शनिवार, 18 सितंबर 2010

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?
जिसमें ना वय संशयमय हो.
कहने में पिय जैसी लय हो.
जिसकी हिय में जय ही जय हो.

या बहूँ धार में धीरज खो?
तज नीति नियम नूतनता को.
बस नारी में देखूँ रत को?
रसहीन करूँ निज जीवन को?

क्या सहूँ ह्रदय की संयमता?
घुटता जाता जिसमें दबता.
नेह, श्रद्धा, भक्ति औ' ममता
क्या छोड़ सभी को सुख मिलता?

अय, कहो मुझे तुम भैया ही.
मैं देख रहा तुममें भावी
सपनों का अपना राजभवन.
तुमसे ही मेरा राग, बहन.

किस तरह समय में परिवर्तन
आयेगा — ये कैसे जानूँ?
संबंध आपसे जो अब है
बदलेगा — ये कैसे मानूँ?

सब रूप आप में ही अवसित
दिखते हैं मुझको नारी के .
क्या करूँ आपको मैं प्रेषित
हिय भाव सभी संचारी के?


शब्दार्थ : 
रत — रति 
बहन — बहिन 
संचारी भाव — जिनका संचार स्थायी भाव के साथ हुआ करता है. वे पलभर को प्रकट होते हैं, फिर लोप होते हैं. उनका यातायात आलंबन और उद्दीपन विभावों पर निर्भर होता है. 

7 टिप्‍पणियां:

Amit Sharma ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Amit Sharma ने कहा…

रस राज कहलावे चाहे श्रृंगार,पर महाराज है वात्सल्य
महाभाव है वात्सल्य जांकी कृपा मिटे सब हिय-शल्य

याहीं भाव की शरण गहो तुम, प्रतुल गावो दिव्य गीत
अमित आनंद ह्रदय में उमड़े, रहे ना कोई जग भय-भीत

ZEAL ने कहा…

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हमेशा की तरह खूबसूरत कविता। अमित जी की टिपण्णी ने चार चाँद लगा दिया। --आभार।
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Majaal ने कहा…

बड़ी सादगी से लिखते है आप. उम्दा शब्द चयन ....

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

खूबसूरत पंक्तियां। प्रवाहमय अभिव्यक्ति।

प्रतुल जी, समय निकालकर penavinash.blogspot.com और देखियेगा। निश्चिंत रहियेगा मेरा नहीं है ये ब्लॉग(मैं स्वघोषित मार्केटिंग मैनेजर हूँ इस ब्लॉग का), लेकिन आशा है समरुचि के चलते आपको पसंद आयेगा।

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

अभी देखा कि आपकी पिछली पोस्ट पर अविनाश का कमेंट है। पहले से परिचय है तो मेरी रेकमंडेशन इग्नोर कर दीजियेगा।

Rohit Singh ने कहा…

प्रतुल आप उन उपमाओं को पुनर्वजीवित करने की कोशिश में हैं जिस कारण आपकी कविता पर नजर तो रहेगी ही हम जैसे अकिंचनों की। कविता के आचार्यों की परीक्षा में आप कितने पास होंगे ये मैं नहीं जानता। पर एक कविता पढ़ने वाले हिंदी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाले हमारे जैसे आम पाठक के लिए आप दुरह नहीं हैं। सो जैसा लगता है वैसा लिखते हैं। ये भी है जहां भाषा को पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही हो वहां हमें तो आना ही होगा न।

आपने अगर ध्यान दिया हो तो सारी टिप्पणियों में मैने लाइनों को पढ़ कर किसमें किसकी झलक दिखती है यह ही सिर्फ कहा है। हां जहां आम पाठक को अवरोध सा लगा उन शब्दों पर टिप्पणी भी की है। औऱ आपने कवि के अधिकार को कायम रखते हुए उन शब्दों को प्रयोग करने का कारण औऱ उनके समझने की नहीं दुष्टि भी दी है। इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं। जिदी कवि होने बेहतर है अपनी कविता में नए-नए प्रयोग करना। पुरानी परिपाटी को भी नए कलेवर देना भी। मैं कविता का आलोचक या कविता पोस्टमार्टम करने वाला नहीं हूं। आपकी पिछली कविता में आखरी लाइन में मैने धोबी पाट देने की बात क्यों कही ये आप समझ ही गए होंगे।

बस अपने प्रयास में लगे रहें। अनुप्रासों की परंपरा जो खो सी गई है उसे फिर से प्रस्थापित करने की कोशिश करें। उपर वाले से आपकी सफलता की प्रार्थना करता हूं।

आपने गुरत्तर जिम्मेदारी ली है इस ब्लॉग के सहारे।