बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

चिंता


हे चपल बालिके !  मस्तक पर 
आकर क्यों टेढ़ी चाल चलो? 
क्यों निज रसमय अभिशापों से 
वृद्धावस्था का जाल बुनो?

हे व्याल प्रिये ! डस छोड़ दिया. 
तुमने तन में विष घोल दिया. 
यादों के दुर्दिन द्वारों को 
क्यों निर्मम होकर खोल दिया? 

अरी भ्रू मध्य ठहरी रेखा ! 
अप्सरा रूप तुममें देखा. 
तुमने आशा बनकर, मुझको 
ठग लिया, छली, मिथ्या लेखा ! 

[इस बार केवल कविता, चिंता के कारण कुछ सूझ नहीं रहा.]

15 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

गुरुजी,

चिंता आग है, चिंतन चिराग़ है।

Rahul Singh ने कहा…

व्‍याल प्रिये नये किस्‍म का प्रयोग लगा और उसका डसना और भी विशिष्‍ट.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी,
चिंता आग है, चिंतन चिराग़ है।
@ फिलहाल तो मुझे सुनने में आ रहा है
"चिंता [पर] आग है, चिंतन चिर [आग] है.
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निहितार्थ :
चिराग = दीपक, अथवा
चिराग = चिर+आग, जो हमेशा ज्वलित रहे - वाणी से और पाणी से (दिव्या).

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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@ राहुल जी, मुझे ध्यान है इस तरह का प्रयोग जयशंकर प्रसाद जी ने कहीं अवश्य किया है. शायद कामायनी के चिंता सर्ग में.
कुछ नया नहीं है, मुझे यह उपमान इस समय सटीक लगा सो प्रयुक्त किया.

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वीरेंद्र सिंह ने कहा…

प्रतुल जी..... आप जिस स्तर का लिखते हैं उसे पढ़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है.
किसी दिन फुर्सत में आपका पूरा ब्लॉग अवश्य पढूँगा. ये वो काम है जो मुझे हर हाल में
करना है. ये कविता भी उत्तम है.

इसके लिए आपका आभार !

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

यादों के दुर्दिन द्वारों को
क्यों निर्मम होकर खोल दिया?

yadon ke sudin dwaron ko
jyon apne hokar khol diya....

pranam.

ZEAL ने कहा…

जैसे खुशियों और दुःख के दिन होते हैं वैसे ही कभी-कभी चिंताएं भी सघन घेर लेती हैं। सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता न। लेकिन चिंता के बादल भी छंट ही जायेंगे।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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यादों के सुदिन द्वारों को
ज्यों अपने होकर खोल दिया.
@ संजय जी, लगता है कि आपको पूरे प्रकरण का आभास है, दिन तो वे सुन्दर ही थे जिनकी स्मृतियाँ मेरे मानस में आ-आकर डेरा जमा रही थीं. लेकिन जिस बात से चिंता का जन्म हुआ और जिन पूर्व स्मृतियों (बातों) से वह विकसित हुई वे मेरे लिये असह्य थीं. उनका स्पष्टीकरण नहीं कर सकता.
यह सत्य हैं कि चिंता, विरह, और तनावों में पिछली व्यतीत सुख की घड़ियाँ हमें और अधिक परेशान करती हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विरेन्द्र जी, आप पत्रकार हैं आप मेरे लिखे को पूरा पढेंगे.
सोचकर ही मन गदगद हुआ जा रहा है. कविताओं को कुछ कीमत मिली.
अन्यथा कुछ तो मेरे 'अयन' में ही गल जातीं. और कुछ मानस में ही गुनगुनाती रह जातीं.
और कुछ पत्नी को शयन के समय सुनाने का उपक्रम करतीं और कुछ काव्य-रसिकों के बीच बँट जातीं.
अच्छा हुआ कि समय रहते ब्लॉग-जगत का अवतार हुआ और मुझे आपसे जुड़ने का अवसर मिला.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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चिंता के बादल भी छंट ही जायेंगे।
@ अब तो मुझे भी लग रहा है कि चिंता के बादल छँट रहे हैं. प्रसन्नता-सूर्य निकल आया है.

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हरकीरत ' हीर' ने कहा…

हे ! प्रिय प्रतुल चिंत पुरुष
क्यों है तू अन्यमनस्क बता
कौन छली निर्मम बन आया
अघविष शब्दों में छन आया ...?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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हूँ तुला तौलता दर्शन-पल
हो तोल-वस्तु जितनी भी चपल
वह छली नहीं, न निर्मम है
कारण चिंता का अन्तस्तल.

वो चिंता है जिसने डसकर
तन में मेरे विष घोला है.
मन में तनाव पीड़ा इतनी
'हर' कीर तपन फफोला है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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'पल' के विविध अर्थ —
- समय का अति सूक्ष्म विभाग (क्षण), जो
पुराने समय में २४ सेकिंड के बराबर होता था, अब इसे घड़ी का साठवाँ भाग (१ सेकिंड) कहते हैं.
- दृग-अंचल (पलक),
- एक तौल जो चार-कर्ष के बराबर होती है,
- मांस.... [इस कारण 'पलाश' का एक अर्थ मांसभक्षी राक्षस भी होता है]
[अन्य अर्थ जिनका औचित्य अभी नहीं जान पाया हूँ. .. चलने की क्रिया, छल, धान का पुआल, तुला या तराजू (शायद पलड़ों के होने से कहा जाता हो)]
Q. पलड़ा शब्द कैसे बना ? सोच रहा हूँ. ...

कीर के दो अर्थ —
- शुक (तोता)
- मांस.
Q. कश्मीर देश के निवासी को 'कीर' क्यों कहते हैं? सोच रहा हूँ. ..

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लेखन के बाद का 'शब्द-चिंतन' शब्दकोश को खोलकर बैठ गया है.

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Satish Saxena ने कहा…

शुभकामनायें आपको !

सुज्ञ ने कहा…

हरकीरत जी की काव्य प्रच्छा, और प्रतुल जी का नपा-तुला जवाब, दोनो ला-जवाब!!