सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तुम एक अगर होती तो मैं

[कच-देवयानी का एक प्रकरण : जिसमें कच के देवयानी के प्रति मनोभाव]

तुम एक अगर होती तो मैं
तुमसे ही कर लेता परिणय.
खुद में नारी के रूप सभी
कर लिये आपने पर संचय.


तुझमें देखूँ मैं कौन रूप
मैं असमंजस में बना स्तूप.
तुमको छाया मानूँ अथवा
मैं मानूँ तुमको कड़ी धूप.


मैं दो नदियों के बीच मौन
संगम जैसी पावन धारा.
तुम मलयगिरी की हो सुगंध
मैं हूँ व्योम गंधित तारा.

शेष अंश बाद में कभी दूँगा.
_____________________
मैं काव्य-मर्मज्ञों से जानना चाहता हूँ कि कच के इन स्वगत-कथनों में कौन-सा रस है.
दूसरे स्व-लाप में कौन-सा अलंकार है. मैं दुविधा में हूँ.

काव्य-पाठशाला के बीच इस प्रश्न-पत्र को विद्यार्थी तर्क-सम्मत हल करें. हाँ इसे गुरु के मन का विकार जान परिहास उड़ाने की भी खुली छूट है.

28 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…


क्या बात है गुरुदेव !
गीत का यह सरल प्रवाह भाव अन्यंत्र दुर्लभ है...
ब्लाग जगत में तो देखा ही नहीं प्रतुल ! आनंद आ गया !
लगता है ब्लाग जगत के दिन फिरने वाले हैं ! आज फिर अमित को धन्यवाद दे रहा हूँ जिनकी अपील पढ़ कर पहली बार यहाँ पंहुचा ! हार्दिक शुभकामनायें !

बेनामी ने कहा…

ohh ! ! ! apne palle to kuch nahi pada... in rason ke baare mein koi jaankari nahi hai ...haan lekin jo bhi hai , hai bahut sundar...

मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष

ZEAL ने कहा…

व ,

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गुरदेव ,

प्रथम दृष्टया तो इस कविता में श्रृंगार रस का ही आभास होता है जो सच नहीं प्रतीत होता। मुझे लगता है कि , नौ रस पर्याप्त नहीं इस कविता के रसों को बताने के लिए। क्यूंकि इसमें श्रृंगार, वात्सल्य , करुण आदि कोई भी रस नहीं दिख रहा है।

कारन है , नायक 'कच' का बेहद ही दुविधा में होना। दुविधाग्रस्त मनुष्य के मन में एक ही समय पर एक से ज्यादा रसों कि उपस्थिति होती है । नायक ये ही जानता कि वो उस स्त्री के किस रूप से प्यार करता है ? कभी वो उसे अपनी प्रेयसी समझता है तो कभी भगिनी । इसलिए नायक 'कच' के देवयानी के प्रति मनोभावों में सच्चाई और इमानदारी कि कमी लगती है। उसने अपने शब्दों के छलावे से नायिका 'देवयानी' को छलने कि कोशिश की है ।
ये छलावा जिस 'रस' द्वारा बताया जा सकता है वो नौ-रसों में वर्णित नहीं है।

मुझे तो नायक के मन की कलुषता देखकर 'कच' के मनोभावों में 'वीभत्स' रस ही दिखाई दे रहा है।

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ZEAL ने कहा…

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देवपुत्र कच ने छल से संजीवनी विद्या सीखनी चाही । उसने अपने गुरु शुक्राचार्य से भी छल किया और गुरु की पुत्री 'देवयानी' जो गुरु-बहेन के सामान थी उसे भी छल के साथ अपने प्रेम-पाश में फंसाया।

निर्दोष और मासूम देवयानी ने सती-सावित्री की तरह , जो ह्रदय से कच का 'पति' रूप में वरन कर चुकी थी , ने तीन बार 'कच ' को मौत से बचाया। गुरु शुक्राचार्य ने निस्वार्थ होकर पुत्री-प्रेम वश देवयानी की ख़ुशी के लिए , कच को तीन बार पुनर्जीवित किया। गुरु ने उसको जीवन-दान देने का प्रतिदान भी नहीं माँगा। न ही कच से गुरु-दक्षिणा के रूप में पुत्री से विवाह करने को कहा।

लेकिन कच ने गुरु को छला। उसने छल से विद्या सीखी । देवयानी से एक लम्बी अवधी तक प्रेम करने के बाद उसे बहिन कहकर , उसके प्रेम का अपमान किया। उसने अपने व्यवहार से यह भी सिद्ध कर दिया की स्त्री सिर्फ उपभोग की वस्तु है , इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।

वो देवयानी के साथ तब तक रहा जब तक उसके अन्दर का श्रृंगार प्रबल था और गुरु से विद्या नहीं सीख ली। कार्य सिद्ध होने के बाद 'कच' , पिता-पुत्री को अपमानित एवं अत्यंत दुखी छोड़कर चला गया।

उसने कहा उसके जीवन में कर्तव्य प्रथम हैं, इसलिए उसे जाना होगा। 'कच' एक एहसान-फरामोश' पुरुष था।
बहिन कहने के बाद बहिन के प्रति दायित्वों को नहीं समझा और जाते-जाते बहिन को श्राप भी दे डाला, की तुमसे कोई ऋषि-पुत्र विवाह नहीं करेगा।

अभिमान और दंभ के चलते उस कृतघ्न पुरुष 'कच' ने 'देवयानी' से परिणय नहीं किया। कलुषित मन वाले 'कच' को एक स्त्री के कोमल मन के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए था।

अंत में यहीं कहूँगी की एक कलुषित मन वाला व्यक्ति चाहे जितने सुन्दर शब्दों में एक स्त्री से अपने मनोभाव कहे....उसमें वीभत्स रस ही होगा।

आभार।


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Narendra Vyas ने कहा…

pavitra bhavon kee prabal pravaah..bahut hee sudnar laga..badhai..shesh ansh ka besabri se intezar rahega...aabhar !!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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divyaa ji,
सत्य की खोज में दोनों पक्ष सुने जाने चाहिए. पूर्वाग्रह और रूढ़ मान्यताओं के चलते पक्षपात कतई नहीं होना चाहिए. आपने बेहद सुन्दर विश्लेषण किया. एक बात इस दृष्टि से भी विचार करवाना चाहूँगा कि ये समस्त विचार कच के स्वगत हैं, मन ही में रह गये हैं, कई निर्णय मानवीय दृष्टि अनुचित होते हैं/ कहे जाते हैं, लेकिन सामान्य जन के सम्मुख आदर्श रखने के लिये उन्हें करना अनिवार्य हो जाता है. हमारे सामने एकाधिक उदाहरण हैं :
१] राम ने सीता को वनवास दिया. उसे 'अनुचित' जानते हुए भी.
२] पितामह भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा की. कारण आप जानते ही होंगे.
३] राजा हरिश्चंद्र ने सत्य की रक्षा के लिये पत्नी और बच्चे का त्याग करके एक डोम [हरिजन] के यहाँ शव जलाने की नौकरी की. केवल आदर्श-स्थापना के लिये.

........... इस तरह के भारतीय नीति कथाओं में एकाधिक उदाहरण हैं जहाँ वैयक्तिक सुख को त्याग करके आमजन के लिये प्रेरक बने. हाँ, इस बात से सहमत हूँ कहीं न कहीं यह मानवीय दृष्टि से अन्याय है. लेकिन संबंधों की मर्यादाओं को तय करने वाले ये विधान दीर्घ कालिक आवश्यकता हैं.
फिलहाल इतना ही, बाक़ी विद्वान् जन मार्गदर्शन करेंगे.
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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अरे! रस में मग्न होते दूसरा प्रश्न छूटे ही जा रहा है. "इसमें अलंकार कौन सा है? "
हाँ यह बता दूँ कि किसी पंक्ति में एक नूतन अलंकार निहित है. जो यह बता सकता हो कि वह किन पंक्तियों में है उसका उल्लेख कर भर दे. मुझे लगेगा पाठशाला लगाना सार्थक होगा. मुझे दो-तीन विद्यार्थी ही चाहिए. वैसे तो मैं भी विद्यार्थी हूँ. पर इस पाठशाला का कार्यभार मुझे ही निभाना है. सो दायित्व निभाये जाता हूँ. मैं गुरु बनने की कोशिश में बिलकुल भी नहीं हूँ.
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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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रस की दृष्टि से अंत में विचार दूँगा. लेकिन इससे पहले इतनी चर्चा तो कर ही देता हूँ कि
यहाँ वीभत्स नहीं वीभत्स रसाभास है. यहाँ रस का आभास मात्र है और वह तब तक ही है जब तक अपेक्षाएँ हैं. क्या कच बिना शरीर के है? क्या उसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं?
एक व्यक्ति के लिये दूसरा व्यक्ति इसलिये स्वार्थी है क्योंकि वह पहले व्यक्ति के स्वार्थ पूरे नहीं करता.
और पहला इसलिये करता रहता है कि भविष्य में उसका कोई स्वार्थ सधेगा. क्या पहले व्यक्ति के समस्त क्रिया-व्यापारों को निःस्वार्थ कहा जाना चाहिए?
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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

नरेंद्र व्यास जी,
आपका पाठशाला में आने के लिये आभारी हूँ. रचना का शेष अंश कभी 'अलंकार-चर्चा' के समय दूँगा.

Amit Sharma ने कहा…

@ किसी पंक्ति में एक नूतन अलंकार निहित है. जो यह बता सकता हो कि वह किन पंक्तियों में है उसका उल्लेख कर भर दे.
गुरूजी क्या वे पंक्तियाँ यह है>>>>>>
मैं दो नदियों के बीच मौन
संगम जैसी पावन धारा.

मात्र अटकल ही लगायी है :)

Amit Sharma ने कहा…

प्रथम पद्य में विरोधमूलक विरोधभासअलंकार का आभास सा हो रहा है.
द्वितीय पद्य में संदेह अलंकार
तृतीय पद्य में उत्प्रेक्षा अलंकार
यहाँ भी मात्र अटकल ही लगायी है :)

Amit Sharma ने कहा…

पर ह्रदय की बात करूँ तो मुझे तो यह पूरी की पूरी रचना ही "गूढ़ार्थप्रतीतिमूलक" लग रही है

Amit Sharma ने कहा…

@ मोनिटर अमित जी,
आपने कक्षा में इतनी शान्ति ला दी कि सभी ने बोलना ही छोड़ दिया.

# गुरूजी विद्यार्थी इतनी शांति से बैठे थे की मुझे नींद आ गयी, और सारे के सारे बच्चे पता नहीं कहाँ पिकनिक मनाने चले गए.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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आपके प्रतिउत्तर ने आभास कराया कि मेरी मेरा मित्र बेशक न सुने लेकिन मेरी कही अमित नित सुनता है.
आपकी अटकल इस पाठशाला के नाटक को शुरू रखने को बाध्य करती है.
@ नहीं वह नूतनता उन पंक्तियों में नहीं हैं. वहाँ तो प्रसिद्ध 'उपमा' अलंकार है ....... 'संगम जैसी'

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अमित जी, प्रथम पद्य में अलंकार पहचाने पर आपको दस में दस दिए जाते हैं.
विरोधमूलक 'विरोधाभास' ...की रुय्यक ने परिभाषा दी है "जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत में विरोध का चमत्कार पूर्ण कथन होता है वहाँ विरोधमूलक अलंकार होता है. इसमें विरोध कवि कल्पित होता है, वास्तविक नहीं होता. जिस प्रकार बादलों में बिजली की क्षणिक चमक दर्शकों को चमत्कृत कर देती है, उसी प्रकार अप्रस्तुत का क्षणिक विरोध काव्य रसिकों को चमत्कृत कर देता है.
विरोधमूलक के अंतर्गत ही विरोधाभास अता है ....... "जहाँ पर विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति होती हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है. कवि शब्दार्थ की योजना कुछ इस प्रकार से करता है कि प्रथम दृष्टया पदार्थों में विरोध प्रतीत होने लगता है किन्तु थोड़ा-सा ध्यान देते ही विरोध शांत हो जाता है. यही उसका चमत्कार होता है.

दूसरे पद्य में क्या वास्तव में संदेह है, एक बार फिर सोचें ....
परिभाषा है : "जहाँ पर उपमेय और उपमान के विषय में संदेह का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया जाता है. सत्य ज्ञान का अनिश्चय ही संदेह अलंकार है. एक ऎसी स्थिति आती है कि अतिशय सादृश्य के कारण एक वस्तु में अन्य अनेक वस्तुओं का आभास होने लगता है और दर्शक इस उहापोह में रहता है कि यह वस्तु यह है कि वह है. अनेक स्थलों पर दो विरोधी वस्तुओं में भी एक स्थल पर संदेह उत्पन्न हो जाता है. यथा — यह पंडित है अथवा मूर्ख."

अब पद्य को लें ....
"तुमको छाया मानूँ अथवा
मैं मानूँ तुमको कड़ी धूप."
............. कच को देवयानी में दोनों रूप दिख रहे हैं 'वह शीतल छाया और सुख का ठहराव भी प्रतीत होती है'. और 'वह सौन्दर्य से पूरित इतनी आकर्षक लगती है उसका संयमित मन उसके सौन्दर्य की प्रचंडता से बचना चाहता है. उसके sayam के पाँव जल जाते हैं उसके सौदर्य की धूप में.
...... यहाँ तय नहीं कर पा रहा है कि वह उसे क्या माने. जबकि दोनों आभासित रूप सत्य हो सकते हैं.

यहाँ मानना तय करना है न कि यह तय करना है कि यह वस्तु यह है कि वह है.

रस्सी को साँप मान लेना भ्रम है. और तय न कर पाना सदेह है. अब यदि रस्सी और साँप की विशेषताओं को किसी पर आरोपित किया जाता है और फिर उसमे से बेहतर का चुनाव कर मानना हो कि कौन-सा बेहतर है मेरे लिये.

तीसरे पद्य का पहले ही बता दिया है.

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ZEAL ने कहा…

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तुझमें देखूँ मैं कौन रूप
मैं असमंजस में बना स्तूप. --vismay


तुम मलयगिरी की हो सुगंध
मैं हूँ व्योम गंधित तारा.--shringaar

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

निद्रा, अविराम श्रम के कारण मस्तिष्क ने मेरी पिछली टिपण्णी में कुछ त्रुटियाँ कर दी है :
१] उसका [कच का ] संयमित मन उसके [देवयानी के] सौन्दर्य की प्रचंडता से बचना चाहता है. उसके [कच के] संयम के पाँव जल जाते हैं उसके [देवयानी के] सौदर्य की धूप में.

...... यहाँ कच तय नहीं कर पा रहा है कि वह उसे [देवयानी को ] क्या माने. जबकि दोनों आभासित रूप सत्य हो सकते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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दिव्या जी, आप मानते है :

तुझमें देखूँ मैं कौन रूप
मैं असमंजस में बना स्तूप. --विस्मय

@ विस्मय स्थायी भाव है अदभुत का. यहाँ विस्मय नहीं है. विस्मय मतलब आश्चर्य.
असमंजस मतलब दुविधा. जैसा कि आपने पहले समझा था. यदि आपका शुद्ध अदभुत रस से तात्पर्य है वह bhi नहीं है.
हाँ, यहाँ शृंगार के भीतर अदभुत ने शरण ली हुई है. अथवा कहें शृंगार रसाभास और अदभुत रसाभास है.
स्तूप बनने से मतलब कच की स्तब्धावस्था है कि वह किस रूप को स्वीकार करे जबकि दोनों ही भव्य हैं. एक में चन्द्र-किरणों सी शीतलता है और दूसरे में सूर्य-किरणों सी ओजस्विता है.

तुम मलयगिरी की हो सुगंध
मैं हूँ व्योम गंधित तारा.--शृंगार

@ अपने एकालाप में कच देवयानी को 'मलयगिरी की सुगंध' कहता है और स्वयं को नभ का गंधित तारा
व्यंजना कर अर्थ स्पष्ट होगा.
प्रत्येक वस्तु में चाक्षुष, घ्राण, स्पर्श, स्वाद और नाद के गुण कम-ज्यादा मात्रा में विद्यमान रहते ही हैं. [यह चर्चा का विषय हो सकता है, लेकिन इसे फिर कभी छेड़ेंगे], लौकिक [भौतिक] जगत में मलयगिरी गंध अनुभूतिजन्य है. जबकि परालौकिक जगत में [अनुभूति की सीमा से बाहर/ क्षमता से परे] तारा केवल चाक्षुष है उसके भीतर की गंध [चारित्रिक गुणों] से कोई परिचित तक नहीं. चारित्रिक गुण मतलब अन्य विशेषताएँ.

यहाँ गंध का बिम्ब क्यों लिया? वह इसलिये कि गंध वस्तु के मृत/अनुपस्थित होने के बावजूद उसकी शाश्वतता का बोध कराती रहती है.
कोई इतर लेकर निकला और चला गया, उसकी अनुपस्थिति पर भी सुगंध विद्यमान रही.
कोई मछली बाजार से गुजर भर आया, जिसका घ्राण क्षमता वालों ने पता लगा लिया.
मलयगिरी से आती वायु आपकी उपस्थिति का भान कराती है. आपकी क्षमताओं की प्रतीति कराती हैं.
परन्तु कच की उपस्थिति मात्र चाक्षुष बन कर रह गयी है. उसकी अन्य सभी विशेषताएँ और क्षमताएँ गंधित तारे की तरह व्यर्थ हैं.

एक बात और जिसका जो गुण प्रसिद्ध है उसका वही गुण पहचाना जाता है.
यदि मैं कहूँ की कमल की सुन्दरता चाक्षुष होने के कारण है. और गुलाब की सुन्दरता चाक्षुष और घ्राण गुणों के कारण से है. लेकिन जब गुलाब की पखुरियों से अधरों का उपमान दिया जाए और कहा जाए कि वह इसलिये भी सुन्दर हैं कि मधुरभाषी [श्रव्य] भी हैं.

यहाँ शृंगार में 'शांत' चुपचाप प्रवेश लेता दिखायी दे रहा है.

कुलमिलाकर यहाँ रसों का मिश्रण है. और जहाँ रस-मिश्रित हो जाएँ .... वहाँ या तो एक रसायन-विशेष तैयार हो जाता है जो समस्त कलुषताओं से उबार देता है. या ऐसा कीचड़ जिसे दिव्या जी के शब्दों में 'वीभत्स' कहना उचित होगा.

अब परीक्षा परिणाम:

इसके लिये दिव्या जी को दिए जाते हैं ........................ 100/100.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

2010/10/7 Amit Sharma <28amitsharma@gmail.com>

वाहजी वाह खूब जोर का झटका बड़े हौले से दिया जी. दिव्या जी को तो सबके सामने १०० में से १०० और हमऊ को १० में से १० वोह भी अकेले में मेल भेजकर, "बहुत नाइंसाफी है ये ठाकुर बहुत नाइंसाफी"

2010/10/7 Pratul Vasistha

अमित जी समस्त काव्य में गूढार्थप्रतीतिमूलक अलंकार है. सही पहचाना आपने. दस बटा दस.
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अभी नींद आ रही है फिर बात करते हैं.


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@
अमित जी,
अंक दिए तो 100 प्रतिशत ही हैं न.
आप कक्षा के बीच में सो भी तो गये थे न. और आपने अभी संदेह और भ्रम के मध्य झूलता अलंकार भी नहीं खोजा है बस अन्य साधारण अलंकारों की चर्चा करते रहे हैं. दे दिया सो दे दिया. आगे मन लगाकर मेहनत करते रहो वार्षिक परीक्षा की तैयारी में मन लगाओ. अपनी थाली न देखकर दूसरे की थाली देखने वाले असंतोषी जीव कहलाते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

2010/10/7 Amit Sharma <28amitsharma@gmail.com>

और उन विद्यार्थियों को क्या दंड मिलेगा जो पिकनिक मनाकर ही नहीं लौटे अभी तक :)


@ amit ji,
नियम उनके लिये होते हैं जो उन्हें मानता है. जो नियम नहीं मानता वे स्वभावतः स्वतंत्र हैं. इस पाठशाला में बंधन नहीं हैं. जो बंधन में स्वतः बंधे हैं वे रसिक हैं. और जो नहीं बंधे वे भी रसिक हैं. आपने प्रारम्भ में कोटियाँ निर्धारित की थीं. उन सबको उनमें से ही किसी एक रसिक पंक्ति में बैठा दीजिये. आप तो मोनिटर हैं न.

ZEAL ने कहा…

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गुरुदेव,

हम biology वालों को कभी भी १०० प्रतिशत अंक नहीं मिला जीवन में। आज मन पुलकित है सौ बटा सौ पाकर, और वो भी हिंदी व्याकरण की कक्षा में, जिसमें ब-मुश्किल पास हुआ करते थे --- आपका आभार।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अपील है की मानिटर अमित जी को , कक्षा में सोने के कारण, कृपया दस में से नौ अंक ही दिए जाएँ।

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Unknown ने कहा…

प्रिय गुरूजी

आपकी कक्षा के बारे मे काफी कुछ सुना है मे भी आपकी कक्षा मे प्रवेश करना चाहता हूँ

आपका नियमित पाठक

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

नरेश जी,
आप आ तो सकते हैं लेकिन आपको अब अपने पिछले समस्त प्रमाण-पत्र दिखाने होंगे. साथ ही ब्लॉग जगत के किन्ही उच्चस्थ ब्लोगरों से अपनी पहचान प्रमाणित करवानी होगी.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

दिव्या जी,
आपकी पुलक बरकरार रहे. गुरु पहचानता है कि अमित जी लम्बी दौड़ के धावक हैं. १०० मीटर की दौड़ में वे व्यवस्था बनाने में पिछड़ गये अन्यथा उन्हें कोई मात देदे ..........संभव नहीं.

ZEAL ने कहा…

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गुरूजी,

पुलक ज्यादा समय नहीं टिकती, अच्छा हुआ आपने मुझे मेरा स्थान बता दिया, मैंने तो मज़ाक में लिखा था । मुझे भी मालूम है अमित जी को कोई नहीं मात दे सकता। बल्कि चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए मात देने की। --धन्यवाद

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ZEAL ने कहा…

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अमित जी,

आपकी हिंदी कविता, रस, छंद आदि पर जो पकड़ है, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है...बधाई

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विद्यार्थियो,
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा अवश्य रखनी चाहिए.
इससे अपनी छिपी क्षमताओं का पता चलता है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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SOOCHNAA

अगली कक्षा अवश्य लगेगी लेकिन मुझे पहले ... पाठ पूर्व किये जाने वाले 'मित्र' संबोधन पर विचार करना है कि करूँ या नहीं.
कभी बातचीत में 'मित्र' ने वीभत्स' को 'भयानक' रस का मूल रस मानने से इनकार किया था, उस प्रश्न ने मुझे पाठशाला खोलने को विवश किया परन्तु मित्र DEEP की साधनावस्था टूटती ही नहीं.
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एक बार फिर हुई अवहेलना मेरे प्रयासों की.