सोमवार, 20 सितंबर 2010

हृल्लास-मूल

जीने से मरना लगे भला
कविता ने कवि को बहुत छला.
हिचकियाँ जिलाया करतीं जो
वो आज घोंटती स्वयं गला.


कारण कवि को कल्पना साथ
पाया कविता ने आज मिला.
पर कलम हाथ में नहीं देख
स्मृतियाँ कम्पित कर गईं हिला.


अब, हाय-हाय हृल्लास मुझे
मारेगा मेरे दोष दिखा.
क्या ह्रास करूँ हृल्लास-मूल
कौटिल्य भाँति मैं खोल-शिखा.

शब्दार्थ :
हृल्लास — हिचकी, हिक्का रोग.

हृल्लास-मूल — यादें, स्मृतियाँ.
'क्या ह्रास करूँ हृल्लास-मूल' — प्रत्यक्ष-मिलन (भेंट)
कौटिल्य भाँति मैं खोल शिखा' — दृढ़ प्रतिज्ञा,
[जिस प्रकार चाणक्य ने नन्द-वंश को मूल-समेत नष्ट करने की शिखा खोल कर प्रतिज्ञा की थी, उसी भाँति मैं भी हृल्लास-मूल को नाश करने की प्रतिज्ञा करता हूँ.]

4 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

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बहुत सुन्दर प्रस्तुति। मनमोहक पंक्तियाँ ।

इश्वर से प्रार्थना है की वो कवि को इतना संबल दे की वो दुखदायी स्मृतियों को भुलाकर, अपना जीवन सुकून से बसर कर सके।

आभार।

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कवि को हिचकियाँ किसी के याद करने पर आया करती थीं.
और उन हिचकियों से जीवन संचालित था.
लेकिन वही हिचकियाँ जब तीव्र हो गयीं
तब वे गलघोंटू बन गयीं.
जो कभी जीवनदायी था.
वही जीवनपायी हो गया.
किसी ने ठीक ही कहा है >>>>>" अति सर्वत्र वर्जयेत"

Amit Sharma ने कहा…

क्षमा मैं चाहूँ पर यह बात यहीं कहना चाहूँ
मित्र आखिर हुआ क्या ऐसा समझ ना पाँऊ

कविकुल दिव्य- मणि मत छोड़ो तुम अणि
उहापोह क्योंकर क्या तुम्हारे मन में ठणि

सावधान कर पुनि मन कविश्वर, करो फिर सृजन सुन्दर
हृल्लास क्यों भयो तोही भारी,शमन होवे वेदना तुम्हारी

हिक्का जब आवे पुनि-पुनि, मानों सुमिरे संगी-साथी-गुनी
चणक-सुत अनुसरण की मन धारी, तौ सर्जो अचम्भ्कारी

हम तौ तोर नेह पियासे, नित आवें मुग्ध हो जावें यहाँ से
अमित अभिलाष हमारी सृजन हो प्रतुल-प्रचुर आनंदकारी


अणि - धार, पहिए की धुरी की कील
ठणि - ठानने के अर्थ में प्रयुक्त
हृल्लास - बार-बार कै या वमन करने को जो चाहना, मितली, मिचली
हिक्का - हिचकी,. एक प्रकार का रोग, जिसमें लगातार बहुत हिचकियाँ आती हैं
चणक-सुत - चाणक्य

Rohit Singh ने कहा…

प्रतुल कुछ नहीं कहूंगा। सोच रहा हूं हिचकियों के बारे में अति के बारे में।