मैं सुप्त लुप्त था अपने से
[आवृत काव्य — रचनाकाल : १७ फरवरी १९९१]
शैया पर दृग अंचल करके
सहसा पिय ने स्पर्श किया
पलकों पर, आई हूँ सजके
लाई हूँ शीतलता तन में
अब मुक्त करो नयनों को तुम
कह बैठ गयी वह शिरोधाम
शैया पर निज, होकर अवाम.
मैं सिहर उठा यह सोच-सोच
अनदेखे ही पिय मुख सरोज
अधरों का वार कपोलों पर
अब होगा, लोचन बंद किये
मैं पड़ा रहा इस आशा में
बाहों के बंधन से बँधकर
क्या उठा लिया जाऊँगा अब.
जब सोचे जैसा नहीं हुआ
पलकों का द्वारा खोल दिया
पिय नहीं, अरे वह पिय जैसी
दिखती थी केवल अंगों से.
मैं समझा, पलकें स्वयं झुकीं
वह आ बैठी बेढंगों से.
पर पिय तो मेरी स्वीया सी
जो नित प्रातः करती अर्चन
चरणों पर आकर आभा से
कर नयन मुक्त, करती नर्तन.
जो आई थी लेकर दर्शनझट हुआ रूप का परिवर्तन.
वो! सचमुच में थी विभावरी
थी उदबोधित*-सी निशाचरी.
नेह को न छल सकता छल भी
चाहे छल में कितना बल भी
हो न सकता उर हरण कभी
क्योंकि निज उर तो पिय पर ही.
__________________
* उदबोधिता = एक नायिका जो पर-पुरुष के प्रेम दिखलाने पर उस पर मुग्ध होती है.
2 टिप्पणियां:
वाह प्रतुल जी एक श्रेष्ठ काव्य का रसास्वादन कराने के लिए आभार.बेहतरीन काव्य उड़ान बधाई
जिसे होश रहेगा वो पहचान भी सकेगा, प्रतुल भाई हमारे भरोसे मत रहना।
एक नया ही रंग देखने को मिला है आज, आई डी हैक तो नहीं हो गई? :)
एक टिप्पणी भेजें