मुझसे मेरे मित्र बारह वर्ष के उपरान्त आकर मिले.... उनके साक्षात दर्शन से मन बहुत प्रसन्न हुआ... उनके भारत आगमन से मेरे आग-मन को जो ठंडक पहुँची... वह बहुत ही आनंददायी थी... उनका बातचीत के बीच-बीच में मेरे हाथों को छूना... और कहना इस अनुभूती को लेकर जाना चाहता हूँ... परन्तु मैंने कैमरा होने के बावजूद उनकी छवि को संजोया नहीं..... केवल उन्हें पहले की भाँति कुछ अन्य मीठी स्मृतियों के साथ मन में बिठा लिया. .... जब उनका विवाह नहीं हुआ था, तब उनके विचारों को मैंने उनकी 'बायोग्राफी' लिखकर आकार दिया था.... सोचता हूँ आज उसे ब्लॉग-जाहिर कर दूँ.. और आत्मकथा को आगे विस्तार दूँ....
मित्र संजय राजहंस [चित्र फेसबुक से साभार]
कुछ कहूँ
अपने विषय में
और अपनी सोच के अनुसार
उन सबके विषय में
जो रहे थे साथ कुछ दूरी बनाकर
और वे भी
जो न पलभर भूलते थे साथ मेरा
किन्तु घेरा है अभी तो
गत रुपहली यादगारों का हृदय में
— उन्हें कह लूँ.
बाद उनके फिर कहूँगा
आपके-अपने विषय में.
जब नहीं जाना था मैंने -
'प्रेम क्या है'
और क्या है -
प्रेम के उन्माद में दिन-रात जगना
प्रिय विरह में काम-स्वर से
- तपना, कराहना, कँपकँपाना
तब रात की निद्रा से पहले
कल्पना कर सिहर जाता -
'एक सुन्दर खिलखिलाती कामिनी की
जो सुनहरी केश बिखराए खड़ी रहती सिरहाने.
और तब से
मैं योरोपी गौर वर्णी
पुष्ट अंगी बालिका से
बंध जोडन चाहता हूँ.
यादों के दस्तावेज़ में
बचपन अभी भी है सुरक्षित.
घर के पास में ही था शिवालय.
नित्य प्रातः पूजता था लिंग
शिव को जल चढ़ाकर
और अपनी पाठशाला
के सभी लड़के बनाते मित्र मुझको
कुछ फ़ल बढ़ाकर.
गाँव भर के
बड़े-बूढों और जवानों
का बना मैं रेडियो था.
- खेल, राजनीति की खबर सब
मैं उन्हें विश्लेषण तरीके से सुनाता.
गाँव की ही एक बाला
प्रेयसी थी
अग्र जन्मे सहोदर की
पर मुझे सौन्दर्य उसका
और उसको स्यात मेरा
खींचता था सम परस्पर.
किन्तु जीवन
एक रस में नहीं चलता
बाबूजी ने
गाँव की उस पाठशाला से हटाकर
श्रेष्ठ शिक्षा हेतु मुझको
क्रिश्चेन स्कूल डाला.
कुछ समय
अपने प्रियों की
याद अकसर ही सताती
थी मुझे पर
पास आती
दो नवेली सखी
जिसको मैं प्रिय लगने लगा था
- स्मृति से उद्भूत पीड़ा
मोचती, उसको भुलातीं.
स्कंध पर धर हाथ
उनको मैं बताता
दायित्व का निर्वाह
जिसको है सताता
वो हटाता
हाथ.. सूज़न, अये अनीता.
इस तरह 'सुख'
सूत्र में हो बद्ध
- मेरे पास रहता
और पुनरावृत्ति में
'विश्वास' मेरा
हर विषय, हर सोच में
घटता रहा है.
वाक् कौशल पर टिका
- व्यक्तित्व मेरा
किन्तु उसके मूल में है
आँकड़ों का उर्वरक
औ' ज्ञान सिंचित
चिर पिपासा.
एक भाषा जानता मैं
था अभी तक
दूसरी तुमने सिखा दी.
एक थी जिससे
स्वयं को व्यक्त करता
और विनिमय हुआ करता
था विचारों का उसी से.
दूसरी नयनों के पथ से
अश्रुओं के साथ मिलकर
जो बहा करती निरंतर.
श्याम लोचन देख तेरे
सीख पाया - स्वप्न मेरे.
माँ! तुम्हारी भक्ति की सौंगंध
मुझको - 'जो कहूँगा, सच कहूँगा'.
अंश तेरा मैं स्वयं को मानता हूँ.
सो दीख पड़ता अंश तेरा ही सभी में'
इसलिये माँ
देखता जब भी
तुम्हारी छब जिसमें
या संभावित सुमाता
- मैं विनत होता
'शरीरज भाव फुल्लित'
शब्द जिह्वा पर थिरकते
पर, भटकते देख पायी
सिर्फ कीचड़
आँख मेरी
पर न तेरी याद ने
मुझको उबारा.
शेष ... फिर कभी...