रविवार, 21 अगस्त 2011

स्वगत प्रश्न

यदि मैं अंधकार में कलम पृष्ठ पर रखकर लिखता चला जाऊँ। अनुमान से अक्षरों को क्रमशः स्थापित करता, पंक्तियों की सिधाई का ध्यान रखता तो कार्य की सफलता में विलम्ब न हो – और हृदय की तात्कालिक अभिव्यक्ति भी हो जाये। 
? यदि ऐसे में अक्षर अक्षर से टकरा जाएँ या पूरी पंक्ति पंक्ति पर ही चढ़ जाय तो मेरी कुशलता दोषी होगी अथवा मेरा अन्धकार को कोसना ठीक होगा _


[कोमलेतर भाव का 'गद्य' साँचा]

20 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

यदि ह्रदय से निकली अभिव्यक्ति है तो अंधकार को कोसने की परिस्थियाँ नहीं आएँगी..... (गहन विचार हैं जितना समझ सकी उसके आधार पर विचार रखे हैं :)

Smart Indian ने कहा…

मेरी नज़र में दोष का मूल कारण तो अन्धकार ही हुआ भले ही अभ्यास से उसे काफ़ी हद तक काबू जा सकता हो। पद्य का इंतज़ार है।

Satish Saxena ने कहा…

यह जन्माष्टमी देश के लिए और आपको शुभ हो !

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

आदरणीय प्रतुल जी,

अँधेरे को दोष देना ठीक न होगा क्योंकि उपयुक्त समय का चुनाव भी तो कुशलता का ही परिणाम होता है !

आपको श्री कृष्णजन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

फँसा रहे हैं आप। न तो अन्धकार न आप।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

swagat kaksh me bilam se aana hua....

ek shok sandesh "gurwar amar ab hamare madhya nahi rahe"

uneh hamari hardik shradhanjali


pranam.

ZEAL ने कहा…

ऐसी स्थिति में कुशलता गौड़ हो जाती है। अन्धकार का धन्यवाद किया जाना चाहिए जो निर्बाध अभिव्यक्ति का माध्यम बना।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

तात्कालिक अभिव्यक्ति तो हो ही जायेगी ..भले ही अक्षर अक्षर से टकरा जाएँ ..पंक्ति के ऊपर पंक्ति नहीं चढेगी ..लिख कर देख लें :)

Sunil Kumar ने कहा…

अंधकार का कोई दोष नहीं वह तो आपकी प्रवीणता को जाँच रहा है ...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. मोनिका जी, बात उस एक समय विशेष की है.. प्रायः किसी की स्मृति में चन्द्र दर्शन करते हुए जब टहला करता हूँ तब न्यूनतम प्रकाश के कारण अपने मधुर भावों को कागज़ पर उकेरते हुए अक्षर परस्पर टकराते हैं और पंक्ति पंक्ति पर जा चढ़ती है. उसे प्रकाश में जाकर देखता हूँ तो क्षण-विशेष का अद्भुत बन जाता है. शायद हमारे भाव और विचार भी मस्तिष्क के अन्धकार में वैसे ही गुथे रहते होंगे जैसे कि अँधेरे में चली कलम से बने 'आक्षरी-चित्र'.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मेरी नज़र में दोष का मूल कारण तो अन्धकार ही हुआ भले ही अभ्यास से उसे काफ़ी हद तक काबू किया जा सकता हो। पद्य का इंतज़ार है।

@ आदरणीय अनुराग जी, एक बार मुझे निद्रा में कविता लिखने की सूझी .... डायरी के पृष्ठ पर निद्रा प्रभावी कविता का जो चित्र बना... वह भी मुझे पसंद आया ... क्योंकि आड़े-तिरछे अक्षरों से मेरी शारीरिक दशा में लिपटा मन झाँक रहा था.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सतीश जी, आठ दिवस बाद आपकी शुभेच्छाओं से मिलने को मेरे आभार का जन्म हुआ है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय विरेन्द्र जी, आपके उत्तर ने अभिभूत किया क्योंकि मन की हर दशा का अपना प्रभाव है... जरूरी नहीं कि निद्रा की अवस्था में हम सर्वश्रेष्ठ चिंतन कर सकें अथवा आध्यात्मिक मंथन कर सकें.निद्रावस्था में हम केवल स्वप्न ही ले सकते हैं या शरीर को विश्राम दे सकते हैं. उपयुक्त समय का चुनाव हमारी कुशलता का सूचक है... फिर भी कभी-कभी 'राका' में कल्पना की उड़ान को शब्दों में कैद करने की इच्छा अन्धकार की परवाह किये बगैर हाथ में पकड़े कागज़ के टुकड़े पर स्थिर होने लगती है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय चन्दन जी, यदि यह सब वाकजाल है तो भी आप इसमें उलझने वाले नहीं.. क्योंकि 'अरुचि' आपको बचा ले जायेगी.. कविता के रसिकों को जब बिना विचार वाले गद्य से अरुचि हो जाये तो उनको कोई भी नहीं फँसा सकता.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सञ्जय जी,
डॉ. अमर जी के साथ विमर्श के कुछ पत्र मुझ पर हैं जो मुझे महसूस कराते हैं कि वे हमारे आस-पास ही हैं. लगता है कि किसी कारण से नाराज हैं और पोस्ट पर कमेन्ट नहीं करने आये.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी, उन सभी अंधेरों को मेरा नमन जिसमें काव्य का सृजन हुआ था ... अभिव्यक्ति निर्बाध रही ... न अन्धकार ने रोका न निद्रा ने. यहाँ तक कि स्वप्न में भी कविताई को रोक न पाया.

कभी सुनाऊँगा स्वप्न में रचे अनगढ़ काव्य और विचार-सूत्रों को.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,
:) लिखकर देखना क्या... कई कविताओं के निर्माण में अक्षरों की टकराहट और पंक्तियों की परस्पर भेंट देख चुका हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुनील जी,
शायद आप सच कहते हैं .... अन्धकार मेरी सुलेख-प्रवीण' परीक्षा ले रहा था.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

गहन अन्धकार में कविता लिखना ....
यहीं तो होगा शब्दों से शब्दों का , भावों से भावों का अप्रत्याशित मिलन !
पंक्ति तो लहराती बलखाती नागिन सी चलेगी ही ...
क्योंकि उजाले का भय तो रहेगा नहीं ....

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय सुरेन्द्र जी,
सच कहा .... जब मिलन होता है तब बाह्य उजालों से भय लगता ही है.