रविवार, 19 दिसंबर 2010

कर-अली


कर क्या देखो वातायन से 
इस घर के घुप्प अँधेरे में. 
क्या त्याग दिया तुमको रवि ने 
जो आयी पास तुम इस तम के. 

कर बोली - तुम पहले बोलो, 
क्यों बैठे हो आकर तम में. 
क्या छोड़ दिया है साथ तुम्हारा 
किसी वंचक-सी, सहेली ने? 

हाँ कहकर मैंने धीरे से, 
गरदन को अपने झुका लिया 
वो भाग गयी है छोड़ मुझे, 
ना है कोई मेरी और अली. 

कर बोली - मेरे स्वामी ने 
बनने को हेली बोला है. 
तुम भूल जाओ उस पल को 
जिसमें कि त्वं मन डोला है. 

है अनंत अली मेरे पिय की, 
निज देतीं सबको उजियाला. 
उर-व्यथा भार हलका करके, 
स्नेह देतीं हैं भर-भर प्याला. 

[कर-अली — किरण सखी ]

7 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

नव उत्साह का संचार करती अभिव्यक्ति!

है अनंत अली मेरे पिय की,
निज देतीं सबको उजियाला.
उर-व्यथा भार हलका करके,
स्नेह देतीं हैं भर-भर प्याला.

Shekhar Suman ने कहा…

प्रतुल भैया आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं ...
आज एक नया शब्द सीखने को मिला आपकी पाठशाला में..धन्यवाद...
कुछ शब्द और हैं जिनका अर्थ समझ नहीं पाया...
वंचक, हेली, त्वं ....

Majaal ने कहा…

आज कल सवाल पूछने बंद कर दिए साहब ;)

लिखते रहिये ....

ZEAL ने कहा…

इश्वर कष्ट हरो ..
इश्वर ही सबके कष्ट हरता है , इंसान की क्या मजाल की वो किसी के कष्ट कम कर सके।

हवामहल ..
जयपुर और हवामहल को तस्वीरों में देखा है। बहुत इच्छा है कभी देख सकूँ। जब कभी मन उदास होता है तो प्राकृतिक सौन्दर्य मन को सुकून पहुंचाते हैं।

कर-अली ...
'कर' तो बहुत बुद्धिमान है । प्रिय का दुःख समझ बहुत कोमलता से स्वामी को समझाती है। 'कर' ही तो सच्ची 'अली' है।

आपकी 'हवामहल' और 'इश्वर कष्ट हरो' नामक रचनाओं पर कमेन्ट बॉक्स ना दिखने के कारण यहीं पर कमेन्ट कर रही हूँ। -आभार।

ZEAL ने कहा…

अगली कविता पर 'वंचक' का अर्थ पढ़ा। सावधान रहिये चोरनियों एवं ठग्नियों से।
आभार।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

ek saath 3 sundar kavita....

bahut achhe...

pranam

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

बहुत ही सुन्दर..पढ़कर मन को बहुत ख़ुशी हुई।