मिल गयी हमारी छिपी बात
लज्जा से गुंठित थे कपाट.
तेरी सखि शोधक बहुत तेज़
रखते तुम क्यों नज़रें सपाट?
हो सरल हृदय करुणाभिसिक्त
दीठी सखि की है स्यात तिक्त.
पिछली कविता का भेद खोल
कारण जाना 'मम स्नेह रिक्त'.*
बलहीन कलम कविता विहीन
हत मीन नयन मेरी ज़मीन.
नट बने भाव आते-जाते.
जीवट पर तेरे है यकीन.
'स्नेह रिक्त' = 'तेल की कमी'
इस कमी के कारण दीप कहीं बुझ न जाये इसलिए 'दर्शन' की चाहना बनी रहती है.
5 टिप्पणियां:
suprabhat guruji....
achhi kavita......manbhavan......
ab apka picha karne lage hain......
jiska fayada ..... niramish...vichar-shunya...gauravji...ke saath apke/apne priya mitra sugyaj evam amitji ke vishad darshan hue.........
yathsthan kuch kah nahi paya...lekin
baat apni kahni thi...kah diya.....
vishesh...shesh
pranam.
बहुत अच्छी अभिब्यक्ति| धन्यवाद|
बहुत अच्छी लगी यह रचना।
दर्शन की हो अथवा ज्ञान की पिपासा , लाभकारी ही है । हम जीवित हैं और सतत क्रियाशील हैं , इस बात की और इंगित करती है।
गहन अभिव्यक्ति..... यह सोच ही हमें गतिशील बनाये रखती है....
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