गुरुवार, 30 जून 2011

अनचाहा अपराध

शिष्ट शब्दों से दिखा दी
आपने मुझको ज़मी*.
संतुलन अद्भुत झलकता
बात में रहती नमी.

इस नमी* से ही पराजित
पुरुष क्या सब देव हैं.
पुरुष की हठधर्मिता भी
सूखती स्वमेव है.

आपके गृह-त्याग ने मन पर
रखा हमारे 'जुआ'.
बैल-बुद्धी* हूँ तभी तो
अनचाहा अपराध हुआ.
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ज़मी = जमीन, शर्मिन्दा करने से अर्थ
बुद्धी = सही शब्द 'बुद्धि'
बैल-बुद्धि = मूर्ख
जुआ = बोझ, हल का अग्रिम सिरा
नमी = विनम्रता, गीलापन (संवेदनशीलता)
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आदरणीय रचना जी के लिये मेरे मन के भाव...

मन पर एक बोझ-सा आकर सवार हो गया है... इससे किस तरह मुक्त हो पाउँगा... सोचे जा रहा हूँ. जब किसी के घर छोड़ने का कारण बन जाऊँ तो अपराध बोध होता है.

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