पढ़ रहा इसे मैं बार बार |
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
शुक्र है टिप्पणी द्वार खुले तो।
सुन्दर प्रस्तुति .
@ रविकर जी, मेरे कुछ साथी ऐसे भी हैं जो नहीं चाहते कि 'गुप्त खनिज' को पूर्णतया स्पष्ट किया जाये... मात्र झलक देना पर्याप्त है.
फिर भी थोड़े शब्दों में विस्तार किये देता हूँ.
@ जब दर्शनीय पात्र के दर्शन मिलना दुर्लभ हो गये... और बाल-हठ के कारण मैंने भी दर्शन-अनशन आरम्भ कर दिया... द्वार बंद करने के कारण दर्शन कहाँ मिलते, संवाद कहाँ होता.. जैसे पक्षों पर विचार नहीं किया... रूठने के भाव में विवेक दूरी बना लेता है.... और ऎसी अनशन दशा में ..तभी............
@ एक दिन अचानक बंद द्वार खुला... देखा .. सामने चन्दा था ... मैंने उससे अनुनय किया .. "मुझे थोड़ा स्नेह चाहिए...कुछ ऊर्जा चाहिए ... प्रतीक्षा ने आशा-दीपक की लौ लगभग बढ़ा-सी दी है"
चन्दा ने मेरा अनुरोध अस्वीकार करते हुए बात बनायी, "मैं तो बेहद शीतल हूँ, तुम्हें दिविता (सूर्य) के पास जाना होगा. वही है जो अपनी इच्छा से भरपूर स्नेह लुटाती घूमती है. तुम्हें दिवस के उजाले में जाना ही होगा."
@ वह पावक-गुलेल उन वैचारिक कीड़े और कौवों का शिकार करती है जो सड़े में बिलबिलाते हैं और निरर्थक शोर करते हैं. शिकार के समय वह इतना क्रोधित हो जाती है कि एक-के-बाद-एक कटु संवादों की बौछार कर देती है.
@ मैंने अनशन का विचार छोड़ दिया.... उसको सतत बनाए रखने का मानसिक बोझ हटा दिया... और लम्बे समय से अपने रुके हुए स्वभाव के वाह को मुक्त किया... 'छंद लतिका' ऊपर बढ़ने के फिर प्रयास करने लगी... मैं तो दर्शन जीवी हूँ, बिना दर्शन के रह नहीं सकता ..... इस तरह अपने अभीष्ट का दर्शन करके, फिर स्वयं ही उसका अभाव लाकर मैं तो पावक-गुलेल से ठिठोली करता हूँ.
रविकर जी, अब आपके मन में प्रश्न आयेगा कि इस 'पावक-गुलेल' का क्या अर्थ है?
पावक-गुलेल के कई अर्थ हो सकते है :
शब्दार्थ : आग्नेयास्त्र;
निहितार्थ : जो ऊष्ण (कटु) संवादों से चुन-चुनकर चोट देता हो;
सरलार्थ : जहाँ स्नेह की प्रचुरता होती है वहीं पावक उत्पन्न होता है, अधिक स्नेह करने वाले ही ऊष्ण स्वभावी होते हैं...अर्थात तेजस्वी, ओजस्वी होते हैं.
शीतल स्वभाव के स्नेहीजनों में लिप्साएँ पायी जाती हैं... वे 'स्वान्तः सुखाय' में ही खोये रहते हैं... वे व्यक्तिगत आनंद खोने की कल्पना नहीं कर सकते.
व्यंजनार्थ : दिव्यास्त्र
संभावित अन्यार्थ : गाली-गलौज करने वाला, अपशब्द वक्ता.
सर जी......आपकी काव्य रचना बेहद पसंद आई। आपने अर्थ स्पष्ट कर दिया..इसके लिए आपका हार्दिक आभार।
आपने टिप्पणी द्वार खोल दिया इसके लिए भी आभार।
एक बात और .....आपका टिप्पणी के माध्यम से वार्तालाप करना बेहद पसंद आता है। आप लिखते जटिल है लेकिन हृदय से बेहद सरल हैं। मुझे ऐसा लगता है।
आपको कोटि-कोटि मंगलकामनाएं।
बहुत-बहुत आभार है, दिखे वांछित द्वार ।
आनंदित रविकर हुआ, परख पावकी-प्यार ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
@ सञ्जय जी,
जो सहजता से मिलता है उसका मूल्य प्रायः हम नहीं आँकते. भोजन, जल, वायु और प्रकाश. जिसको ये भी नसीब नहीं होते वे जानते हैं इनकी कीमत. आपके दर्शन सहज सुलभ हैं. लेकिन आरम्भ में आपने भी अपनी पहचान को प्रकृति में मिश्रित किया हुआ था. तब बातों के हलवाई और फत्तू के पैदायी को देखने की इच्छा रहा करती थी.
वैसे तो मैं निराकार परमेश्वर को पूजता हूँ, फिर भी परमेश्वर की प्रतिभायुक्त कृतियों के दर्शन कर आनंदित होता हूँ.
सञ्जय जी, द्वार लगाना* तो भी ठीक है बस मधुर संबंधों में कभी दीवार नहीं खड़ी होने दूँगा.
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@ आदरणीय डॉ. रूपचंद्र शास्त्री जी,
बड़ों का आशीर्वाद है कि सभा और विद्वत मंडल में छोटों की चर्चा करते रहते हैं. मनोबल बढ़ता है.
@ प्रिय वीरूभाई जी,
आपके आगमन का आभारी हूँ.
@ प्रिय भाई विरेन्द्र जी,
आपने ठीक पहचाना, भाई ने भाई को जाना. :)
@ रविकर पावक-प्यार से, शीतल जड़ता जाय.
लेकिन अति'शयता बुरी, कोमल त्वक झुलसाय.
रविकर जी, आपके ब्लॉग पर कल ही आगमन हो पायेगा.
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