शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

मन के छिपे भाव पहचानो

छात्र हमारे बड़े हो गये 
साथ-साथ रह सकुचाते.
मिलने को गुरु की शाला में
एक साथ अब ना आते.

पूर्व दिशा में बिजली चमके
पश्चिम में बादल छाते.
वर्षा होती ठीक मध्य में 
प्यासे दोनों रह जाते. 

पूर्व दिशा की शुष्क शिला ने 
भेदभाव पहचान लिया. 
पश्चिम दिक् के सैकत-झरने 
ने मरीचिका गान किया. 

स्नेह कौन से स्वर में उनसे   
ऋण-चुकता संवाद करे. 
इतना बोझ लदा है मन पर 
चुपके-चुपके आह भरे.

45 टिप्‍पणियां:

Vivek Jain ने कहा…

बेहद सुंदर,
आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

स्नेह कौन से स्वर में उनसे
ऋण-चुकता संवाद करे.
इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे.


अति सुंदर........ प्रभावित करती अद्भुत काव्य रचना

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

चुपके चुपके इतना कुछ..!!

रविकर ने कहा…

मिलने को गुरु की शाला में
एक साथ अब ना आते.

सुन्दर प्रस्तुति,
हार्दिक बधाई ||

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

shital karti is rachna ke liye......
apko sadhuvad......kaksha ke sabse
kamjor kshatra ko jo atrikt sneh
dete rahe uske liye ham kritagya hain......

hamare manke bhav naisargik hote hain.....aisa hona bhi chahiye....
lekin iska sthaitwa hona kashtkar
hota hai.........

pranam.

दिवस ने कहा…

वाह बेहद सुन्दर...

Amit Sharma ने कहा…

शुष्क शिला को अपने स्नेह (विरह-ताप) से इतना तप्त कर दीजिये की शिला में से दिव्य गुण युक्त प्रेमोषधी बहने लगे.

Unknown ने कहा…

स्नेह कौन से स्वर में उनसे ऋण-चुकता संवाद करे. इतना बोझ लदा है मन पर चुपके-चुपके आह भरे.

वाह मनोभावों को उकेरती एक बेहतरीन रचना.प्रवाहमयी रचना पढ़कर अच्छा लगा

ZEAL ने कहा…

.

@--शुष्क शिला को अपने स्नेह (विरह-ताप) से इतना तप्त कर दीजिये की शिला में से दिव्य गुण युक्त प्रेमोषधी बहने लगे....

----------

अमित जी ने बेहतरीन विकल्प प्रस्तुत किया है , लेकिन इस विकल्प से मन में एक संशय उत्पन्न हुआ है की विरह-ताप के कारण शुष्क-शिला के और भी शुष्क हो जाने का खतरा बना रहता है . अतः मेरे विचार से प्रेम की वर्षा द्वारा शुष्क से शुष्क hridayon को भी आर्द्र किया जा सकता है.

कविता में स्नेह और प्रेम के भाव हैं , जो कविता प्रेमियों के ह्रदय को अपने स्नेह से भिगोने में पूर्णतया समर्थ है. .

.

Smart Indian ने कहा…

जटिल रोग उपचार जटिल है
सरल चाल पर राह कुटिल है

मन किसका मैं कब पढ पाया
दर्द से मन अपना बोझिल है

Amit Sharma ने कहा…

दिव्याजी कुछ विशिष्ट प्रकार की शिलाओं के अत्याधिक तप्त होने पर उनमें से दिव्य गुण युक्त औषधि निःसृत होने लगती है. ध्यान दीजियें चट्टानें विशिष्ठ होनी चाहियें, और उनको तप्त करने वाले ताप में भी अत्यंत तेजस्विता होनी चाहियें. तभी शिला के अंतस में बसा जीवन पुष्टिकारक प्रेम रुपी रस निकलेगा . उस रस का काला होना द्योतक है की सात्विक और अनन्य प्रेम पर फिर कोई दूसरा सांसारिक रंग नहीं चढ़ सकता है. और ऐसा प्रेम गोपी रुपी शिलाओं के कृष्ण प्रेम की अगन और विरह की तपन को पाकर प्रकट हुआ था. जो की स्वयं अपने प्रेमास्पद का स्वरुप था, अर्थात साक्षात् कृष्ण था.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इसके अलावा आप द्वारा सुझाए गए विकल्प में भी ताप की आवश्यकता है. क्योंकी वैज्ञानिक तथ्य है की वर्षा के आगमन के लिए मौसम में ताप की अधिकता होना आवश्यक है. इसलिए स्नेहयुक्त विरह ताप जितना होगा प्रेम-वर्षण उतना ही अधिक होगा.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

सुज्ञ ने कहा…

अमीत जी,
यह प्रेम व्याख्या है या शीलाजीत उत्पत्ती कथा?

गुरूजी,
कविता अमृतवृषण है।

स्नेह कौन से स्वर में उनसे
ऋण-चुकता संवाद करे.
इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे.

ZEAL ने कहा…

अमित जी ,
सहमत हूँ आपके उम्दा विवेचन से.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ विवेक जी,
घूम-घूम घर मेरे आये
'बेहद सुन्दर' बोंल सुनाये.
हम भी एक निमंत्रण पाकर कर आये फेरी.
भीगा हूँ वर्षा पानी से
मिला प्रसाद भवानी से
सभी आवरण हटा हो गया जैन बिना देरी.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. मोनिका जी,

आपका आगमन अत्यधिक शिष्टाचार वाला होता है... नपे-तुले कदम, नपे-तुले चिकित्सकों वाले संवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

चुपके चुपके इतना कुछ..!!
@ सञ्जय जी, हृदय में जितनी अधिक पीड़ा होती है स्वर उतना ही अधिक धीमा और मर्मान्तक होता है... और ऐसे भाव एकांत में धीमे-धीमे ही पिघलते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी,
छात्र जब बड़े-बड़े कारनामे करने लगें तब वे परस्पर का बाल-सुलभ सरल स्वभाव भुला बैठते हैं.... तब प्रतीत होता है कि वे वास्तव में बड़े हो गये हैं या फिर उनका अहं उनसे बड़ा हो गया है. एक यही कारण है वे कभी एक मंच पर नहीं दिखायी देते.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

हमारे मन के भाव नैसर्गिक होते हैं... ऐसा होना भी चाहिए...लेकिन इसका स्थायित्व होना कष्टकर होता है.

@ आज सञ्जय जी ने 'छोटा मुँह बड़ी बात कहने के अंदाज़ में' न केवल शालीनता का परिचय दिया अपितु एक श्रेष्ठ उपदेश भी कर दिया.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

दिवस जी,
आपकी वाह में ...... 'पाठशाला' की चाह ... की झलक मिल रही है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अमित जी,
पाठशाला में छात्रों के बीच बातचीत होती रहे ... उसी से तो पाठशाला की शोभा है.

अब देखो सभी स्कूल खुल चुके हैं .. और हमारी पाठशाला में कई छात्र अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा रहे. इस कारण ही शिक्षक महोदय को लगा कि छात्र परस्पर नाराज़ हैं... परस्पर संवादहीनता ने ये संशय ला दिया था. पर अब ये संशय समाप्त हो चुका है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कुश्वंश जी,
जो वाह मन के भीतर था बाहर आया तो उस प्रवाह में आपका मन भी बह चला .. ये आपके मन के हलकेपन की निशानी है.

मन है ... वह भी हलका... वैसे भी मन को 'मनभर' भारी रखना ठीक नहीं होता.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

स्नेह कौन से स्वर में उनसे
ऋण-चुकता संवाद करे.
इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे.

..मन के भावों को खूबसूरती से लिखा है ..

आह की आहट ने मुझे
यहाँ ला खड़ा किया
मौन की भाषा में मैंने
ऋण चुकता संवाद किया ..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

स्नेह कौन से स्वर में उनसे
ऋण-चुकता संवाद करे.
इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे.....

सुन्दर प्रवाहमय रचना ... मन का बोझ कम करने को ही माध्यम है कविता ...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

.

दिव्या जी,
संवाद ही वो ताप है जिससे न जाने कितनी रुक्षता पिघल जाया करती है. आपने उसे फिर स्थापित करके व्यर्थ के संशय को जड़ें जमाने से पूर्व ही समाप्त कर दिया. ये रुक्षता कहीं भी कभी भी आ सकती है... बस अपने साथियों के कुछ विशेष गुणों को ध्यान कर अखरने वाली बातों को विस्मृत करते रहना चाहिए.

स्वेड मार्टेन का एक विचार पढ़ा था ........... "सहन करो और टाल जाओ" .. जो सहन करते हैं और अप्रिय बातों को टाल जाते हैं, वे सुखी रहते हैं. उनका परिवार हँसते-हँसते जीता है. — ..... मैं भी अपनी पाठशाला में सौहार्द लौटाना चाहता था...... और आपने अपेक्षित संवाद किया भी. आपने कविता के मर्म को जाना और व्यवहार किया... आभार.

.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनुराग जी,

आपके नाम को ही हम हृदय में गुण रूप में स्थापित किये हैं... 'संशय रूपी' जटिल रोग को सरल चाल चलकर ही भगा रहा हूँ.. आशा है और विश्वास भी ... अपेक्षित परिणाम निकलेंगे... और निकल भी रहे हैं. आपने हमारे दर्द को अपना दर्द समझा ... इसी संवेदनशीलता की चाह रहती है. आपका अनुराग सदा की तरह मिला मेरे मन का बोझ कम हुआ... अब आप भी मन का बोझ हटायें.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी,

आपने अमित जी को कक्षा में आते ही छेड़ना शुरू कर दिया.... अभी तो उन्हें अपना बस्ता रखने दीजिये... फिर भाग गये तो... बहुत मुश्किल से लौटेंगे.

कक्षा में संवाद बना रहे ... उससे ही जीवन्तता रहती है. अभी मुझे पाठशाला में एक बड़े आयोजन की तैयारी करनी है. छंद-चर्चाओं के पाठ मानस में तैयार हों ... इस बीच काव्य की फुहारों से ही आप इस वर्षा-सत्र में भीगेंगे .... सभी अपने-अपने बचाव के लिये छाता लाना शुरू कर दें. कक्षा की छत टपकती है ... प्रायः अमित जी और दिव्या जी को भिगोती रहती है. सञ्जय झा जी तो हमेशा बरसाती लेकर चलते हैं. भीगते ही नहीं... होशियार हैं. लेकिन ये बरसात से तो बच जाते हैं लेकिन अब परीक्षा से भी बचने लगे हैं. इस बार इन्होने दो लड्डू लेकर भी प्रसन्नता जाहिर की... :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

.

नर्सरी विद्यार्थियों के लिये अगली बार एक छोटा प्रश्न-पत्र दिया जायेगा.... तैयारी रखें. जो विद्यार्थी नर्सरी-परीक्षा देना चाहते हैं... वे सभी बाल-रचनाओं वाले ब्लोग्स पर अभी से जाना शुरू कर दें... वही उनका पाठ्यक्रम है.

सुज्ञ जी,
इसकी सूचना विद्यार्थियों को अलग से भी दीजिएगा. संभव हो तो उन्हें बाल-ब्लोग्स के लिंक्स उपलब्ध करायें.

.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,

पाठशाला के विद्यार्थी जैसे-जैसे विभिन्न मंचों पर कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं... उससे संशय हुआ कि कहीं उनके व्यक्तित्व में अहं का छींटा न पड़ जाये...

दूसरी बात जन-कल्याण से जुड़े कार्यों में परस्पर का सहयोग अपेक्षित रहता है... वहाँ तो कम-से-कम वे परस्पर उपस्थिति दर्ज करायें... उनके अहं चोटिल दिखाये देने लगे थे. मन कराह उठा. जहाँ वर्षा होनी चाहिए थी वहाँ वर्षा होती नहीं ... मरुस्थल की रेत उड़ा करती है. बेशक परिस्थितियों के कारण... जो अधिक फ़ल से लद जाता है वह अधिक झुक जाता है... लेकिन जब यह झुकाव आरम्भ में नहीं दिखा तो भी मन में संशय उठा... कहीं फ़लदायी डाल की ये दृढता उसे तोड़ कर न रख दे.

क्योंकि हमें राष्ट्रीय कार्यों में सभी की भागीदारी चाहिए... सभी में कुछ कमी और कुछ गुण हैं.... इसलिये कमियों को भुलाकर गुण-विशेष को ध्यान में रखकर एकजुटता दिखानी चाहिए......... स्नेह की वर्षा जब होती है तो कहीं अधिक और कहीं कम परिस्थितयों की माँग पर होती है.... इस बात को भोले बालक नहीं जानते.

संगीता जी, मैंने भी अपनी मौन की भाषा को शब्द दे ही दिये. ... यही है ऋण-चुकता संवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आदरणीय दिगंबर नासवा जी,

मैं आपसे पहचान करने आपके ब्लॉग पर गया ... वहाँ 'बीसवीं सदी की वसीयत' में ... प्रगतिवादी कविता अभी भी जीवित दिखी.

यथार्थ के आक्रोश को 'अकविता' में कैसे पिरोया जाता है... सीखने को मिला. विद्यार्थी शायद आपके ब्लॉग पर जाते रहे हों. किन्तु मैंने वहाँ कई पाठशाला निरीक्षकों को देखा.. तो अपने सीमित दायरे का भान हुआ. अभी तो आपके ब्लॉग की सदस्यता ले रहा हूँ ..... अध्ययन करने का विचार है.

ZEAL ने कहा…

.

आदरणीय प्रतुल जी ,

सहमत हूँ इस बात से की संवाद से पत्थर भी पिघल जाते हैं . अकाट्य सत्य है यह निसंदेह.

भाई बहन के इस पवित्र रिश्ते में कभी संवाद में विलम्ब हो तो मन में कोई संशय मत रखियेगा, यही समझिएगा की बहन , भारी मुश्किल में है , नाराज़ नहीं.

.

sm ने कहा…

इतना बोझ लदा है मन पर
चुपके-चुपके आह भरे
nice poem

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

प्रतुल जी आपका संवाद पढ़ा ... कभी कभी अहं होता नहीं पर समझ लिया जाता है ... फलों से लदी डाल में इतनी लचक होती है कि वो स्वयं को संभाल सके ...

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

पहले तो आपको बहुत-बहुत धन्यवाद क्योंकि टिप्पणी स्वरूप इतनी सुंदर रचनाएं पढ़ने के मिलीं...
लेकिन ब्लॉग और किताबों में काफी अंतर है...
खैर...वो रचनाएं बहुत अच्छी हैं
और आपकी यह रचना अच्छी लगी...

एक बेहद साधारण पाठक ने कहा…

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर सभी मित्रों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

pahli baar aapke blog pe aana hua..bahut hi utkrist racha per comments ke madhyam se itni sundar charch dekhne ko mili hai ..aur har comment per aapke satik jabab man moh lete hain

रविकर ने कहा…

जीवन की किस उलझन को
सुलझा रहे हैं श्रीमान ||
दर्शन नहीं हुए कई दिनों से ||

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. आशुतोष मिश्रा जी,
नमस्ते.
बतरस के पुजारी अपनी बातों से मिश्री घोलकर आव-भगत करते हैं... बस इसी स्वभाव ने मुझे एक माध्यम दे दिया है कि मन-मुताबिक़ समय में कल्प-गल्प करने का.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय ग्लोबल जी,
आपसे प्रेम होने का कारण भी आपके विचार ही हैं.... आपके जब दर्शन होंगे तब होंगे... लेकिन आज़ मुझे अमित जी ने घर पर ही दर्शन दिये...

कल उनके दर्शन निमित्त 'अक्षर धाम' के द्वार पर लगभग पाँच घंटे प्रतीक्षा की... लेकिन दर्शन नहीं हुए...मैं निराश घर लौट आया था रात्रि १० बजे... मोबाइल से संपर्क भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि वे सब द्वार पर ही स्विच ऑफ होकर जमा हो जाते हैं.

उन्होंने तो अभीष्ट के दर्शन कर लिये... पर मैं ही वंचित रह गया...

ऐसे में आकाश में चाँद को निहारते-निहारते ही समय बिताया... अरे वह गुरु-पूर्णिमा का ही था.. पर प्रिय अमित मुझे एक दोहे की याद करा रहे थे :

गुरु गोविन्द दोउ खड़े ... काके लागूँ पाय.
बलिहारी गुरु आपने ... जु गोविन्द दियो बताय.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ वीणा जी
आपके ब्लॉग पर लिखी रचना इतनी दमदार थी कि टिप्पणियाँ स्वतः उसी रंग में रंग गईं... आभारी हूँ इस बहाने आपने पाठशाला का दौरा किया.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ संगीता जी,

"लचकता में भी एक छिपी दृढ़ता होती है" .... आपने इस चिंतन-पथ पर मेरी सोच के घोड़े खोल दिये.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ एसएम् जी .... मुझे अच्छा लगा मेरे बोझ को पो-एम् समझा. आभार.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी,
जितनी भी भारी आपके समीप मुश्किलें आयेंगी मेरी शुभकामना द्वारा अपहृत कर ली जायेगी...संवाद का विलम्ब नाराजगी का संशय तो मन में लाता ही है.
पर अब निश्चिन्त हो गया हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय रविकर जी,

रोजमर्रा की गुत्थियाँ ही हैं...जिसे सुलझाते-सुलझाते जीवन व्यतीत होता है.

कल का समय 'अदर्शन' में बीता ... और आज का समय 'दर्शन' में.. और अब कुछ फुरसत हुई तो फिर घरलू काम में उलझने जा रहा हूँ.

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

कविता अच्छी लगी लेकिन आप गायब हैं बहुत दिनों से।

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

आपकी कई नई पुराणी कवितायेँ पढ़ी आज... बधाई स्वीकार करें!