शनिवार, 12 मार्च 2011

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल 
'परभृता' की ... तरह है दिल. 
'काग' के ...  घोंसले अन्दर 
छोड़ आया ... जो गया ले. 
'पल सकेंगे ... वे वहाँ पर' 
दिल यही ... संदेह पाले. 
आप हो ... 'भावज' दुलारे 
मम हृदय के ... नयन तारे. 
रख सकूँगा ... दूर तुमको 
कब तलक? — मैं सोचता हूँ.


क्या प्रशंसा-पथ से ही आचार्यों का शिष्यत्व पाया जा सकता है?
क्या कोई और उपाय नहीं जिससे गुरु अनुकम्पा मिले?

15 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

गुरू में अपने श्रेष्ठ विचारों का ही गुरूत्व होता है, जो शिष्य उस विचारधारा को आगे बढाए, अनुकंपा पा लेता है। भले शिष्य सवाया निकले,विचार वही तो गुरू को प्रिय॥

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

संस्कृतनिष्ट भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई...

Amit Sharma ने कहा…

अद्भुत काव्य सृजन करते है आप ............... अपने भाई/बहन के प्रति प्रेम-वर्षण करते भाव-कुसुम अच्छे लगे

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुंदर भावों का बेहतरीन शाब्दिक अलंकरण ...... बहुत अच्छी रचना

कुमार राधारमण ने कहा…

गुरू प्रशंसा और आलोचनाओं से परे होता है। शिष्य की मर्यादा स्वयं को गुरू को समर्पित करने में है-उनकी प्रशंसा अथवा आलोचना में नहीं।

सुज्ञ ने कहा…

प्रतुल जी,

'समापन' के स्पष्टिकरण पर सहमति, असहमति अथवा संतुष्टि का संदेश न आया?

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji......

achhi prastooti par achhe vichar......hame bahut achha laga....

pranam.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, शिष्य गुरु की विशेष अनुकम्पा पाने के लिये ही उनकी विचारधारा को आगे बढ़ा रहा था.

'शिव-धनु' क्या टूटा परशुराम जी को क्रोध आ गया - यह तो 'शिव-धनु' की वंदना विगाड़ने का कृत्य है.

वे चाहते थे कि 'शिव-धनु' निर्विरोध पूजा जाता रहे.... आभारों का भार उन्हें प्रिय था किन्तु धनु पर प्रत्यंचा चढाने वालों को वे उत्पाती मान बैठे.



आचार्य ने मेरे हृदय के किसी कोने में छिपे बैठे अभ्यासरत मूक एकनिष्ठ भाव का रक्त बहते देख उसे 'कर्ण' [कुपात्र] समझ लिया.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. साहिबा शरद सिंह ...... व्यक्त कर देने के बाद अब मुझे लगता है .... यह कविता मेरे हृदय के असंस्कृत भाव हैं.

'हृत भाव' जब अत्यंत आदरणीय व्यक्ति द्वारा आहत किये जाते हैं... तब 'भाव प्रवाह' विलंबित स्वरों को पसंद करता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अमित जी, जो अत्यंत करीब होता है, उसे सदैव लगता है कि सृजन से उसका अवश्य कोई तार जुड़ा है.

भाई-बहिन के प्रति मेरा प्रेम पहले की भाँती ही है. किन्तु यह मेरे हृदय की पीड़ा अपने स्मृति उपासक आचार्य के प्रति है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. मोनिका जी, शब्दों पर अलंकरण बेशक है, भावों पर खरोंचे हैं. अलंकरण से वे स्यात दिख नहीं पायीं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय राधारमण जी, यदि गुरु प्रशंसा और आलोचनाओं से परे है तो संस्कृत में सुभाषितानी का एक सूत्र मैंने व्यर्थ याद किया :

शत्रोरपि गुणोवाच्या, दोषावाच्या गुरोरपि. ......... शत्रु के गुणों का भी बखान करो, गुरु के दोषों को भी कहो.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

'समापन' के स्पष्टिकरण पर सहमति, असहमति अथवा संतुष्टि का संदेश न आया?

@ सुज्ञ जी, इक इस्लामिक औरत पर आपकी सारगर्भित टिप्पणी मुझे 'समापन भाषण' इसलिये लगी थी क्योंकि हरकीरत जी ने आपके विचारों से उपजी समस्या का पटाक्षेप करना चाहा था.

कुछ ऐसे कार्य हैं जिनमें उलझा रहता हूँ जो आपने अपने व्यक्तिगत मेल में सुझाव दिये थे वे स्वभाव के विपरीत हैं किन्तु फिर भी उनपर आचरण करने का प्रयास रहता है. इसलिये काफी कुछ ... व्यक्त न करना ... सन्देश न भेज पाने का कारण बना. मुझे आपके विचार हर जगह सुलझे लगते हैं. व्यवहारिक लगते हैं. पत्नी आपके विचारों को पढ़कर मुझे उपदेश करने लगी है. वैसे ब्लॉग-लेखन से उन्हें खिन्नता हो गयी है. ब्लॉग-लेखन को वे मेरी असफलता का कारण मानने लगी हैं. पीठ पीछे ही यह सब कार्य हो पाता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मित्र सञ्जय, नमस्ते. जल्दी है.... आपसे बातें कभी और... कोई आने वाला है..

सुज्ञ ने कहा…

@पत्नी आपके विचारों को पढ़कर मुझे उपदेश करने लगी है.
चलो किसी के लिये तो हमारे विचार कारगर सिद्ध हो रहे है।:)

@वैसे ब्लॉग-लेखन से उन्हें खिन्नता हो गयी है.ब्लॉग-लेखन को वे मेरी असफलता का कारण मानने लगी हैं.
ब्लॉग-लेखन में वह जब सैंया की आपार क्षमता देखती है तो सोचती होगी इतनी ही सक्रियता कमाने में लगाते तो धन धान्य का अंबार लग जाता। ;)) यह तुलसीदास जी को मिले उल्हाने की तरह है। :))

पर उनकी बात अनसुनी न करें, गम्भीरता से लें।
(ब्लॉगिंग में हमारी अत्यधिक रूचि का कारण मान-प्रलोभन ही है।)