मंगलवार, 30 अगस्त 2011

दो उरों के द्वंद्व में

दो उरों के द्वंद्व में 
लुप्त बाण चल रहे 
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता.

नयन बाण दोनों के 
आजमा वे बल रहे 
बाणों की भिड़ंत में 
स्वतः चार हो रहे.

बाणों की वर्षा से 
हार जब दोनों गये 
मात्र एक बाण छोड़ 
संधि हेतु बढ़ गये.

नागपाश बाहों का 
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के 
कपालों पर बन गये.

दोनों ही हैं 'अस्त्रविद'
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है 
दोनों सृष्टि हेतु हैं 
न करें तो विनाश है.

दोनों तो हैं संधि-मित्र 
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में 
मनु पुत्र उत्पन्न हों.






प्रश्न : उपर्युक्त कविता में किस कोटि का शृंगार कहना उचित होगा? 
— सरल शृंगार
— संयोग शृंगार 
— अश्लील शृंगार 
— घोर शृंगार


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मन में बसे 'अनुराग' की इच्छा थी कि इस बार कोई पद्य रचना पढूँ.... छंद के नवीन पाठ निर्माणाधीन हैं, कुछ अधिक समय मिलते ही सामने लाऊँगा.

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36 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

— घोर शृंगार ||

नयन से चाह भर, वाण मार मार कर
ह्रदय के आर पार, झूरे चला जात है |

देह झकझोर देत, नेह का बुलाय लेत
झंझट हो सेत-मेत, भाग भला जात है |

बेहद तकरार हो, खुदी खुद ही जाय खो
पग-पग पे कांटे बो, प्रेम गीत गात है |

मारपीट करे खूब, प्रिय का धरत रूप
नयनों से करे चुप, aise aajmaat है

रविकर ने कहा…

— घोर शृंगार ||

नयन से चाह भर, वाण मार मार कर
ह्रदय के आर पार, झूरे चला जात है |

देह झकझोर देत, नेह का बुलाय लेत
झंझट हो सेत-मेत, भाग भला जात है |

बेहद तकरार हो, खुदी खुद ही जाय खो
पग-पग पे कांटे बो, प्रेम गीत गात है |

मारपीट करे खूब, प्रिय का धरत रूप
नयनों से करे चुप, aise aajmaat है

सुज्ञ ने कहा…

रविकर जी से सहमत!!

घोर शृंगार ||

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सारी तरह के श्रृंगार कि परिभाषा का ज्ञान नहीं .. विशेष घोर शृंगार कि परिभाषा बताएँ ...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

पंक्तियाँ बहुत सुंदर रची हैं.....शृंगार की जानकारी नहीं है ....

Unknown ने कहा…

नागपाश बाहों का
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के
कपालों पर बन गये.

वाह गुरूजी बेहतरीन शब्दांकन , श्रेष्ठ काव्य. इन छंदों का नामकरण क्या है बताये तो ज्ञान बढे , धन्यवाद

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

एक संशय है - लुप्‍त बाण के स्‍थान पर यदि सुप्‍त बाण होता तो?
हम तो शिष्‍य है, गुरु तो आप हैं इसलिए पहले पाठ पढाएं फिर प्रश्‍न करें तो बेचारे शिष्‍य उत्तर देंगे ना।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

"ghor shringar" ............. sahi hai.......lekin, hum ise "veer shringar" kahenge...........yunki...
ye padya padhne me veerta ke sath shringar ka gun-gan kar raha hai....

'o ab nahi aayenge....unka yaad aayega'


pranam.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

घोर क्या घनघोर है।

Kailash Sharma ने कहा…

नागपाश बाहों का
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के
कपालों पर बन गये.

....कोई भी श्रंगार हो, पर है बहुत ही लाज़वाब..आभार

ZEAL ने कहा…

अर्थ न समझ पाने के कारण कविता के मर्म पर कोई टिप्पणी नहीं करुँगी , किन्तु कविता का शिल्प अति मोहक है।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी,
— द्युति का स्व-भाव प्रकाश है और द्युति का अ-भाव अन्धकार है
— दिनेश का उदय शृंग है और दिनेश का अस्त गर्त है.
जब दिनेश शीर्ष (मध्याह्न) पर होता है सर्वाधिक प्रकाश होता है ... कुछ गुप्त नहीं रहता.
किन्तु जब क्षितिज (पूर्वाह्न / अपराह्न) पर होता है प्रकाश कमतर होता है.... काफी कुछ गुप्त रहता है.

आपकी दृष्टि उस रस-विशेष के सभी शृंग-गर्त को भलीभाँति पहचानती है.

हे आशु कवि! आपकी कवितामयी टिप्पणी किसी भी पोस्ट के लिये उपलब्धि है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी,
जब शृंगार जैसे विषयों पर कुछ लिखता हूँ तो पाठक की दृष्टि से भी सोचता हूँ इसीलिए उनकी सकुचाहट और अपने संकोच के निवारण के लिये टिप्पणियों की दिशा बदलने की चेष्टा करता हूँ. कविता के बाद उसे प्रश्नात्मक रूप देने के पीछे यही औचित्य होता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,

'शृंगार' भाव की उच्चावस्था का नाम है जिसमें सर्वाधिक भावों का समावेश रहता है. अथवा इसे यूँ भी कह सकते हैं... संयोग और वियोग सेनाओं का अकेला सेनापति है 'शृंगार'.

सरल शृंगार —व्यक्ति इसमें अपेक्षा नहीं रखता मिलन की... इसमें दर्शन सुख ही पर्याप्त होता है.

संयोग शृंगार — इसमें आंगिक और मानसिक हाव-भावों से उद्भूत सुख की अतिशयता 'मिलन' को परिणाम मानकर चलती है.

अश्लील शृंगार — प्रेम के सामाजिक दुरावों का निःसंकोच उदघाटन अश्लील शृंगार है. विस्तार ... फिर कभी.

घोर शृंगार — आद्योपांत एक-सा भाव बने रहना.... जैसे सावन में घटा छाती है तो कहीं कम-अधिक का भान नहीं रहता वह इकसार बरसती है. देवेन्द्र पाण्डेय जी ने सरलता से समझने के लिये 'घनघोर' शब्द सुझाया .... पसंद आया. उक्त कविता में भी द्वंद्व, युद्ध, प्रलय एक ही कोटि के भाव उपजाते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

डॉ. मोनिका जी,

उक्त पंक्तियाँ १० वर्ष से अधिक हृदय में ही मौन होकर रहीं ... किन्तु जब मुझे शृंगार का सही-सही भान नहीं था तब इसकी रचना हुई... एक बार मैंने इस कविता का पहला छंद जब अपने बड़े भाई को सुनाया था तब वे पूछते रह गये थे कि ये किसकी रचना है.... हम तब 'लाल कवि-सम्मेलन' में भाग लेने श्रोता रूप में जा रहे थे. ये बात शायद 1995 की है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय कुश्वंश जी,

उक्त कविता 'आदित्य जाति' के अंतर्गत आती है. इस जाति में १२ मात्राओं के २३३ भेद होते हैं. फिलहाल इस छंद का नामकरण मैंने नहीं किया है... इस पर गहन चिंतन और शोध की जरूरत बाक़ी है. कभी फुरसत में करूँगा जरूर. अपनी अल्पज्ञता के लिये शर्मिन्दा हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया अजित जी,

प्रश्नोत्तर शैली से संकोची भी अपना संकोच सहसा गँवा देते हैं... आपने लुप्त बाण को सुप्त बाण करने की मंशा ज़ाहिर की... यदि बाण सुप्त होते तो उन्हें जागृत होने में समय लग सकता था.. लेकिन यहाँ दोनों पक्ष नवोदित हैं... इसलिये संकोच के कारण बाण लुप्त रूप से (गायब होकर) मतलब छिपकर चला रहे हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय सञ्जय जी,

बिलकुल सही पहचाना .... 'वीर शृंगार' ..... शृंगार का वर्णन वीरता के साथ किया गया है... वीर रस के विभावों का वर्णन है मतलब आलंबन और उद्दीपन वीर रस के लिये गये हैं. .......... शाब्बास. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ वंदना जी, आभारी हूँ मेरे संकोच समय में जन्मी कविता को निःसंकोच तेताला मंच देने के लिये.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय कैलाश जी, आपकी शाबासी मेरे लिये काफी महत्वपूर्ण है.. मनोबल बढ़ता है... नये प्रयोग करने को मन फिर से उछलता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ बहिन दिव्या जी, आपने शिल्प को सराहा ... इतना ही पर्याप्त है.

रविकर ने कहा…

ईद की सिवैन्याँ, तीज का प्रसाद |
गजानन चतुर्थी, हमारी फ़रियाद ||
आइये, घूम जाइए ||

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वीरेंद्र सिंह ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है सर जी! टिप्पड़ी के बदले प्रतिउत्तर में आपकी टिप्पड़ी भी पढ़ी जो की बहुत अच्छी लगी!
आप को श्रीगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

भाव और शिल्प दोनों से समृद्ध .......युद्धवत श्रृंगार रचना

Ojaswi Kaushal ने कहा…

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मदन शर्मा ने कहा…

दिव्या जी से पूरी तरह सहमत हूँ कृपया कोई भी रचना रचते समय हम जैसे अज्ञानिओं का भी ख्याल करें प्रभु !!!
रविकर जी ने अपनी कविता से आप की पोस्ट पर चार चाँद लगा दिया है......आभार

मदन शर्मा ने कहा…

आप के ब्लॉग की सूचना मेरे dash बोर्ड पर क्यों नही आती ???

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…





प्रियवर प्रतुल वशिष्ठ जी
सस्नेहाभिवादन !

दो उरों के द्वंद्व में
लुप्त बाण चल रहे
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता

प्रवाह देखते ही बनता है

आपकी रचनाओं पर अधिक कहने की अपेक्षा मौन भाव से मनन ही अधिक श्रेयस्कर प्रतीत होता है ।


आपको सपरिवार
बीते हुए हर पर्व-त्यौंहार सहित
आने वाले सभी उत्सवों-मंगलदिवसों के लिए
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मधुर ... प्रेम को श्रंगारित करती रचना...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@
रविकर जी!
मन के भावों के दरजी!!
बढ़िया सिलते-बुनते बातें
भौंचक्के रहते 'सर जी'.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ विरेन्द्र जी,
"प्रतिउत्तर में भी उतना श्रम रहना चाहिए जितने श्रम से कोई हमारी पोस्ट पर समय निकालकर टिप्पणी करता है."... ऐसा मेरा मानना है.
आपकी शुभकामनाएँ प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा और अमावस्या तक हमेशा मेरे साथ रहती हैं... शायद आप नहीं जानते... आपसे प्रेम है इसलिये मैं उन्हें आपसे बिना पूछे ही अपने साथ रखता हूँ.
विश्वास कीजिएगा आपकी शुभ्र कामनाओं को कोई चोट नहीं पहुँचाऊँगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय सुरेन्द्र जी, आप रचना में निहित भाव और बाह्य शिल्प की आंतरिक सुन्दरता को झट पहचान जाते हैं.
आप तो शृंगार और युद्ध दोनों से भलीभाँति परिचित होंगे ... सुरेन्द्र की सभा में अप्सराओं का आना और सुरेन्द्र का 'देवासुर संग्राम' में जाना आपने सुना ही होगा. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय मदन जी,
रविकर और दिव्या जी अपने नाम के अनुरूप ही कार्य करते हैं... जहाँ जाते हैं चार चाँद और सात सूरज लगा देते हैं.
ध्यान दीजिये ... रविकर जी ने इस पोस्ट पर चार चाँद (टिप्पणी) लगाए हुए हैं. :)
दिव्या जी का किसी भी पोस्ट पर एक बार आना इतना प्रकाश कर देता है कि सप्ताह भर सूरज दर्शन न भी दे ... चलता है.
मदन जी, मुझे तकनीकी कमियों को दूर करने की कोई समझ नहीं ....आपके डेशबोर्ड पर कैसे मेरे ब्लॉग का सितारा बुलंद हो ... मैं बता नहीं सकता. क्षमा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय राजेन्द्र जी,
"मौन बहुत रहते हो दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो,
कभी-कभी तो आते हो मिलते हो, हमसे हँस बोलो."
..........आपका मौन आशी मुझे मिलता रहा है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय दिगंबर जी,
जो भी शृंग पर आ जाता है वह आकर्षित करता है ... प्रभावित करता है ...
अम्बर के शीर्ष पर मार्तंड ....
मंदिर की शीर्ष का गुम्बद ....
राजभवन की शीर्ष पर लगा राष्ट्रध्वज ...
विजेता के सिर पर सुशोभित मुकुट ...
.. बरबस ध्यान खींचते हैं.

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता...

भई वाह!! मानना पडेगा, कल्पना लाज़वाब है!