ओ कलम! आप निज बाल-प्रिया.
बचपन से तुमसे खेल किया.
शर छील प्रथम माँ ने तुमको
मेरे मृदु हाथों सौंप दिया.
पहले 'अक्षर' फिर 'शब्द' खेल
खेले मैंने, थे आप गेल*.
तुमने बदले हैं रूप कई
तब से अब तक सब लिया झेल.
तुम हो कैसा मो..हनी दंड.
दुःख में भी आँसू बने छंद.
तुम बाँध रही मेरे विचार
जो अभी तलक थे खंड-खंड.
कवि कर के ओ सुन्दर कलाप*
शत कोटि-कोटि युग जियो आप.
तुमने मोती कर दिये अश्रु
मैं धनिक बन गया कर विलाप.
___________
गेल* = साथ
कलाप = अलंकार
धनिक = धनी
कलम के आधुनिक रूप 'की-बोर्ड' में भी उसी की पुरातन छब निहारता हूँ 'मोर-पंख वाली'
13 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भाव...बधाई
नीरज
इंटरनेट ने नई कलम-स्याही तो दी है मगर इसका नतीज़ा हम आज की पीढ़ी की हस्तलिपि में देख सकते हैं। मोरपंख और बांस की करची से बनी कलम से लेकर जेल-इंक और की-बोर्ड तक के इस सफर के मूल में विचार रहे हैं जिन्हें अच्छा बांधा आपने।
आपकी ये भावपरक रचना बेहद पसंद आई। क़लम से लिखना मुझे भी पसंद है।
इस कलम वंदना से "मसि - सहेली" फिर याद आ गई :)
नये युग में पुरातन के प्रति भी प्रेम, मेरी नजर में व्यक्ति विशेष की निष्ठा को दिखाता है।
प्रतुल जी, बेहद खूबसूरत भाव प्रस्तुत किये हैं, विशेषकर अंतिम पंक्ति -
"तुमने मोती कर दिये अश्रु मैं धनिक बन गया कर विलाप"
ऐसी कविता पढ़कर ऐसा ही भान होता है जैसे कवि ने मोरपंखी वाली तूलिका से ही लिखी है।
बदलाव प्रकृति का नियम है । आपकी 'कलम' को नमन' ।
तुमने मोती कर दिये अश्रु
मैं धनिक बन गया कर विलाप.
बहुत अच्छे भाव हैं कलम ने जीवन को जीने के कितने आयाम दिये आँसूओं मे भी सहचरी बन कर जीवनदान दे रही है कलम
सुन्दर रचना के लिये बधाई।
suprabhat guruji.....
isko man-hi-man gun-gunane me koi atkan-bhatkan nahi hue.....saral aur
sahaj hokar man me utar gaya........
pranam.
मैं धनिक हुआ
ना बोलूँगा
'आभार' किसी के आने का.
धन जब आता
मन उकसाता
मित्रों से .. दूरी बनाने का.
घर* में दिखते
कुछ लोग वही
क्लब* में आनंद जमाने का.
है एक रसी
मम तरकारी
होटल* में बहुरस खाने का.
___________
घर = मेरा ब्लॉग
क्लब = ?
होटल = ??
सुन्दर रचना के लिये बधाई।
कुछ अलग ही बात है आपकी कलम में ! आपको पढ़कर अच्छा लगता है ! हार्दिक शुभकामनायें !!
जैसा कि सभी गुनिजन कह गए हैं, वैसा ही स्वर मेरा है।
वाकई, आप कलम के उसी रूप से लिखते हैं। सुखद है आपको पढना।
गुणीजन
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